वर्तमान सांप्रदायिक विद्वेष के दौर में कबीर के संदेश हैं बेहद प्रासंगिक: गणेश दत्त पाठक

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पाठक आईएएस संस्थान पर सद्भाव के प्रेरक पुरुष कबीरदास की जयंती पर श्रद्धा सुमन किया गया अर्पित

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

वर्तमान में देश में दिख रहे सांप्रदायिक विद्वेष के दौर में कबीर दास के संदेश बेहद प्रासंगिक दिखते हैं। कबीर युग दृष्टा के रूप में समाज के सदैव ही प्रेरक पुरुष रहे। हिंदू मुस्लिम पंथों के बीच, जब कट्टरता चरम पर पहुंच जाती है। दोनों पंथों के ठेकेदार जब अपने हितों को साधने के लिए पाखंड, अविश्वास, तथाकथित श्रेष्ठता का यशोगान करने लगते हैं तो सांप्रदायिक विद्वेष की सुनामी आते देर नहीं लगती है।

समाज का संतुलन बिगड़ने लगता है। ऐसे में कबीर के संदेश समाज का मार्गदर्शन करते दिखते हैं। कबीर बेबाक तरीके से दोनों पंथों की खामियों को उजागर करते हैं। परम् सत्ता के प्रति व्यक्तित्व के समर्पण को प्रेरित करते हैं तथा पंथ से संबंधित प्रक्रियाओं के खोखलेपन को उजागर करते हुए बल देते हैं कि कर्म ही व्यक्ति के जीवन का महान उद्देश्य है और सद्भाव ही मानवता की पहचान। ये बातें मंगलवार को जयंती पर सिवान के अयोध्यापुरी स्थित पाठक आईएएस संस्थान पर कबीरदास को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए शिक्षाविद् श्री गणेश दत्त पाठक ने कही। इस अवसर पर संस्थान के कुछ सदस्य और कुछ अभ्यर्थी मौजूद रहे।

इस अवसर पर श्री पाठक ने कहा कि संत कबीर ने सभी मताविलम्बियों की विभिन्न क्रियाओं एवं उपासना पद्धतियों के कुकृत्यों को बेबाक तरीके से उजागर किया। कबीर ने ‘पाहन पूजे हरि मिलै तो मैं पूजूं पहार’ कहकर जहां मूर्ति पूजा का विरोध कर डाला। वहीं दूसरी ओर मुस्लिमों के लिए ‘दिनभर रोजा धरत हो, रात हनत हो गाय’ कहकर गंभीर सवाल भी उठाए। कबीर केवल कटु आलोचक ही नहीं बल्कि एक वास्तविक समाज सुधारक रहे। कबीर ने जो कुछ कहा, निष्पक्ष होकर कहा।
‘अरे इन दोऊ राह न पाई’ कहकर दोनों ही मिथ्या मार्ग-गामियों को ठीक राह पर लाने का प्रयास भी किया है। कबीर ने संपूर्ण समाज में वैमनस्य का विरोध करके उसमें साम्य भाव स्थापित करने का प्रयास किया, तथा तत्कालीन समाज एवं पंथों की तीखी आलोचना करके जनता को सत्यमार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। कबीर की यही सम्यक दृष्टि उनको सार्वभौमिक बना देती है।

श्री पाठक ने कहा कि कबीर भारतीय संस्कृति के बुनियादी तत्वों के प्रबल पैरोकार रहे और इंसानियत को ही सबसे बड़ा पंथ माना। उन्होंने मानवता की सेवा को ही सबसे महान कर्तव्य माना। उनका मानना था कि जाति भेद तथा अन्य किसी भी आधार पर भेदभाव मानवता के प्रति अपराध के समान ही है।

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