नसबंदी से लेकर अखबारों की सेंसरशिप तक इमरजेंसी.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

25 जून भारतीय इतिहास में बहुत महत्व रखता है. खासतौर पर दो घटनाओं के लिए 25 जून को याद किया जाता है, उनमें से एक है 25 जून 1975 को देश में लगा आपातकाल (Emergency in India) और दूसरा है 25 जून 1983 को भारत का पहली बार क्रिकेट वर्ल्ड कप (1983 Cricket World Cup Win) जीतना. इस लेख में बात क्रिकेट वर्ल्ड की जीत नहीं बल्कि आपातकाल के बारे में करेंगे.

यह तो सभी जानते हैं कि 25 जून 1975 ही वह दिन था, जब भारत में पहली बार सिविल इमरजेंसी लगाई गई थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) ने देश में आपातकाल लगाने की घोषणा की और तमाम विपक्षी नेताओं को रातोंरात गिरफ्तार करके जेलों में डाल दिया गया. अखबारों और रेडियो में सिर्फ वही खबरें आती थीं, जिन्हें सरकार आम जनता तक जाने देना चाहती थी. इसके अलावा आम लोगों पर भी कई तरह की पाबंदियां लगाई गई थीं. आपातकाल में हजारों लोगों की जबरन नसबंदी भी करवाई गई.

चुनावी जीत, जो हार में बदल गई

1971 के लोकसभा चुनाव में ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के साथ कांग्रेस को बहुमत मिला और इंदिरा गांधी ने बड़े मार्जिन से अपने प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को हराया. विपक्ष ने ‘इंदिरा हटाओ’ का नारा दिया था, जिसके जवाब में कांग्रेस ने ‘गरीबी हटाओ’ नारा दिया. आरोप लगा कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया.

उन पर यह भी आरोप लगा कि उन्होंने सरकारी कर्मचारियों को अपने चुनाव प्रचार में लगाया था. आरोप लगे कि इंदिरा गांधी ने सरकारी कर्मचारियों से अपनी रैलियों के तंबू गड़वाए. उनके चुनाव को कोर्ट में चुनौती दी गई और 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाइकोर्ट ने इंदिरा गांधी के निर्वाचन को रद्द करते हुए अगले 6 वर्ष तक उनके चुनाव लड़ने पर भी रोक लगा दी.

इंदिरा गांधी ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. लेकिन 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहरा दिया. इसके साथ ही कोर्ट ने आदेश दिया कि इंदिरा गांधी को एक सांसद के तौर पर मिलने वाले सभी विशेषाधिकार बंद कर दिए जाएं और उन्हें मतदान से भी वंचित कर दिया गया. हालांकि, उन्हें प्रधानमंत्री के तौर पर बने रहने की छूट दी गई.

ऐसे में इंदिरा गांधी के पास अपने पद से इस्तीफा देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था. कहा जाता है कि उस समय इंदिरा गांधी इस्तीफा देने को तैयार थी. स्पैनिश लेखर जेवियर मोरो ने ‘द रेड साड़ी’ में लिखा, ‘इंदिरा इस्तीफा देना चाहती थीं, लेकिन संजय ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया. वह मां को दूसरे कमरे में लेकर गए और समझाया कि अगर आपने इस्तीफा दे दिया तो विपक्ष आपको किसी भी बहाने से जेल में डाल देगा. इंदिरा गांधी को बेटे संजय गांधी की यह बात ठीक भी लगी.’

किन हालात में लगा आपातकाल?

इंदिरा गांधी के निर्वाचन के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भी अपना-अपना फैसला सुना चुके थे. पूरे देश में जय प्रकाश नारायण (JP Narayan) के नेतृत्व में प्रदर्शन शुरू हो चुके थे. संजय गांधी ने भी प्रधानमंत्री के तत्कालीन सचिव आरके धवन के साथ मिलकर बसों में भरकर इंदिरा गांधी के समर्थन में रैलियां करवाईं, लेकिन उनपर जेपी का आंदोलन भारी पड़ा. अब 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी की एक बड़ी रैली होनी तय थी, इसको लेकर आईबी को विद्रोह के इनपुट मिले थे. बस फिर क्या था इंदिरा गांधी ने कैबिनेट में चर्चा किए बिना देश में आपातकाल की घोषणा कर दी. तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने आधी रात को इमरजेंसी लगाने के पेपर पर दस्तखत किए थे.

21 महीने चला आपातकाल

25 जून 1975 को लगाया गया आपातकाल 21 महीने तक चला और 1977 में खत्म हुआ. स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादस्पद समय था. इस दौरान विपक्षी नेताओं को रातोंरात गिरफ्तार करके जेलों में डाल दिया गया, जिनमें जेपी, अटल बिहारी वाजपेयी, मोरारजी देसाई और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता शामिल थे. संजय गांधी ने अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री को उन लोगों की लिस्ट सौंप दी थी, जो इमरजेंसी का विरोध कर रहे थे. आदेश साफ था विरोध की हर आवाज को दबा दिया जाए. कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ने वाली जयपुर और ग्वालियर की राजमाताओं को भी इस दौरान गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल भेज दिया गया.

अखबारों में इंदिरा गांधी के खिलाफ कोई खबर न छपे, इसके लिए अखबारों की बिजली काट दी गई. अखबारों में सेंसरशिप लागू कर दी गई. कांग्रेस के बड़े नेता और अधिकारी अखबारों के दफ्तरों में बैठकर हर खबर को पढ़ने के बाद ही छापने की इजाजत देते थे.

जबरन नसबंदी

मोरो ने अपनी किताब में लिखा, संजय गांधी देश की समस्या की प्रमुख वजह बढ़ती जनसंख्या को मानते थे. पूर्व में कंडोम को लेकर अभियान चलाए गए थे, लेकिन उनका कोई असर नहीं हुआ. इसके बाद संजय गांधी ने मुख्यमंत्रियों को आदेश दिया कि वह सख्ती से नसबंदी अभियान को लागू करें. हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बनारसी दास गुप्ता ने सिर्फ 3 हफ्ते में ही 60 हजार लोगों की नसबंदी के ऑपरेशन करवा दिए थे. इसके बाद दूसरे राज्यों पर भी दबाव पड़ा और उन्होंने अधिकारियों को टारगेट दे दिए. नसबंदी करवाने वालों को 120 रुपये या एक टीन खाने का तेल या एक रेडियो लेने का विकल्प भी दिया जाता था. देशभर में लोगों को जबरदस्ती पकड़कर नसबंदी कार्यक्रम को चलाया गया.

कैसे रुका नसबंदी अभियान

जबरदस्ती नसबंदी कार्यक्रम के बारे में राजीव गांधी से लेकर तमाम अन्य नेताओं ने इंदिरा गांधी को बताया लेकिन वह नहीं मानीं. आखिर एक व्यक्ति पांच दिन पैदल यात्रा करके उनके दिल्ली स्थित कार्यालय में पहुंचा. पेशे से टीचर इस व्यक्ति ने बताया कि प्रशासन ने उनकी जबरन नसबंदी कर दी. पुलिस ने उनके मुंह पर मुक्के मारे, वह चिल्लाते रहे कि उनकी सिर्फ एक बेटी है, लेकिन वह लोग नहीं माने और उनकी जबरदस्ती नसबंदी कर दी. उस व्यक्ति ने इंदिरा गांधी को बताया कि पुलिस रात में ग्रामीणों को घेरकर उन्हें नसबंदी के लिए उठाकर ले जाती है. इसके बाद वह व्यक्ति फूट-फूटकर रोने लगा. इस व्यक्ति से मिलकर इंदिरा गांधी खूब आहत हुई और उन्होंने आदेश दिया कि कोई भी सरकारी कर्मचारी परिवार नियोजन के लिए लोगों से जबरदस्ती नहीं करेगा. जब इंदिरा गांधी ने यह आदेश दिया, उस समय संजय गांधी घर पर नहीं थे.

इस तरह हुआ आपातकाल का खात्मा

आखिरकार 18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने चुनाव कराने की घोषणा की. इसी के साथ कई विपक्षी नेताओं को जेलों से रिहा कर दिया गया. हालांकि, कई अन्य नेता अब भी जेलों में बंद रहे. क्योंकि आधिकारिक तौर पर आपातकाल का अंत नहीं हुआ था. आधिकारिक तौर पर 21 मार्च 1977 को आपातकाल खत्म हुआ. इससे पहले 16-20 मार्च को चुनाव हुए और इंदिरा गांधी व कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी.

जनता दल सहित विपक्षी पार्टियों को जबरदस्त सफलता हाथ लगी और उन्होंने लोकसभा की 298 सीटों पर जीत दर्ज की, जबकि कांग्रेस 154 सीटों पर सिमट गई. इंदिरा गांधी को स्वयं भी रायबरेली सीट से राज नारायण के हाथों हार का सामना करना पड़ा. कांग्रेस को बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे उत्तर भारत के कई राज्यों में एक भी सीट नहीं मिली. चुनाव परिणाम आने के बाद 21 मार्च को आखिरकार आपातकाल के खात्मे की घोषणा की गई.

 

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