अफगानिस्तान में अलग बदलाव की तलाश में अमेरिका,कैसे?

अफगानिस्तान में अलग बदलाव की तलाश में अमेरिका,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

ये ईसा पूर्व 330 की बात है तुर्की, सीरिया, लेबनन, इजरायल, मिस्त्र, इराक और ईरान जीत चुका सिंकदर अपनी सेना के साथ अफगानिस्तान की ओर कदम बढ़ाया। उसका अगला हिंदुस्तान था। लेकिन हिंदु कुश पार करने में तीर बरस लग गए और वो भी एक देश की वजह से। वो मुल्क था अफगानिस्तान जहां के कबीलों से सिंकदर का मुकाबला हुआ। कुछ लोगों का मानना है कि सिंकदर के हिंदुस्तान न जीत पाने की एक वजह ये भी थी। अफगानिस्तान की सेना ने उसे खूब थका दिया था। अफगानिस्तान हमेशा से अपने ऊपर हमला करने वालों को खुद में उलझाए रखा है। चाहे बात 330 ईसा पूर्व की हो या वर्तमान दौर की।

अमेरिका के रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन पेंटागन प्रमुख के तौर अपनी पहली अफगानिस्तान यात्रा पर काबुल पहुंचे। उनकी यह यात्रा इन सवालों के बीच हुई कि आखिर अमेरिकी सैनिक कब तक अफगानिस्तान में बने रहेंगे? वाशिंगटन पोस्ट’ के अनुसार ऑस्टिन ने कहा कि वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी ‘‘इस संघर्ष का जिम्मेदार विराम’ और ‘‘कुछ अलग बदलाव’ होते हुए देखना चाहते हैं। ऑस्टिन ने कहा, ‘‘चीजों को लेकर हमेशा ही किसी न किसी रूप में चिंता रही है लेकिन मैं समझता हूं कि युद्ध पर जिम्मेदार विराम और वार्ता के माध्यम से उसके समापन के लिए जो कुछ जरूरी था, उस दिशा में काफी ऊर्जा लगायी जा रही है।’’ अमेरिकी सैनिकों के निकाल लिए जाने की समय सीमा को लेकर उन्होंने कहा ये मेरे बॉस के अधिकार क्षेत्र में है।

एक मई की समयसीमा को पूरा करना अमेरिका के लिए ‘कठिन’

पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और तालिबान के बीच हुए समझौते के तहत एक मई तक अमेरिका को अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाना है। लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान की जारी हिंसा के बीच अमेरिकी सैनिकों की वापसी का रास्ता कठिन दिखाई पड़ रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने ‘एबीसी न्यूज’ को दिए साक्षात्कार में कहा था कि अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी की एक मई की समयसीमा को पूरा करना अमेरिका के लिए ‘कठिन’ होगा। लेकिन उन्होंने कहा था कि पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन एवं तालिबान के बीच सहमति से बनी यह समय सीमा यदि बढ़ायी जाती है तो यह ‘अधिक लंबी’ नहीं होगी।

तालीबान की धमकी

तालिबान वार्ता टीम के एक सदस्य सुहैल शाहीन ने संवाददाताओं को चेतावनी देते हुए कहा कि उन्हें एक मई को जाना चाहिए। शाहीन ने चेतावनी दी कि एक मई के बाद रुकना, समझौते का उल्लंघन होगा। शाहीन ने कहा, ‘‘उसके बाद वह एक तरह से समझौते का उल्लंघन होगा। वह उल्लंघन हमारी तरफ से नहीं होगा। उनके उल्लंघन की एक प्रतिक्रिया होगी।

11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकी हमले के 9 दिन बाज अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने ऐलान किया- वॉर अगेंस्ट टेरर। इसी लक्ष्य के साथ 7 अतक्टूबर 2001 को अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया। इस हमले का नाम था ऑपरेशन इन्ड्यूरिंग फ्रीडम। ये युद्ध अमेरिका के इतिहास का सबसे बड़ा और महंगा काउंटरटेररिज्म युद्ध साबित हुआ। ओबामा बहुत चाहकर भी अपने दो कार्यकालों में इसे समाप्त नहीं कर सके। ट्ंप ने अपने कार्यकाल के आखिरी वर्ष में इसे समाप्त करने की नीयत के साथ एक समझौता भी किया।

क्या था अमेरिका-तालिबान समझौता?

अमेरिका-तालिबान समझौते के मुताबिक 135 दिनों के अंदर सैनिकों की संख्या 8600 तक घटाने के बाद अमेरिका और उसके सहयोगी 14 महीनों के भीतर बाकी बचे सैनिकों को वापस बुलाएंगे। इसके साथ ही तालिबान ने वादा किया है कि वह अल कायदा और किसी अन्य आतंकी संगठन से कोई रिश्ता नहीं रखेगा, उन्हें अपने प्रभुत्व वाले इलाके में किसी भी तरह की गतिविधि करने नहीं देगा। इस समझौते के बाद कट्टरपंथी इस्लामी संगठन तालिबान ने विदेश बलों पर तो हमले बंद कर दिए हैं लेकिन अफगानिस्तानी सुरक्षा बलों पर उसके हमले जारी हैं। अफगानिस्तान सरकार के साथ वार्ता के लिए तालिबान अपने हजारों की रिहाई की शर्त रखी थी। लेकिन इसके बाद तालिबान और सरकार के बीच कतर की राजधानी दोहा में सीधी वार्ता शुरू हुई उसका भी नतीजा नहीं निकल सका।

भारत का रूख 

भारत ने कभी भी तालिबान को आधिकारिक तौर पर मान्यता नहीं दी और न ही उसने कभी तालिबान को वैध राजनैतिक पक्ष माना। तालिबान के ऊपर पाकिस्तान का प्रभाव है। उसे वार्ता के लिए तैयार कर टेबल पर लाए जाने के लिए पाकिस्तान के प्रभाव की जरूरत थी। जिसका इस्तेमाल कर पाकिस्तान ने अमेरिका की अफगान पॉलिसी में अपनी जरूरत बनाए रखी।

अफगानी विदेश मंत्री ने पढ़े भारत की शान में कसीदे

‘द हिंदू’ से बातचीत में अफगानिस्तान के विदेश मंत्री हनीफ अतमर ने कहा, “भारत हमेशा से अफगान लोगों की मदद करता रहा है और हमारा बहुत अच्छा दोस्त है। भारत अफगान सरकार के साथ हमेशा खड़ा रहा है, खासकर पिछले दो दशकों में शांति और स्थिरता के प्रयासों को लेकर। अफगानिस्तान के लोगों के लिए ये बहुत ही अहम बात है कि उनके पास एक ऐसा दोस्त है जो हमेशा उनके लिए मौजूद है। भारत ने ना केवल राजनीतिक तौर पर बल्कि आर्थिक रूप से भी अफगानिस्तान की खुलकर मदद की है। भारत ने हमेशा कहा है कि जो शांति प्रक्रिया अफगानों को स्वीकार्य होगी, वही उसे भी मान्य होगी। इसलिए हम भारत को फिर से शुक्रिया कहना चाहते हैं, भारत की तरफ से जिस तरह की समझदारी दिखाई जाती है, वो सराहनीय है।

अफगान शांति वार्ता में भारत

शांति स्थापित करने की प्रक्रिया में भारत बेहद ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है और इस तथ्य को अमेरिका ने भी स्वीकार किया है। भारत अफगानिस्तान में शांति और सुलह के लिए सभी प्रयासों का समर्थन करता है जो कि समावेशी और अफगान-नेतृत्व एवं अफगान नियंत्रित होगा। अफगानिस्तान की स्थिरता भारत के दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने अफगानिस्तान के विकास के संदर्भ में काफी निवेश किया है।

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