आखिर डायन के नाम पर कब तक बेकसूर अपनी जान गंवाते रहेंगे?

आखिर डायन के नाम पर कब तक बेकसूर अपनी जान गंवाते रहेंगे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हेमंत सरकार ने अपने दूसरे बजट में सबसे ज्यादा चिंता शिक्षा के बारे में की है और यह जरूरी भी है, क्योंकि झारखंड जैसे राज्य में हर साल अशिक्षा और अंधविश्वास के चलते ही बड़ी संख्या में निदरेषों की हत्याएं की जा रही हैं। यहां तक कि मासूम बच्चे भी इसका शिकार हो रहे हैं। हाल ही में गुमला जिले के कामडारा प्रखंड स्थित बुरूहातु आमटोली में एक ही परिवार की तीन पीढ़ियों का डायन-बिसाही के नाम पर एक साथ बेरहमी से कत्ल कर दिया गया। इस जघन्य कांड के बाद एक बार फिर यह बहस छिड़ गई है कि आखिर डायन-बिसाही के नाम पर राज्य में कब तक बेकसूर अपनी जान गंवाते रहेंगे? क्या इस पर पूरी तरह अंकुश लग भी सकता है? क्या ऐसी हत्याएं रोकने के लिए बने कानून को और सख्त किए जाने की जरूरत है? राज्य के उच्च न्यायालय ने भी इसे गंभीर मानते हुए मुख्य सचिव, गृह सचिव, पुलिस महानिदेशक और कल्याण सचिव से एक साथ जवाब मांगा है।

आज जब हर गांव तक मोबाइल पहुंच गया है और तेजी से सूचनाएं एक-दूसरे तक साझा हो रही हैं, ऐसे दौर में भी कोई समाज इतने गहरे अंधविश्वास में कैसे जी रहा है? जितनी हत्याएं, उतने ही सवाल? उच्च न्यायालय ने भी सवाल किया है कि गुमला में एक ही परिवार के पांच सदस्यों की हत्या के बाद डायन-बिसाही के मामलों से निपटने के लिए सरकार ने क्या कदम उठाए हैं? उच्च न्यायालय ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि यह घटना न सिर्फ शर्मनाक है, बल्कि पूरे तंत्र पर सवाल खड़े कर रही है।

यह किसी से छुपा नहीं है कि राज्य में आज भी बड़ी आबादी तमाम अभावों में जी रही है। अंधविश्वास, अशिक्षा से जकड़े गांवों में लोग बीमार पड़ते हैं तो चिकित्सकों से पहले ओझा-गुणी के पास पहुंचते हैं, जो अपनी दुकानदारी चलाने के लिए गांव की महिलाओं को सहजता से डायन करार देते हैं। इनका निशाना अधिकतर अकेली, विधवा अथवा दिव्यांग महिलाएं होती हैं। राज्य में पिछले पांच वर्षो में करीब 250 से ज्यादा महिला, पुरुष और बच्चे उग्र अंधविश्वासियों के शिकार बन चुके हैं।

गुमला में जो घटना घटी उसमें गांव के 70-80 लोग शामिल थे। बाकायदा पंचायत में यह तय किया था कि निकोदीन टोपनो के पूरे परिवार को मार दिया जाना है। गांव के आठ लोग इस काम के लिए चिन्हित किए गए। गुमला के एसपी एचपी जनार्दनन कहते हैं कि इस गांव में शिक्षा की कमी है। इस कारण ग्रामीण अंधविश्वास से जकड़े हुए है। कुछ लोग इस मामले में गिरफ्तार हुए हैं। कभी खुद डायन होने का दंश ङोल चुकी पद्मश्री छुटनी देवी सवाल उठाती हैं कि पंचायत में शामिल अन्य ग्रामीण अभी सलाखों के पीछे क्यों नहीं पहुंचे? गांव के अंतिम व्यक्ति तक को साक्षर कर, सरकार की विभिन्न योजनाओं के बूते ग्रामीणों की सामाजिक-आíथक स्तर को ऊंचा उठाकर, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं बहाल कर बहुत हद तक इस पर अंकुश लगाया जा सकता है।

डायन कहकर प्रताड़ित किए जाने पर कानून तो दो दशक पहले से ही बना है, परंतु इसका क्रियान्वयन सही ढंग से नहीं हो रहा। डायन-बिसाही के खिलाफ लड़ रहे सामाजिक संगठन डायन प्रथा प्रतिषेध विधेयक को और सख्त किए जाने के भी पक्षधर हैं। संगठनों का कहना है कि असम का द असम विच हंटिंग (निषेध, रोकथाम और संरक्षण) विधेयक में निहित प्रविधान पर सरकार को गौर करना चाहिए, जिसमें किसी महिला को डायन कहकर डराने, कलंकित करने, आत्महत्या के लिए मजबूर करने आदि मामले में पांच लाख रुपये तक के जुर्माने के साथ-साथ आजीवन कारावास तक के प्रविधान हैं।

असम के मुकाबले झारखंड का कानून काफी शिथिल हैं। यहां किसी महिला को सिर्फ डायन करार देने पर संबंधित व्यक्ति को जहां तीन माह की सजा हो सकती है, वहीं उसे एक हजार रुपये जुर्माना भरना पड़ सकता है। डायन करार देकर उसका शारीरिक या मानसिक शोषण करने पर छह माह की कैद या दो हजार रुपये जुर्माना देने का प्रविधान है। डायन का दुष्प्रचार करने या इस कार्य के लिए लोगों को उकसाने पर तीन महीने का सश्रम कारावास व एक हजार रुपये जुर्माने की बात इस विधेयक में है।

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