यह एक अवसर है, और एक चुनौती.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

एक बहुत आवश्यक अवसर है यह इस अंधेरे दौर में. लेकिन इस अवसर का हम तभी उपयोग कर सकते हैं, जब हम यह स्वीकार करें कि हमने इसे हासिल नहीं किया है और अगर हम समझें कि क्या नहीं किया जाना चाहिए. बंगाल के जनादेश के परिणाम सामान्य गुणा-भाग से परे वास्तव में अहम हैं. किसी लोकप्रिय मुख्यमंत्री का तीसरी बार सत्ता में आने के पहले भी उदाहरण हैं.

किसी सामान्य चुनाव में भाजपा के मत प्रतिशत में बढ़त को बड़ी छलांग माना जाता. सामान्य रूप से, उस दल को ऐसे राज्य में वास्तविक विपक्षी दल बनने का उत्सव मनाने का हर कारण है, जहां उसके केवल तीन विधायक थे. लेकिन यह सामान्य चुनाव नहीं था. हालिया समय में यह राजनीतिक सेंधमारी का सबसे दुस्साहसी प्रयास था. बंगाल वह आखिरी मोर्चा था, जिसे जीतना भाजपा के वर्चस्व को मजबूत करने के लिए जरूरी था और इसने चौतरफा हमले के लिए इस चुनाव को चुना था.

इस अभियान में इसने सब कुछ झोंक दिया था- धन, मीडिया, सांगठनिक तंत्र और फिर मोदी भी. और, इसने चुनाव आयोग की पवित्रता से लेकर सुरक्षा बलों की निष्पक्षता और कोरोना निर्देशों तक तमाम कायदे-कानूनों को भी दरकिनार कर दिया था. इसके नेताओं का विजेता भाव बेमिसाल था, जिसे दरबारी मीडिया ने भी खूब दोहराया. फिर भी इसकी अपमानजनक हार हुई.

एक आधुनिक अश्वमेध यज्ञ बाधित हुआ है, करतब के बीच में ही जादू का एक खेल बाधित हुआ है. जरा सोचिए, तब क्या होता, अगर सचमुच भाजपा बंगाल जीतने में कामयाब हो जाती- क्या उत्सव होते, क्या दावे होते, क्या भय फैलता! एक दिन में ही हमारे गणतंत्र ने बहुत सारी जगह हासिल कर ली है. इस मोड़ पर इस तरह का अवरोध ऐसी संभावनाओं के द्वार खोल सकता है, जिनका अनुमान भी नहीं लगाया गया था. हम एक ऐसी महामारी से गुजर रहे हैं, जिससे बेहद खराब ढंग से निपटने की कोशिश हुई है और जिसने बहुत ठोस भक्तों को भी इस शासन के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया है.

हम अभी पिछली बार के लॉकडाउन से पैदा हुए आर्थिक संकट से अभी उबरे नहीं हैं और महामारी की दूसरी लहर स्थिति को और अधिक बिगाड़ सकती है. और, हमारे सामने ऐतिहासिक किसान आंदोलन चल रहा है, जो थमने के लिए तैयार नहीं. इस संदर्भ में, इस तरह का परिणाम मौजूदा शासन की कमजोरियों को बेपर्द करता है, इसके भोले-भाले समर्थकों को जगाता है और इसका प्रतिकार करनेवालों का हौसला बढ़ाता है. केरल और तमिलनाडु के चुनाव परिणाम विपक्ष की जगह को मजबूती दे सकते हैं.

यह परिणाम बीते सात सालों से देश में जारी उस दौर को तोड़ सकता है, जिसने देश को बांधकर रखा है. यह मोदी राज के खात्मे की शुरुआत हो सकता है. यह हो सकता है, जरूरी नहीं कि ऐसा हो ही. यह इस पर निर्भर है कि हम इस अवसर के प्रति क्या रवैया अपनाते हैं.

इस प्रक्रिया में पहला कदम यह पहचानना है कि यह परिणाम क्या नहीं है. यह सांप्रदायिक राजनीति का नकार नहीं है. अगर कुछ है, तो इस चुनाव ने विभाजन से पहले की सांप्रदायिक आग को फिर से भड़का दिया है, जिससे लंबे समय तक इस राज्य को जूझना होगा. इसके अलावा, भाजपा के विरुद्ध चिंतित मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण शायद ही धर्मनिरपेक्ष राजनीति का लक्षण है. यह चुनाव परिणाम महामारी और लॉकडाउन के दौरान मोदी सरकार के बहुत सारे कारनामों के विरुद्ध भी नहीं है.

स्वतंत्र भारत का सबसे सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट केरल के अलावा किसी भी अन्य राज्य में चुनावी मुद्दा नहीं था. नोटबंदी की तरह महामारी को लेकर भी लोगों ने कारण और परिणाम में तथा अपनी आर्थिक दुर्दशा और सरकार की अक्षम आर्थिक नीतियों के परस्पर संबंध को नहीं जोड़ा है.

केरल में वाम गठबंधन की जीत का वाम विचारधारा के लोकप्रिय स्वीकार से शायद ही कोई संबंध है. यह भी कहा जाना चाहिए कि किसान संगठनों ने भाजपा को वोट न देने का अभियान चलाया था, लेकिन इस नतीजे से यह जाहिर नहीं होता है कि किसानों ने तीन कृषि कानूनों को खारिज कर दिया हो. अभी ऐसा नहीं लगता.

हमें इस विनम्र स्वीकार से इस अवसर को देखना चाहिए कि भाजपा को झटका ऐसे कई साधारण कारकों की वजह से मिला है, जिनके आधार पर लोकतंत्र को फिर से हासिल करने महाआख्यान नहीं टिक सकता है. बंगाल और केरल में मौजूदा मुख्यमंत्रियों की लोकप्रियता एक महत्वपूर्ण कारक रही है. यह सुशासन पर जनादेश नहीं था. अगर ऐसा होता, तो तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक का सफाया हो जाता.

असम में सोनोवाल की सत्ता में वापसी नहीं होती. ममता बनर्जी के शासन का हिसाब भी अधिक से अधिक सामान्य ही रहा है. लेकिन कुछ लोकप्रिय योजनाओं ने मतदाताओं को प्रभावित किया है. हमें यह भी मानना होगा कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और असम में भाजपा की जीत में कुशल चुनावी प्रबंध ने अहम भूमिका निभायी है. ऐसे सामान्य कारक हमेशा भाजपा के खिलाफ काम नहीं आ सकते हैं.

हमें इस कठोर सत्य को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना चाहिए कि किस के लिए यह अवसर नहीं है. असली विजेता को लेकर बहुत सारे दावे हो सकते हैं- ममता बनर्जी या प्रशांत किशोर, पिनरई विजयन या सीपीएम, हेमंता बिस्वा सरमा या सोनोवाल. लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज असल में हारा कौन है- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस.

इसने केरल में सरकार में वापसी का हर मौका खोने का मौका कभी नहीं गंवाया. इस राज्य से राहुल गांधी के सांसद बनने के बाद यह पहला चुनाव था. इसी तरह, इसने असम में एक साल पहले नागरिकता संशोधन कानून के व्यापक विरोध के बावजूद भाजपा को वापस सत्ता में आने दिया. इसने पुद्दुचेरी में सत्ता छोड़ दी और बंगाल में अप्रासंगिक हो गयी. संदेश स्पष्ट है- लोकतंत्र को हासिल करने की लड़ाई का नेतृत्व मौजूदा कांग्रेस नहीं कर सकती है.

बार-बार राज्य के चुनावों ने मोदी की अपराजेयता के मिथक को पंचर किया है. फिर भी यह मिथक बना रहता है क्योंकि राज्य स्तर का असंतोष राष्ट्रीय भावना में नहीं बदलता. यह परिणाम अलग है. यह एक स्पष्ट अवसर प्रदान करता है और आगे की राह सुझाता है. यदि अगले साल के शुरू में उत्तर प्रदेश में भाजपा की हार होती है, तो फिर मोदी शासन के लिए उलटी गिनती शुरू हो जायेगी. मोदी को हराया जा सकता है, लेकिन कांग्रेस द्वारा नहीं, सामान्य विपक्षी एकता द्वारा नहीं, न ही पस्त मोदी विरोधवाद द्वारा. यह एक अवसर है, और एक चुनौती.

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