दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को काढ़े की तरह पीना चाहिए,क्यों?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

मद्रास हाईकोर्ट के जजों ने चुनाव आयोग के अधिकारियों के खिलाफ हत्या का मामला चलाने की बात करके पूरे देश में सनसनी पैदा कर दी। दूसरी तरफ इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश से संपन्न हो रहे पंचायत चुनावों में उत्तर प्रदेश में 135 से ज्यादा शिक्षक और शिक्षा मित्र कोरोना का शिकार होकर शहीद हो गए। क्या इसके लिए जजों पर भी आपराधिक मामला नहीं चलना चाहिए? देश में लगभग 9 हजार आईएएस-आईपीएस, 4 हजार विधायक, 750 लोकसभा-राज्यसभा सांसद और 600 के आसपास मंत्री होंगे।

इनमे से कई लोग नायक फिल्म के अनिल कपूर की तरह देश की तकदीर बदलने का माद्दा रखते हैं, लेकिन इनके हाथ क़ानून की बेड़ियों से जकड़े हैं। दूसरी तरफ कॉलेजियम से नामांकित हुए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के 700 जज ब्रह्मा-विष्णु और महेश के समान सर्वशक्तिमान हैं। इनकी इच्छा मात्र से मुकदमा दर्ज हो जाता है, घर पर ही अदालत बन जाती है और एक पेज के फैसले से नया क़ानून बन जाता है। कोरोना काल में जजों के न्यायिक हाहाकार और सख्त टिप्पणियों को गंभीरता से लिया जाए तो अधिकतर राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाना चाहिए।

कोरोना से निपटने के लिए सरकार और न्यायपालिका के ऑपरेटिंग सिस्टम में दो बदलाव जरूरी हैं। 21वीं सदी के इस महाआपातकाल से निपटने के लिए अंग्रेजों के समय के कानूनों की मनमौजी व्याख्या करने की बजाय संविधान के अनुच्छेद-360 के तहत वित्तीय आपातकाल का समुचित इस्तेमाल जरूरी है।

दूसरा- छोटे कस्बों और पांच लाख से ज्यादा गांवों तक मेडिकल सुविधाओं और सरकारी मदद पहुंचाने के लिए संविधान के पंचायती राज की विकेंद्रीकृत व्यवस्था लागू करना जरूरी है। लुटियंस दिल्ली की बजाय आम जनता के मद्देनजर अदालतें इन तीन संवैधानिक जिम्मेदारियों का समुचित निर्वहन करें तो देश की तकदीर और तस्वीर दोनों ही बदल सकती है।

पहला- सरकारी आंकड़ों के अनुसार कोरोना की वजह से भारत में लगभग 2 लाख लोगों की मौत का अनुमान है। सन 2019 के आंकड़ों के अनुसार लगभग 4,78,600 लोग जेलों में सड़ रहे हैं। कोरोना संकट से निपटने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रदेश के 9 शहरों में न्यायिक अधिकारियों को नोडल ऑफिसर के तौर पर नियुक्त करने का तुगलकी आदेश जारी किया है। उसी तर्ज पर जेलों में बंद बेकसूर कैदियों और अंडरट्रायल्स की रिहाई के लिए हर मजिस्ट्रेट और जज की ड्यूटी लगाईं जाए तो कोरोना से ज्यादा लोगों की जान पूरे देश में बचाई जा सकती है।

दूसरा- ऑक्सीजन की कमी से मरने वाले लोगों को मुआवजा देने की बात करके अदालतों ने सही बहस छेड़ी है। अचानक और गलत तरीके से किए गए पिछले साल के लॉकडाउन में मार्च से जून के तीन महीनों में लगभग 29,415 लोग सड़कों में दुर्घटना का शिकार हुए। इनमे से अधिकतर लोग प्रवासी श्रमिक और गरीब वर्ग के थे। देश में अगर सभी बराबर हैं तो सरकारी फैसलों से पीड़ित सभी परिवारों को मुआवजा देने के लिए अदालतों को पहल करनी चाहिए।

तीसरा- कोरोना काल में जिस फुर्ती से मुकदमों का रजिस्ट्रेशन, नोटिस, सुनवाई, फैसला और अमल हो रहा है। उससे जाहिर है कि न्याय के लिए सिर्फ और सिर्फ जजों की इच्छा शक्ति की जरूरत है। कोरोना काल में पूरा वेतन और सभी सुविधाएं लेने वाले जज पुराने लंबित मुकदमों का निपटारा करने में भी पूरी दिलचस्पी लें तो 4 करोड़ मुकदमों का 4 साल में ही फैसला हो सकता है।

दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला काढ़े की तरह पीना चाहिए
दिल्ली में जजों के लिए बनाई गई 100 बेड्स की 5 सितारा सुविधा को हाईकोर्ट ने अस्वीकार कर दिया। अदालत ने कहा कि संविधान में सभी बराबर हैं तो फिर जजों को विशिष्ट दर्जा क्यों मिलना चाहिए? इस एक फैसले के मर्म का सरकार और अदालतें काढ़ा बनाकर पी लें तो प्रशासनिक और न्यायिक अराजकता के विकट वायरस से आम जनता को मुक्ति मिल जाएगी।

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