छंद के मुक्तिमार्गी निराला ने कविता की मुक्ति का पथ प्रशस्त किया”

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वह आतादो टूक कलेजे के करता पछताता

पथ पर आता

;वह तोड़ती पत्थरइलाहाबाद के पथ पर

..बचपन में पढ़ी ये कविताएं आज भी याद हैं. निराला की

राम की शक्ति‍पूजा, जूही की कली, कुकुरमुत्ता और सरोज स्मृति और  बॉंधों न नाव इस ठांव बंधु पूछेगा सारा गांव बंधू आदि कितनी ही कविताएं हैं, जो महाप्राण निराला का स्मरण करते ही याद हो उठती हैं. उनकी लिखी सरस्वती वंदना की पंक्तियां आज भी पूरे सम्मान के साथ दुहराई जाती हैं. यह वंदना इतनी सुगठित और संवेदी है कि इसे पढ़ते ही इसकी झंकार पूरे वातावरण में व्याप्त हो जाती है. नव गति नव लय ताल छंद नव नव पर नव स्वर दे. यह नवता की उपस्थिति की प्रार्थना है. नये का स्वागत. उनके यहां छंदों में भी नयापन है, कविता में भी. और बसंत तो जैसे निराला की याद दिलाने के लिए ही आता है. वे कहते भी तो थे. मैं हूँ बसंत का अग्रदूत.

हिंदी कविता की परंपरा यों तो बहुत पुरानी है. पर निर्विवाद रूप से आधुनिक कविता के दो बड़े कवि हैं उनमें एक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हैं दूसरे गजानन माधव मुक्तिबोध. एक छायावाद के प्रमुख स्तंभ हैं दूसरे समकालीन कविता के. बसंतागम निरालाजी के जन्मदिन की याद दिलाता है. निरालाजी ने आजीवन एक संघर्षपूर्ण जीवन जिया किन्तु अपने स्वाभिमान की सदैव रक्षा की. निराला का जीवन गढ़ाकोला, उन्नाव, महिषादल- लखनऊ होता हुआ इलाहाबाद तक के लंबे कालखंड में फैला है. इलाहाबाद की चर्चा चलते ही ध्यान निरालाजी की ओर मुड़ जाता है. इलाहाबाद यानी निराला. वे जीते जी एक शहर की पहचान बन गए थे.निराला एक ऐसे कवि हैं जिन्हें हिंदी पट्टी का लगभग हर व्यक्ति जानता है भले ही उनकी कोई कविता होठों पर हो, स्मरण में हो या न हो. निराला के व्यक्तित्व की अनेक कहानियां लोक में फैली हैं कि उन्हें भुला पाना मुश्किल है. इलाहाबाद जो साहित्य का केंद्रबिन्दु रहा है, उसके केंद्र में छायावाद के तीन स्तंभ इलाहाबाद के ही थे. निराला, महादेवी और सुमित्रानंदन पंत. हिंदी काव्य और गद्य को आकार देने में, गढ़ने में छायावाद के इन स्तंभों का प्रभूत योगदान रहा है. निराला और महादेवी में ऐसा रिश्ता था जो शायद भाई बहन के रिश्ते से भी ज्यादा मूल्यवान हो. पिछले दिनों निराला पर एक आधिकारिक संस्मरणों की पुस्तक पढ़ रहा था, गंगाप्रसाद पांडेय जी की लिखी हुई:

;महाप्राण निराला तो उसमें महादेवी वर्मा का यह प्रसंग दीख पड़ा और आंखें भर आईं–

उस दिन मैं बिना कुछ सोचे हुए ही भाई निराला जी से पूछ बैठी थी-‘आपको किसी ने राखी नहीं बांधी? अवश्य ही उस समय मेरे सामने उनकी बंधनशून्य कलाई और पीले कच्चे सूत की ढेरों राखियां लेकर घूमने वाले यजमान-खोजियों का चित्र था. पर अपने ही प्रश्न के उत्तर में मिले प्रश्न ने मुझे क्षण भर के लिए चौंका दिया. ‘कौन बहन हम ऐसे भुक्खड़ को भाई बनावेगी?’ महादेवी के ये वाक्य कितने अपनत्व से भरे हैं. वे आजीवन निराला को राखी बांधती रहीं और मानती रहीं कि उन्होंने अपने सहज विश्वास से मेरे कच्चे सूत के बंधन को जो दृढता और दीप्ति दी है, वह अन्यत्र दुर्लभ रहेगी. (जो रेखाएं कह न सकेंगी. महाप्राण निराला: गंगाप्रसाद पाण्डेय) यह उस अपराजेय निराला की छवि है जिसने आजीवन लेखन का व्रत ही साधा तथा फाकेमस्ती के बीच रहकर भी परिवार और खुद का भरण पोषण किया.

छायावाद के प्रमुख स्तंभों में निराला को कौन नहीं जानता. उनके जीवन और कवि व्यक्तित्व के बारे में इतनी किंवदन्तियां हैं कि उनका हिसाब लगाना मुश्किल. उनका कवित्व इतना प्रौढ और छंद सामर्थ्य से युक्त है कि हिंदी कवियों में ऐसी कोई दूसरी मिसाल नहीं. अल्पवय में ही पिता को खो देने वाले तथा विवाह के कुछ ही वर्षों में प्राणप्रिय पत्नी मनोहरा देवी को खो देने वाले निराला का जीवन संघर्षमय ही रहा किन्तु उससे उनकी कविता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. अपने परिवार के पालन पोषण के लिए उन्होंने अनेक कठिनाइयां झेलीं किन्तु सरस्वती का आंगन कभी सूना नहीं होने दिया. हर वक्त चिंतन मनन और सृजन में तल्लीन निराला ने कविता में मुक्त छंद का प्रवर्तन कर कविता की मुक्ति की राह सुझाई. आज की तरह तब कवियों के प्रचार-प्रसार का कोई साधन न था, वे अपने ही जीवन की जरूरतों से इतने घिरे रहे कि उसके लिए अपनी ओर से कोई यत्न भी नहीं किया. यहां तक कि उनकी प्रसिद्ध रचना  जूही की कली को पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती  से लौटा दिया था. हालांकि बाद में वे उसमें ससम्मान छपते रहे. संभवत: मुक्त छंद को लेकर द्विवेदी के मन में कुछ पूर्वग्रह रहे होंगे कि उन्हें निराला की जूही की कली स्वीकार्य न लगी. जबकि निराला तो कविता को छंदों के बंधन से मुक्त कर उसकी मुक्ति का पथ प्रशस्त कर चुके थे.  परिमल की भूमिका में उन्होने लिखा, मनुष्य की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है.

 

*मुक्त छंद का समर्थन

हिंदी में मुक्त छंद की उदभावना निराला की अक्षय देन है. यह बात और है कि इसके लिए उन्हें जाने कितने लांछन सहने पड़े. छंद कविता के रसिकों अध्यापकों ने उसे रबड़ छंद और केचुआ छंद कह कर नकारने की कोशिश की. विश्वविद्यालयों के गतानुगतिक अध्यापकों की संवेदना इस कदर छंदमोह से ग्रस्त थी कि वे आगे के कवियों अज्ञेय, मुक्तिबोध तक को पढ़ाने की रसिकता, विशेषज्ञता और अनिवार्यता विकसित नहीं कर सके. हिंदी कविता सच कहें तो निराला से ही आधुनिक होती है. पूरी यूरोपीय और अमेरिकी कविता आधुनिकता की जिस राह पर चल पड़ी थी, हिंदी की कविता यदि छंद के बंधनों में आबद्ध रहती तो कविता में नई संवेदना का समावेशन न हो पाता. पर छंद के बंधन से कविता को मुक्त करते हुए भी कविता से लय एकदम गायब हो जाए, निराला ने यह कभी नहीं चाहा. वे कहते थे मुक्त छंद का समर्थक उसका प्रवाह है. निराला ने स्वयं अपनी कविता के लिए कई शैलियां अपनाईं. उन्होंने गीत लिखे, ग़ज़लें लिखीं, कविताएं लिखीं, लंबी कविताएं लिखीं पर कविता में भीतरी प्रवाह को अंतर्भुक्त किये रहे.  राम की शक्तिपूजा  का पाठ करते हुए ओज और उदात्तता की जो धारा प्रवाहित होती है, वह चित्त को विचारों से ओजस्वित कर देती है.  कुकुरमुत्ता  लिख कर उन्होंने गरीब और अमीर, पूँजी और विपन्नता के बीच के अंतर्द्वद्व को रेखांकित किया.

निराला मूलत: कवि थे इसलिए उनकी निगाह ऐसे चरित्रों पर पड़ती है जो अकिंचन और सताए हुए लोग हैं, मेहनतकश लोग हैं. इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ती स्त्री की कविता लिख कर निराला ने कविता का जैसे लक्ष्य ही सामने रख दिया. इसलिए वे जहां एक ओर राम जैसे उदात्त चरित की शक्ति का आख्यान रचते हैं, वहीं पत्थर तोड़ती स्त्री की वेदना को भी हमारे सम्मुख रखते हैं. किन्तु राम की शक्ति‍पूजा लिखने के आधार पर हम उन्हें हिंदूवादी प्रभावों से बद्ध नहीं मान सकते और न ही यह कि वे किसी तरह की हिंदू धार्मिकता के वशीभूत रहे हैं. किन्तु रामचरित का मिथक आज की कविता का एक ऐसा उपजीव्य कथ्य बन चुका है कि नई बात कहने के लिए भी इस मिथक का सहारा कवियों ने लिया है तथा राम के चरित को आधार बना कर हमारे समय की जीवन संवेदना को रेखांकित किया है.

**अपराजेय निराला

हिंदी में निराला का व्यक्‍तित्‍व अपराजेय कवि का है. हिंदी कवियों के बीच निराला एक नायक की तरह प्रकट हुए. यह भी कि हमारे समय के रामविलास शर्मा जैसे दिग्गज आलोचक ने निराला पर ही अपना पहला लेख लिख कर अपने आलोचक जीवन की शुरुआत की. वे कहते हैं, निरालाजी के विरुद्ध बहुत गलत प्रकार का आंदोलन चलाया जा रहा था जिसका विरोध करना जरूरी था. चारो तरफ जितने ग्रुप थे, लगभग सभी निरालाजी के खिलाफ थे. उन्होंने निराला के साहित्य को आधार बना कर उन्हें हिंदी जगत में स्थापित किया और हिंदी साहित्य  में फैलाई जा रही गलत बातों का विरोध किया. रामविलासजी छायावाद का एक सामाजिक पक्ष मानते थे दूसरा अबौद्धिक पक्ष. उन्होंने निराला का मूल्यांकन करते समय इन बातों को ध्यान में रखा. जहां वे  ;गई निशा अब हँसी दिशाएं, उड़ा तुम्हारा प्रकाश केतन  को वे निराला का कमजोर पक्ष मानते थे, वहीं  जब कड़ी मारें पड़ीं दिल हिल गया  को उनका सबल पक्ष. छायावादी दौर के कवि होते हुए भी निराला की कविता का एक सबल सामाजिक पक्ष भी है, जो हिंदी कविता का एक वैचारिक आधार निर्मित करता है तथा निराला को आधुनिक हिंदी कवियों में प्रासंगिक भी बनाए रखता है.

ऐसे निराला जो रिकार्ड पर कविताएं पढ़ने से भी बिदकते रहे हों, उनके सान्निध्य में रहने वाले व छायावाद युग के प्रमुख आलोचक गंगाप्रसाद पांडेय ने जिन दो विभूतियों पर बड़ा काम किया उनमें महीयसी महादेवी और महाप्राण निराला प्रमुख हैं. कहा जाता है पांडेयजी ने ही उन्हें सर्वप्रथम  महाप्राण   कह कर पुकारा. वे इन दोनों के अत्यंत निकट भी रहे. इन कवियों में जो उदात्तता रही है वह इस युग के कवियों की भी एक विरल विशेषता रही है. निराला अपने व्यक्तित्व में आजीवन फक्कड़ रहे, किन्तु जिस महाकाव्यात्मकता के साथ निराला अपने काव्य में प्रवृत्त होते हैं वह उनकी परवर्ती पीढ़ी में उत्तरोत्तर विरल होती गयी. पंत में यह प्रतिभा सर्वाधिक थी किन्तु वे जन-जन के कवि न हो सके. निराला की तो सरस्वती वंदना ही लोगों के जबान पर चढ़ गयी जो आज भी सभा समारोहों की शान है. पर अपनी जिन बड़ी कविताओं से से जाने पहचाने गए उनमें जूही की कली, राम की शक्तिपूजा, कुकुरमुत्ता व सरोज स्मृति जैसी कविताएं हैं, जिनसे हिंदी कविता का भाल उन्नत होता है.

निराला की महाकाय प्रतिभा ही थी कि उनका रामविलास शर्माजी से अनन्य अपनापा रहा.  निराला की साहित्य साधना के तीन खंड लिख कर डॉ शर्मा ने प्रमाणित किया कि ऐसी प्रतिभाएं युगों में एक होती हैं. निराला का जीवन कितना संघर्षपूर्ण रहा है, इसकी मार्मिक विवेचना गंगाप्रसाद पाण्डेय ने अपने ग्रंथ  महाप्राण निराला में की है. यह पुस्तक उनके जीवन कवि व्यक्तित्व पर संस्मरण और विवेचन का एक समावेशी कृति है. इसे पढ़ कर जाना जा सकता है कि बिना कवि के जीवन संघर्ष को समझे उसकी कविता को नहीं समझा जा सकता. 1948 में छपी इस पुस्तक के बारे में निराला ने स्वयं टिप्पणी करते हुए कहा है कि  इसको सरसरी निगाह पढ़ कर मैं समझा, मेरी पानी की बूंद मोती बनी है.

पांडेयजी की पुस्तक निराला के जीवन के छोटी-छोटी घटनाओं का ब्यौरा देती है. निराला के पिता का असमय ही निधन हुआ. उनकी मां भी कैशोर्य में ही छोड़ कर चली गयीं. सो युवावस्था में ही वे पितृ और मातृ छाया से वंचित हो गए. फलत: उन्हें जीविका के लिए महिषादल जमींदारी में पिता के स्थान पर नौकरी सम्हालनी पड़ी, फिर कुछ सालों बाद वहां से छोड़ कर इलाहाबाद, लखनऊ, उन्नाव आदि जगहों पर भांति भांति के कामों में निमग्न रहे. पांडेय जी ने उनके जीवन और कवित्व को अपने संस्मरणों में सहेजते हुए, युगीन काव्यधारा पर उनके प्रभावों, अनेक साहित्यिकों से उनके वाद विवाद संवाद एवं महिषादल, गढ़ाकोला, उन्नाव, इलाहाबाद, लखनऊ आदि जगहों के उनके रहन सहन का सुंदर समायोजन किया है. उनके जीवन की घटनाओं के साथ साथ उनकी कृतियों व कविताओं के उल्लेख से ऐसा लगता है कि लेखक निराला के जीवन और कृतित्व की एक से एक बारीक घटना को सम्मुख रख कर मूल्यांकित कर रहा है.

**विरोधों के बीच अडिग निराला

निराला की आज हिंदी में एक बड़ी प्रतिमा है पर अपने जीवन-यापन के लिए उन्होंने कितने ही पापड़ बेले. कितनी तरह के काम किए. कितनी पुस्तकें औने-पौने प्रकाशकों को लिख कर दे दीं कि जीवन का काम चले. गंगाप्रसाद पांडेय उनके फक्कड़ जीवन के बारे में लिखते हैं कि लखनऊ आने के बाद उन्होंने अपनी सारी ढोंगी सामाजिकता उतार फेंकी. कभी कुर्ता धोती और बड़े-बड़े तेल-सिक्त बाल, तो कभी केवल फुटी लुंगी और धूलधूसरित उलझी अलकें, कभी छैल छबीला तो कभी फटेहाल अमीनाबाद पार्क में घूमते हुए निराला को देखा जाता था. उन्हें लोग कवि जी, कपि जी या स्त्री रूपी जी भी कह कर चिढ़ाया करते थे. हिंदी साहित्य सम्मेलन की हिंदी व हिंदी साहित्य के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका रही है पर इसकी दुर्गति पर निराला ने प्रहार भी खूब किये हैं. वे लिखते हैं,  हिंदी साहित्य सम्मेलन के कर्णधार विद्यार्थियों के कर्ण धारण के लिए जितने उद्यत रहे, साहित्य के ध्रुव ज्ञान से उतने ही रहित. (प्रबंध प्रतिमा) इस विडंबनाओं पर उंगली उठाने के कारण और साहित्यिकों को राजनीति का पिछलगुआ मानने समझने के कारण उनकी पुरुषोत्तमदास टंडन से भी कहासुनी हुई तथा बाद में उन्होंने इस संस्था से अपना नाता तोड़ लिया. इसका परिणाम यह हुआ कि निराला का चौतरफा विरोध और बहिष्कार होना शुरु हुआ. उनकी पुस्तकें कोर्स में न लगाई जातीं. जिस चतुर्दिक विरोध की बात रामविलासजी ने की है, वह यही है.

निराला के जीवन के दुखद प्रसंगों में केवल पिता की असमय मृत्यु ही नहीं, पत्नी के अलावा बेटी सरोज की 1935 में हुई असामयिक मृत्यु भी एक मर्मांतक घटना है. ये स्थितियां किसी भी मनुष्य को तोड़ने के लिए काफी थीं. अपने स्वाभिमान के चलते न उनकी सतही हिंदी प्रचार संस्थानों से बनती थी न हिंदी के नाम पर राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञों से. ऊपर से निजी जीवन में सरोज का जाना उनके कवि जीवन का भी एक मार्मिक मोड़ है. सरोज स्मृति रचना की मार्मिकता हिला कर रख देती है. सन 35 के बाद ऐसी परिस्थितियां पैदा हुईं कि निरालाजी ने बाल कटा डाले तथा आगे कविताएं न लिखने का निश्चय किया. यह समाचार जैसे ही इलाहाबाद पहुंचा महादेवीजी को बहुत कष्ट हुआ. वे निराला की मन:स्थिति का पता करने लखनऊ पहुंची तथा कह सुन कर उनसे कविता लिखते रहने का वचन लिया.  उनकी रचनाओं में जो व्यंग्य और वक्रता है वह तत्कालीन जीवन व सामाजिक परिस्थितियों की देन है. ऐसे ही हालात थे जब हिंदी सुमनों के प्रति पत्र में निराला को लिखना पड़ा

ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे

यद्यपिमैं ही बसंत का अग्रदूत,

ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत

मैं रहा आज यदि पार्श्वंच्छवि .

निरालाजी की दानप्रियता का भी बहुधा उल्लेख मिलता है. गंगाप्रसाद पांडेय ने ऐसी बातों का उल्लेख अपनी पुस्तक में किया है. वे कवि सम्मेलन से लौट रहे हैं या किसी अन्य समारोह से. देखा कि कोई ठंड में कंपकपा रहा है. रिक्शे से उतरते या पैदल चल रहे होते तो रुक जाते और उसे अपना शाल या कंबल ओढ़ा देते. जो दान दक्षिणा मिली होती उसे भी उसके हवाले कर देते. वे इस मामले में औढरदानी थे. जीवन के आखिरी दिनों में उनके बारे में अनेक जनश्रुतियां हैं कि कैसे वे फटेहाल रहा करते थे. वार्धक्य की बीमारियां भी साथ लगी रहती थीं. पर तब तक निराला हिंदी साहित्य में सूर्य की तरह समादृत थे. वे छायावाद के अकेले ऐसे कवि थे जिनका उल्लेख प्रगतिवादी आलोचक भी अपनी चर्चाओं में करते थे.

**निराला की देन

निराला का जीवन विविधवर्णी है. आधुनिक हिंदी कविता को उनकी देन अप्रतिम है. आधुनिक कविता की अनेक पीढ़ियों पर उनका प्रभाव है. जीवन के अंतिम छोर पर निराला ने लिखा है,  पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है, आशा का प्रदीप जलता है हृदयकुंज में  निराला से हम क्या सीख सकते हैं, इस बात को हिंदी के समकालीन कवि अरुण कमल अपने निबंधों में व्यक्त करते हैं. वे कहते हैं कि जोखिम उठाने की कला उनसे सीखी जा सकती है और यह भी वे लगातार अपने को कैसे तोड़ते और गढ़ते गए. (कविता और समय, पृष्ठ 24)

वे कहते हैं, संपूर्ण निराला काव्य पीड़ा और दुख की दहलाने वाले बिम्बों से भरा हुआ है. कहना न होगा कि समकालीन कवियों ने सबसे ज्यादा निराला और उसके बाद नागार्जुन और त्रिलोचन से सीखा है. अरुण कमल कहते हैं कि निराला ने छोटी कविताएं लिख कर यह बताया कि ये कविताएं आकार में छोटी होकर भी परमाणु शक्ति से परिपूर्ण हो सकती हैं. निराला की आलोचना ने यह सिखाया कि अपने समय की आलोचना होकर ही कविता सार्थक हो सकती है. यदि आगे चल कर पैदा हुए मुक्तिबोध जैसे कवि के यहां पीड़ित अंतरात्मा का स्वर कविता में प्रबल है तो उससे पहले पैदा हुए कवि निराला की कविता में पीड़ित मानवता का पक्ष प्रबल है. (गोलमेज, पृष्ठ 21)

निराला के जीवन और साहित्य का पाट बहुत चौड़ा और प्रशस्त है. उसमें अनेक मोड़, करवटें, शैलियां और विविधताएं हैं. निराला को पढ़ना इस जीवन के विराट अनुभवों से गुजरना है, कवि के उस स्वाभिमान से साक्षात्कार करना है जो  जो मार खा रोई नहीं  लिखते हुए संघर्षों के आगे न झुकने वाले कवि के स्वाभिमान की भी बानगी प्रस्तुत करता है. निराला की कविता केवल निराला की नहीं बल्कि आगे की आधुनिक और समकालीन कविता का भी एक प्रस्तावन है और इस बात का एक अचूक उदाहरण भी कि यह कविता ही है जो राजनीति की विकृतियों पर भी चाबुक की तरह बरसती है. यह और बात है कि आज राजनीति जितनी निरंकुश है, कविता उतनी ही शर्मीली और शांत जैसे कि अब कविता के सम्मुख कुछ करने को न रह गया हो.

 

 

 

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