रेवड़ी संस्कृति से पंजाब-हिमाचल की बढ़ी आर्थिक मुश्किलें

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

दिल्ली, पंजाब व हिमाचल सरकारों के सम्मुख वित्तीय संकट के धुंधलके छाने लगे हैं। सत्ता पर बैठी आम आदमी पार्टी एवं कांग्रेस की सरकारों के सामने चुनाव के दौरान वोटरों को लुभाने के लिए की गयी फ्रीबीज या रेवड़ी कल्चर की घोषणा आर्थिक संकट का बड़ा कारण बन रही है। मुफ्त की रेवड़ियां बांटने एवं लोक-लुभावन घोषणाओं के कितने भारी नुकसान होते हैं, इस बात को दिल्ली, पंजाब व हिमाचल सरकारों के सामने खड़ी हुई वित्तीय परेशानियों से समझा जा सकता है।

इन सरकारों के लगातार बढ़ते राजस्व घाटा व बड़ी होती देनदारियां राज्य की अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ रही हैं। विकास योजनाओं को तो छोड़े, इन राज्यों में कर्मचारियों को वेतन व सेवानिवृत्त कर्मियों को समय पर पेंशन देने में मुश्किलें आ रही हैं। इन जटिल होती स्थितियों को लेकर ‘रेवड़ी कल्चर’ पर न्यायालय से लेकर बुद्धिजीवियों एवं राजनीति क्षेत्रों में व्यापक चर्चा है।

पंजाब के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग की हालिया रिपोर्ट में राज्य की वित्तीय प्राप्तियों और खर्चे के बीच बढ़ते राजकोषीय अंतर को उजागर किया गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मुक्त की संस्कृति पर तीखे प्रहार करते हुए इसे देश के लिए नुकसानदायक परंपरा बता चुके हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने भी मुफ्त रेवड़ियां बांटने के चलन पर गंभीर चिंता जता चुके हैं। नीति आयोग के साथ रिजर्व बैंक भी मुफ्त की रेवड़ियों पर आपत्ति जता चुका है, लेकिन राजनीतिक दलों पर कोई असर नहीं है।

कैग की रिपोर्ट बताती है कि कैसे पंजाब राज्य का राजस्व घाटा, सकल राज्य घरेलू उत्पाद के 1.99 फीसदी लक्ष्य के मुकाबले 3.87 फीसदी तक जा पहुंचा है। यह बेहद चिंताजनक स्थिति है कि राज्य का सार्वजनिक ऋण जीएसडीपी का 44.12 फीसदी हो गया है। यदि अब भी सत्ताधीश वित्तीय अनुशासन का पालन नहीं करते एवं मुक्त की सुविधाएं देने से बाज नहीं आते तो निश्चित ही राज्य को बड़ी मुश्किल की ओर धकेलने जैसी बात होगी।

जिसका उदाहरण सामने है कि बीते माह का वेतन निर्धारित समय पर नहीं दिया जा सका है। इसके बावजूद सत्ता पर काबिज नेता मुफ्त की रेवड़ियों को बांटने का क्रम जारी रखे हुए हैं तो उसकी कीमत न केवल टैक्स देने वालों को चुकानी पड़ रही है बल्कि आम लोगों के जीवन पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ रहा है। वहीं दूसरी ओर राज्य का खर्चा जहां 13 प्रतिशत की गति से बढ़ रहा है, वहीं राजस्व प्राप्तियां 10.76 फीसदी की दर से बढ़ रही हैं।

जाहिर है, ये अंतर राज्य की आर्थिक बदहाली, आर्थिक असंतुलन एवं आर्थिक अनुशासनहीनता की तस्वीर ही उकेरता है। दिल्ली से लेकर पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकारें हों या हिमाचल प्रदेश से लेकर अन्य राज्यों में कांग्रेस की सरकारें तमाम तरह की मुफ्त की रेवड़ियां बांट कर भले ही वोट बैंक को अपने पक्ष में करने का स्वार्थी खेल खेला जा रहा हो, लेकिन इससे वित्तीय बजट लडखड़ाने ने इन राज्यों के लिये गंभीर चुनौती बन रहा हैं।

दरअसल, जिस भी नागरिक सुविधा को मुफ्त किया जाता है, उस विभाग का तो भट्टा बैठ जाता है। फिर उसका आर्थिक संतुलन कभी नहीं संभल पाता। कैग की हालिया रिपोर्ट बताती है कि पंजाब में एक निर्धारित यूनिट तक मुफ्त बिजली बांटे जाने से राज्य के अस्सी फीसदी घरेलू उपभोक्ता मुफ्त की बिजली इस्तेमाल कर रहे हैं।

ये और ऐसी ही अन्य मुफ्त सुविधाओं की भरमार के कारण सरकारों के सामने अपने कर्मियों को समय पर वेतन देने के लिये वित्तीय संकट है, जबकि वेतन पर आश्रित कर्मियों को राशन-पानी, बच्चों की स्कूल की फीस व लोन की ईएमआई आदि समय पर चुकाने में दिक्कत हो रही है। इन जटिल होते हालातों को देखते हुए अपेक्षा है कि राजनेता सस्ती लोकप्रियता पाने के लिये सब्सिडी की राजनीति एवं मुफ्त की संस्कृति से परहेज करें और वित्तीय अनुशासन से राज्य की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का प्रयास करें।

जब भी ऐसी लोक-लुभावन घोषणाएं की जाती हैं तो उन दलों को अपने घोषणापत्र में यह बात स्पष्ट करनी चाहिए कि वे जो लोकलुभावनी योजना लाने जा रहे हैं, उसके वित्तीय स्रोत क्या होंगे? कैसे व कहां से यह धन जुटाया जाएगा? साथ ही जनता को भी सोचना चाहिए कि मुफ्त के लालच में दिया गया वोट कालांतर उनके हितों पर भारी पड़ेगा। जनता को गुमराह करते हुए, उन्हें ठगते हुए देश में रेवड़ियां बांटने का वादा और फिर उन पर जैसे-तैसे और अक्सर आधे-अधूरे ढंग से अमल का दौर चलता ही रहता है।

लोकलुभावन वादों को पूरा करने की लागत अंततः मतदाताओं को खासकर करदाताओं को ही वहन करनी पड़ती है-अक्सर करों अथवा उपकरों के रूप में। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने तेलंगाना विधानसभा चुनाव के समय मुफ्त रेवड़ियां देने के मुद्दे को उठाते हुए कहा था कि कई राज्यों ने अपनी वित्तीय स्थिति की अनदेखी करते हुए मुफ्त की सुविधाएं देने का वादा कर दिया है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी कुछ समय पहले उन दलों को आड़े हाथों लिया था, जो वोट लेने के लिए मुफ्त की रेवड़ियां देने के वादे करते हैं। उनका कहना था कि रेवड़ी बांटने वाले कभी विकास के कार्यों जैसे रोड, रेल नेटवर्क आदि का निर्माण नहीं करा सकते। वे अस्पताल, स्कूल और गरीबों के घर भी नहीं बनवा सकते। रेवड़ी संस्कृति अर्थव्यवस्था को कमजोर करने के साथ ही आने वाली पीढ़ियों के लिए घातक भी साबित होती है।

इससे मुफ्तखोरी की संस्कृति जन्म लेती है। मुफ्त की सुविधाएं पाने वाले तमाम लोग अपनी आय बढ़ाने के जतन करना छोड़ देते हैं। पंजाब में महिलाओं को नगद राशि देने की घोषणा हुई, जबकि वहां की महिलाएं समृद्ध है। दिल्ली में उन महिलाओं को भी डीटीसी बसों में मुफ्त यात्रा की सुविधा दी गई है, जिन्हें इस तरह की सुविधा की जरूरत नहीं।

आधी आबादी को मुफ्त यात्रा की सुविधा देने से दिल्ली में डीटीसी को हर साल 15 करोड़ रुपये तक का नुकसान होगा। इस राशि का उपयोग दिल्ली के इन्फ्रास्ट्रक्चर पर किया जा सकता है। मुफ्तखोरी की राजनीति से देश का आर्थिक बजट लडखड़ाने का खतरा है। और इसके साथ निष्क्रियता एवं अकर्मण्यता को बल मिलेगा। हिंदुस्तान में लोगों को बहुत कम में जीवन निर्वहन करने की आदत है ऐसे में जब मुफ्त राशन, बिजली, पानी, शिक्षा, चिकित्सा मिलेगा तो काम क्यों करेंगे।

‘गरीब की थाली में पुलाव आ गया है, लगता है शहर में चुनाव आ गया है’  भारत की राजनीति से जुड़ी विसंगतियों एवं विडम्बनाओं पर ये दो पंक्तियां सटीक टिप्पणी हैं। चुनाव आते ही वोटरों को लुभाने के लिए जिस तरह राजनीतिक दल और उनके नेता वायदों की बरसात करते हैं, यह शासन-व्यवस्थाओं को गहन अंधेरों में धकेल देता है। मुफ्त की संस्कृति को कल्याणकारी योजना का नाम देकर राजनीतिक लाभ की रोटियां सेंकी जाती रही है।

भारत जैसे विकासशील देश के लिये यह मुक्त संस्कृति एक अभिशाप बनती जा रही है। सच भी है कि मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग आज भी इस स्थिति में है कि कथित तौर पर मुफ्त या सस्ती चीजें उसके वोट के फैसले को प्रभावित करती हैं। मुफ्त ‘रेवड़ी’ व कल्याणकारी योजनाओं में संतुलन कायम करना आवश्यक है, परंतु वोट खिसकने के डर से राजनीतिक दल इस बारे में मौन धारण किये रहते हैं, बल्कि न चाहते हुए भी इसे प्रोत्साहन भी देते हैं।

फ्रीबीज’ या मुफ्त उपहार न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में वोट बटोरने एवं राजनीतिक धरातल मजबूत करने का हथियार हैं। मुफ्त उपहार के मामले में कोई भी देश पीछे नहीं है। ब्रिटेन, इटली, जर्मनी, फ्रांस, डेनमार्क, स्वीडन, संयुक्त अरब अमीरात, बांग्लादेश, मलेशिया, कनाडा, अंगोला, कीनिया, कांगो, स्पेन, ऑस्ट्रेलिया सहित अनेक देश इस दौड़ में शामिल हैं।

विकसित देश जहां अपनी जीडीपी का 0.5 प्रतिशत से 1 प्रतिशत तक लोककल्याण योजनाओं में खर्च करते हैं, तो विकासशील देश जीडीपी का 3 प्रतिशत से 4 प्रतिशत तक फ्रीबीज के नाम पर खर्च कर देते हैं। भारत में अब जब न्यायालय की चौखट पर यह मुद्दा विचाराधीन है, तो संभावना है कि सरकार पर अनावश्यक आर्थिक भार डालने वाली घोषणाओं पर नियंत्रण को लेकर कोई राह भारत ही दुनिया को दिखाए।

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