महेंदर मिसिर : मस्ती के गायक
जन्मदिन (16 मार्च ) पर विशेष
श्रीनारद मीडिया : आलेख – जीतेन्द्र वर्मा
महेंद्र मिसिर के पूरबी गीत लोकप्रिय हैं । ये भोजपुरी में हैं । यह एक लोकधुन है । पूरबी का नाम सुनते ही बरबस महेंदर मिसिर की स्मृति हो आती है और महेंदर मिसिर का नाम आते ही मन – प्राण में पूरबी की धुन गूंजने लगती है । असल में दोनों एक – दूसरे के पर्याय बन गए हैं ।
उनका जन्म 16 मार्च 1886 में सारण जिले के जलालपुर के कान्ही मिश्रवलिया गाँव में हुआ था । उनकी माता का नाम श्रीमती गायत्री देवी और पिता का नाम श्री शिवशंकर मिश्र था ।
उनकी प्रसिद्धि का मुख्य आधार पूरबी गीत है । भोजपुरी क्षेत्र का हरेक लड़का – लड़की इन्हीं के गीतों के सहारे जवान होता है । यहाँ के गायक इनके पूरबी गीतों को आज भी चाव से गाते हैं ।प्रसिद्ध गायिका शारदा सिन्हा ने इनके गीतों को गाया है जो पहले कैसेट और अब इंटरनेट के माध्यम से भोजपुरी क्षेत्र के घर – घर में गूँज रहा है ।
वे मस्ती और स्वछंदता के गायक हैं । उनकी रचनाओं के अंतर्साक्ष्य से लगता है कि वे मस्तमौला स्वभाव के थे । असल में वे जयदेव और विद्यापति की परंपरा के कवि हैं । श्रृंगार , विशेषकर वियोग श्रृंगार के वर्णन में उनका मन रमा है । उनके वियोग श्रृंगार में रुदन नहीं है । उनका वियोग श्रृंगार प्रणय का मीठा निमंत्रण देते लगता है ।
उनके गीत लंबे समय तक लोककंठ में गूँजते रहा है । इनकी रचनाओं के पुस्तकाकार प्रकाशन का सिलसिला विगत शताब्दी के अंतिम दशक में शुरू हुआ । लोककंठ में किसी रचना का पीढी – दर – पीढ़ी सुरक्षित रहना उसकी आंतरिक शक्ति को दर्शाता है । उन्हें शास्त्रीय संगीत का ज्ञान था । उनके गीत संगीत तत्व से समृद्ध हैं ।
भोजपुरी क्षेत्र से मजदूरों का पलायन अंग्रेजो के समय से होते आया है । पुरुष बाहर कमाने चले जाते और पत्नी घर में रह जाती । इनके पूरबी गीतों में विरह की अग्नि में जलती स्त्री की वेदना कलात्मक ढंग से व्यक्त हुई है । ये गीत मन – प्राण में प्रणय का भाव भरते हैं ।
भोजपुरी क्षेत्र के हर जवान को उनके गीत मदहोश करते हैं –
1. अंगुरीडंसले बिया नगिनिया
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2. पिया मोर गइले सखी हे
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3. सासु मोरा मारे रामा बाँस के छिउंकिया
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4. होत पराते चलि जइहो मोरे रामा
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उनका अपूर्व रामायण कथावाचन की दृष्टि से लिखा गया है ।उसकी भाव – भंगिमा अद्वितीय है । वह श्रोताओं – दर्शकों का मन मोह लेती है ।
भोजपुरी क्षेत्र में कथावाचन की समृद्ध परंपरा रही है । आज ग्लोबलाइजेशन के इस युग में भी हरेक गाँव में दो . चार कथावाचक मिल जाते हैं । इन्हें व्यास या रामायानी कहा जाता है । वे शादी . विवाह तथा ऐसे अन्य अवसरों पर पूरी मंडली के साथ कथा वांचते हैं । वे वाक्यपटु होते हैं । वे अपनी प्रतिउत्पन्नमतित्व से लोगों का दिल जीत लेते हैं । धार्मिक कथा के साथ . साथ मनोरंजकपूर्वक बातें करते हैं ।वे गीत . संगीत ए स्थानीय वाद्य यंत्रों के प्रयोग ए नाटकीय हाव भाव से समां बांध देते हैं । अपूर्व रामायण कुछ इसी तरह का है । इसमें भोजपुरी क्षेत्र के रीति . रिवाज ए लोक विश्वास तथा संस्कृति के अन्य पक्ष मूर्तिमान हो उठे हैं ।
सर्वविदित है कि भारतीय परंपरा समन्वयवादी है । यह न तो शुद्ध हिंदू परंपरा है ए न मुस्लिम परंपरा है ए न बौद्ध परंपरा है ए न जैन परंपरा है ए न ईसाई परंपरा है ए न पारसी परंपरा है । यह सबके मिलन से बनी है । महेंद्र मिसिर इसी भारतीय परंपरा के संवाहक हैं । इसीलिए उन्होंने अपने रामायण में दोहा ए चौपाई ए छप्पयए रोला जैसे छंदों के साथ साथ गजल ए शायरी जैसे छंदों का बेधड़क प्रयोग किया है । गजल अरबी का छंद है जो उर्दू के माध्यम से भारतीय भाषाओं में आई । शुद्धतावादियों की नजर में रामकथा में गजल ए शायरी का प्रयोग खटकेगा ।
उनका कालखंड आधुनिक ( 1886 . 1946) है परंतु उनका जीवन किंवदंतियों से भरा है । जमींदार हलविंत सहाय , उनकी पत्नी ढेलाबाई , जाली नोट छापने , पकड़े जाने पर जेल जाना , वेश्याओं को गीत – संगीत की शिक्षा देने तथा बहादुरी के अनेक किस्से कहानी जन – मानस में प्रचलित हैं । वे पहलवान थे । उनके शरीर में अपार शक्ति थी ।
किंवदंतियों से भरे उनकी जीवन – यात्रा ने हिंदी – भोजपुरी के उपन्यासकारों को खूब लुभाया । भोजपुरी में उनपर तीन उपन्यास लिखे गए हैं । भोजपुरी का श्रेष्ठ उपन्यास ‘ फुलसूंघी ‘ ( पांडेय कपिल ) उनके जीवन पर लिखा गया है । रामनाथ पांडेय का उपन्यास ‘महेंदर मिसिर ‘और जौहर शफियाबादी का उपन्यास ‘ पूर्वी के धाह ‘ उनके जीवन वृत पर केंद्रित है । हिंदी में तीर्थराज शर्मा ने उनपर ‘ गीत जो गा न सका ‘ नाम का उपन्यास लिखा है । जबकि संजीव द्वारा भिखारी ठाकुर के जीवन पर लिखे गए उपन्यास ‘ सूत्रधार ‘ और अनामिका द्वारा ढेलाबाई पर लिखे गए उपन्यास ‘ दस द्वार पिंजरे ‘ में प्रसंगानुसार उनका वर्णन हुआ है ।
भाषा
उनके कालखंड की साहित्यिक भाषा ब्रजभाषा थी । शासन – प्रशासन और शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजी स्थापित हो चुकी थी । कोर्ट – कचहरी और परंपरागत अभिजात्य वर्ग पर उर्दू का प्रभाव कायम था । खड़ी बोली का आंदोलन अपने उभार पर था और इन सबों के बीच भोजपुरी निर्झर झरने की तरह बह रही थी। महेंदर मिसिर ने इसी निर्झरिणी का रसपान किया । उनकी पूरबी भोजपुरी में है जबकि अपूर्व रामायण की भाषा हिंदुस्तानी है । ऐसी भाषा को बोलचाल की भाषा में कलकतिया हिंदी कहा जाता है । होता यह है कि पहले भोजपुरी क्षेत्र के लोग कोलकता कमाने जाते थे । वहाँ की भाषा बंगला है । भोजपुरी भाषियों और बंगालियों के बीच संवाद हिंदी में होता है । यह हिंदी व्याकरण सम्मत नहीं होती है । परसर्ग , क्रिया , लिंग आदि मानक हिंदी के अनुसार नहीं होती है । क्रियापद हिंदी में रहता है । जैसे –
मैंने ऑफिस में जाकर छुट्टी के लिए आवेदन दिया । ( हिंदी )
हम आपीस में जाता रहा छुट्टी माँगता रहा । ( कलकतिया हिंदी )
कोलकत्ता , दिल्ली , पंजाब जैसे जगहों पर कमा कर लौटे मजदूर वर्ग के लोग गाँव के लोगों पर अपना प्रभाव जमाने के लिए इसी तरह की हिंदी बोलते हैं । उन्होंने अपनी रामकथा इसी भाषा में लिखा है ।
उनका निधन 26 अक्तूबर 1947 को अपने गाँव में हुआ ।
आलेख ः जितेन्द्र वर्मा
हिन्दी भोजपुरी के ख्यातिलब्ध साहित्यकार है
पता – वर्मा ट्रांसपोर्ट , राजेन्द्र पथ सीवान . 841226
( बिहार )
मोबाईल – 9955589885
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