किताबें ही तो सुलझाती हैं जिंदगी की उलझनें!

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विश्व पुस्तक दिवस पर मेरी बात
✍️गणेश दत्त पाठक

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

किताबें मैं पढ़ता रहा था। पढ़ाई के दौरान सिर्फ पाठ्यपुस्तकों से ही ज्यादा याराना रहा। लेकिन जब 2015 में मुझे ब्रेन ट्यूमर हुआ तो सर्जरी के बाद निम्हांस अस्पताल बेंगलुरु के डॉक्टरों ने आराम का सलाह फरमाया। बंद कमरे में रहना। धूल धूप से बचने की हिदायत के मद्देनजर एक कमरे में रहना मजबूरी थी। समय काटे नहीं कटता था। नितांत अकेलापन काटने को दौड़ता था। तभी दोस्ती हुई किताबों से। शुरुआत तो कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद के गोदान से हुई। लेकिन गोदान में दिखे जिंदगी के कई रंगों ने जिंदगी के फलसफे को समझने की ख्वाहिश जरूर पैदा कर दी।

हालांकि वह दौर मेरी जिंदगी का सबसे बुरा दौर था। जब रिश्तों की असलियत सामने आ चुकी थी। जब जिंदगी अनिश्चितता के कठघरे में खड़ी हो गई थी। बहुत कुछ समझ में आ नही पाता था। समाज के खोखलेपन का साक्षात्कार दंश दे रहा था। लेकिन जब समय किताबों के साथ गुजरता था तो जिंदगी की काफी सारी उलझने सुलझती दिखाई जरूर दे जाती थी। श्रीमद्भागवत गीता के अध्ययन ने न सिर्फ आध्यात्मिक आनंद दिया अपितु हमारे अस्तित्व के सरोकारों को भी स्पष्ट कर दिया । अनगिनत किताबों ने जिंदगी के हर आयाम के मायने समझा दिए। फिर ध्यान आया कि पाठ्यपुस्तको को पढ़ते समय हम कितने सीमित दुनिया में विचरण करते हैं?

दुनिया और जिंदगी के सूत्रों को समझना है तो किताबों को पढ़ना होगा। ये किताबें ही तो हमारे विचारों को सृजनात्मक कलेवर में बांधती हैं। ये किताबें ही तो हमारे रचनात्मक सोच की आधार बनती हैं। ये किताबें ही तो हमें सकारात्मक बनाती हैं। ये किताबें ही तो हमारी संचेतना को जागृत करती है। ये किताबें ही तो हमारी सजगता को तरंगित करती हैं। ये किताबें ही तो हमारे व्यक्तित्व को सुभाषित करती हैं। ये किताबें ही तो हमारे मानसिक तरंगों को ऊर्जस्वित और प्रेरित करती हैं। किताबों से बड़ा क्या कोई दोस्त या रिश्तेदार हो सकता है? आपके पास यदि किताबें हैं तो शायद आपके पास सबकुछ है।

यह सही है कि आज के डिजिटल क्रांति के दौर में सोशल मीडिया ने समय के अधिकांश हिस्से पर जबरदस्त और मजबूत कब्जा जमा लिया है। लेकिन नई पीढ़ी को किताबों को पढ़ने के लिए प्रेरित करना जरूरी है प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है। सुविधापूर्ण जीवन से व्याधियां घर करती जा रही हैं। संविदा के दौर में असुरक्षा एक हकीकत बनती जा रही है। समाज में अकेलापन बढ़ रहा है। संबंधों में दुराव बढ़ रहा है। नकारात्मक सोच हावी होता दिख रहा है ऐसे में जरूरी है कि किताबें दोस्त बन जाएं।

किताबें जब आपकी दोस्त बन जाएंगी तो आप जिंदगी को समझेंगे। समाज के विभिन्न आयामों को समझेंगे। हर विचार के निहितार्थ को समझेंगे जब आप सबकुछ समझ जायेंगे तो जिंदगी की हर उलझन सुलझती दिखाई देगी। इसलिए बस किताबें पढ़िए किताबें।

 

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