संवैधानिक मूल्यों के साथ राष्ट्र को बचाना और स्वर्गीय तुकाराम ओम्बले

संवैधानिक मूल्यों के साथ राष्ट्र को बचाना और स्वर्गीय तुकाराम ओम्बले

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

संविधान ….बनाने एवं लागू करने से ज्यादा जरूरी है संविधान बचाना …और उससे भी जरूरी है संवैधानिक मूल्यों के साथ राष्ट्र को बचाना। राष्ट्र बचेगा तो हम भी बचेंगे। यहीं तो बताना है …हमारे स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले बच्चों को …कि कैसे तुकाराम ओम्बले ने एक के बाद एक चालीस गोलियां खाई …लेकिन कसाब की न गिरेबां छोड़ी …और न हीं गर्दन।

कैसे कैप्टन कैंग्रुस रॉकेट लांचर लिए दस हजार से ज्यादा फीट ऊंची बर्फ से ढकी कारगिल की पहाड़ियों पर -50 डिग्री टेम्परेचर में नंगे पांव दौड़ते हुए पाकिस्तानी सेना के बंकर तबाह किए। ….और कैसे कर्नल संतोष बाबू …ने अपने बिहार रेजीमेंट के वीर लड़ाको के साथ गलवान वैली में …चीनी सैनिकों के कैम्प में कैसा कहर बरपाया। राष्ट्र पर हमले सिर्फ …सीमा पर नहीं, ट्वीटर पर भी होते हैं। शब्दों के आक्रमण को अपने पक्ष में व्याख्यात्मक मोड़ देने की कला जानें युवा।

तभी राष्ट्र बचेगा ..और संविधान भी।सेना हीं वह अंतिम रक्षा पंक्ति है जिसने राष्ट्र को बचा रखा है। सेना के शौर्य को जानना, सराहना अौर उस पर गर्व करना हर भारतीय का परम पुनीत कर्तव्य है।
राष्ट्र रक्षा एवं जागरण का यहीं भाव यदि साहित्यिक पुस्तकों में, सिनेमाई घरों में, बौद्धिक कारखानों में एवं शैक्षणिक संस्थानों में दीखने लगे…..तो समझ लीजिएगा ….राष्ट्र सुरक्षित है और संविधान भी।

कितना बड़ा कलेजा चाहिए एक्के सैंतालीस की नली के सामने अपनी छाती कर के सैकड़ों लोगों को मार चुके राक्षस का गिरेबान पकड़ने के लिए… एक गोली, दो गोली, दस गोली, बीस गोली… चालीस गोली… चालीस गोलियां कलेजे के आरपार हो गईं पर हाथ से उस राक्षस की कॉलर नहीं छूटी। प्राण छूट गया, पर अपराधी नहीं छूटा… कर्तव्य निर्वहन का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है यह।

स्वर्गीय ओम्बले सेना में नायक थे। सेना से रिटायर होने के बाद उन्होंने मुंबई पुलिस ज्वाइन की थी। चाहते तो पेंशन ले कर आराम से घर रह सकते थे। पर नहीं, वे जन्मे थे लड़ने के लिए, जीतने के लिए… होते हैं कुछ योद्धा, जिनमें लड़ने की जिद्द होती है… वे कभी रिटायर नहीं होते, कभी बृद्ध नहीं होते, मृत्यु के क्षण तक युवा और योद्धा ही रहते हैं।

एक थे कैप्टन विक्रम बत्रा… कारगिल युद्ध में एक चोटी जीत लिए, तो अधिकारियों से जिद्द कर के दूसरी चोटी के युद्ध में निकल गए, दूसरी जीत के बाद तीसरी, तीसरी के बाद चौथी… अधिकारियों ने छुट्टी दी, तो नकार दिए। कहते थे, “ये दिल मांगे मोर..” जबतक मरे नहीं तबतक लड़ते रहे…
एक थे बाबू कुंवर सिंह। अस्सी वर्ष की आयु में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े। लड़े तो ऐसे लड़े कि आजतक उनके नाम से गीत गाया जाता है।
एक थे फतेह बहादुर शाही। अंग्रेजों से लगातार चालीस वर्षों तक लड़े, और ऐसे लड़े कि उनकी मृत्यु के बीस वर्षों बाद तक कोई अंग्रेज अधिकारी यह सोच कर नहीं घुसा कि ‘कौन जाने कहीं जी रहा हो…’

एक थे बिरसा मुंडा! अंग्रेजों से लड़े… तोपों के विरुद्ध तीर ले कर लड़े… वही गुरु गोविंद सिंह जी वाला साहस, सवा लाख से एक लड़ाऊं की जिद्द… इतना लड़े कि लोगों ने उन्हें “भगवान” कहा, बिरसा भगवान…
स्वर्गीय ओम्बले उसी श्रेणी के योद्धा थे। कलेजे के ताव से चट्टान तोड़ने की हिम्मत रखने वाले… कर्तव्यपरायणता की परिभाषा लिखने वाले…
कभी-कभी हम सामान्य जन कुछ पुलिस कर्मियों की गलत हरकतों के कारण चिढ़ कर उन्हें भला-बुरा कह देते हैं। मुझे लगता है हजार बुरे एक तरफ, और स्वर्गीय तुकाराम जी जैसा कोई एक, एक तरफ रहे तब भी वे बीस पड़ेंगे। राष्ट्र ऋणी रहेगा ऐसे योद्धाओं का…
आज ही कहीं पढ़ रहे थे कि यह देश संविधान के कारण चल रहा है।

मैं कह रहा हूँ यह देश किसी किताब के बल पर नहीं चल रहा, यह देश चल रहा है स्वर्गीय तुकाराम ओम्बले जैसे लोगों की बज्र छातियों के बल पर, जो चालीस गोलियाँ खा कर भी सूत भर नहीं डिगतीं…
ऐसे योद्धाओं की कहानियाँ कही-सुनी जानी चाहिए। भगत सिंह, भगत सिंह इसलिए बने क्योंकि उन्होंने बचपन मे करतार सिंह सराबा की कथा सुनी थी। पण्डित चंद्रशेखर तिवारी, चंद्रशेखर आजाद इसलिए बने क्योंकि उन्होंने राणा और शिवा की कहानियाँ सुनी थीं।

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