आज 10 मई है यह तरीख1857 की क्रांति को जन्म दिया.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

किसी भी राष्ट्र के इतिहास में कुछ तिथियां बड़ी महत्वपूर्ण होती हैं। भारतीय इतिहास में ऐसी ही एक तरीख है-10 मई। एक ऐसे समय में जब हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तब इस दिन का स्मरण आवश्यक हो जाता है। असल में इसी दिन 1857 की उस क्रांति की पहली चिंगारी भड़की थी, जिसने जाति, धर्म और वर्ग के बंधन से ऊपर उठकर लोगों में पहली बार भारतीय होने का भाव भरा। एक राष्ट्रीय भाव जो शताब्दियों से भारतीयों के हृदय में बसा तो रहा, परंतु बार-बार विदेशी आक्रमणों से घायल हो मूर्छा की स्थिति में आ चुका था।

ऐसी स्थिति को 1857 के स्वाधीनता संग्राम ने दूर भगाकर प्राणवंत बनाया। लोगों में भारतीयता की भावना का प्राण संचार हुआ। एकजुट होकर स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध इस क्रांति को सफल बनाने में जुट गए। 1857 की क्रांति को विदेशी चश्मे से देखने वाले कुछ इतिहासकार इसकी विफलता के कारण इसे क्रांति या स्वाधीनता संग्राम न मानते हुए गदर, विद्रोह, विप्लव और सिपाही युद्ध आदि संबोधनों से उल्लेख करते हैं।

संभवत: स्थूल दृष्टि वाले ये इतिहासकार यह तथ्य भूल जाते हैं कि सभी क्रांतियां सफल होने के लिए ही नहीं होतीं। सभी लड़ाइयां जीतने के लिए ही नहीं लड़ी जातीं। कुछ क्रांतियां सफलता की नींव रखने के लिए होती हैं। कुछ लड़ाइयां यह प्रमाणित करने के लिए होती हैं कि हम सोते हुए सैनिक नहीं, बल्कि सशक्त प्रतिरोध वाले सिपाही हैं।

इस संदर्भ में 1857 की क्रांति भी कुछ ऐसी ही क्रांति थी। भले ही सुनियोजित और सुसंगठित न होने के कारण अंग्रेजों का तख्तापलट करने में सक्षम न रही हो, किंतु इसकी नींव का मजबूत पत्थर तो बन ही गई। अंग्रेजों की दृष्टि में उनके खिलाफ भारतीय सिपाही का विद्रोह तो गद्दारी था, इसलिए अधिकांश विदेशी लेखकों ने स्वाधीनता संग्राम को गदर की संज्ञा तो दी,

परंतु दुर्भाग्य यह रहा कि धीरे-धीरे यह शब्द संचरित होता हुआ भारतीय इतिहासकारों की लेखनी में भी समा गया। क्रांति की इस प्रथम ज्वाला को स्वाधीनता आंदोलन कहने में उनकी भी लेखनी फिसलने लगी। विनायक दामोदर सावरकर ने सर्वप्रथम अपने ग्रंथ में इस आंदोलन को भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम लिखा। कार्ल मार्क्‍स और लंदन वासी अंग्रेज कवि अर्नेस्ट जोंस ने भी इस आंदोलन को लगभग सावरकर की ही दृष्टि से देखा।

ऐसा नहीं है कि सन 1857 में ही एकाएक गाय और सुअर की चर्बी के कारतूस को लेकर सिपाहियों में एक धार्मिक असंतोष के कारण विद्रोह भड़क उठा। विरोध की यह आंच धीरे-धीरे सैकड़ों वर्षो पूर्व से ही दहक रही थी। अंग्रेजों के शोषण के खिलाफ विद्रोह और संघर्ष की छिटपुट घटनाएं हो रही थी, परंतु भारतीय राजाओं की आपसी प्रतिद्वंद्विता और एकता के अभाव के कारण उन विरोधों का दमन हो जा रहा था। 10 मई को मेरठ के सैनिक विद्रोह ने आंदोलन को और आगे बढ़ाया। प्रारंभ में धार्मिक प्रतीत होने वाला यह विद्रोह राजनीतिक क्रांति में बदलने लगा। दिल्ली इस क्रांति का मुख्य केंद्र बन गई।

क्रांति के अनेक राजनीतिक कारण भी थे, परंतु यह एक निर्विवाद सत्य था कि इस क्रांति ने ही भारतीय राष्ट्रवाद की पुन: स्थापना के लिए एक नींव का पत्थर रख दिया था। सीमित अर्थो में ही सही, भारतीय राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति थी। इसे हिंदू-मुस्लिम एकता के साझा प्रयासों ने गति दी थी। इसने अंग्रेजों को रणनीति बदलने पर विवश किया। वे समझ गए कि यह भारतीय राष्ट्रवाद उनके औपनिवेशिक हितों के विरुद्ध है, जिसे समाप्त करना आवश्यक है।

इसके लिए अंग्रेजों ने एक सुविचारित रणनीति तैयार की। यह रणनीति थी हिंदू-मुसलमानों को अलग-करना और भारतीय राष्ट्रवाद को हिंदू राष्ट्रवाद और मुस्लिम राष्ट्रवाद में बांटना। यह अंग्रेजों की वैचारिक कूटनीतिक विजय थी, क्योंकि 1947 में अंग्रेजों से मुक्त होने के बाद भारत का विभाजन और पाकिस्तान का अस्तित्व इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। संकुचित सांप्रदायिकता का विष धीरे-धीरे भारतीय राष्ट्रवाद को खोखला करने लगा।

एक ओर 1857 की क्रांति और उससे आगे के कई दशक राष्ट्रभक्ति के नए आह्वान का मंत्र फूंकते दिखाई पड़ते हैं तो उसी कालखंड में हमें भारतीयों में भी दो प्रकार की भक्ति दिखाई पड़ती है। एक, राजभक्ति और दूसरी देशभक्ति। स्पष्ट है कि उस कालखंड में कुछ राजे-रजवाड़े सामंत और अंग्रेजी शासन के भारतीय कारिंदे अपने निहित स्वार्थो के चलते अंग्रेजों एवं उनके शासन का गुणगान करते फिरते थे और उन्हें भारत का भाग्यविधाता मानते थे। इस चारण प्रवृत्ति से उस काल के कुछ साहित्यकार भी अछूते नहीं थे। दूसरी ओर सन 1857 एवं उससे आगे के वषों में देशभक्तों की एक लंबी श्रृंखला भी खड़ी होती है, जिसमें स्त्री- पुरुष, बच्चे, साहित्यकार और सभी वर्ग के लोगों का बढ़-चढ़कर प्रतिनिधित्व होता है और एक नए प्रकार के सामाजिक एवं राजनीतिक एकीकरण और भारतीयता का शंखनाद होता है।

जब अपने मूल्यों, भाषा, संस्कृति पर बाहरी मूल्य, भाषा और संस्कृति आक्रमण करती है तब स्वयं के अस्तित्व के लिए उस मानव समूह को स्वदेशीवादी बनना पड़ता है। वस्तुत: स्वदेशी की भावना प्रकृति की तरह अपने स्थान पर बनी रहने वाली आत्मनिर्भरता की भावना है। छेड़छाड़ करते ही उसका आक्रामक रूप सामने आता है। स्वाधीनता आंदोलन के समय भारतीयों द्वारा स्वदेशी आंदोलन या अपनी मातृभूमि की ओर विशेष झुकाव इसी का परिणाम था। इस प्रकार भारतीय राष्ट्रवाद से प्रेरित भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन एक सच्चाई बनकर विश्व के राजनीतिक क्षितिज पर किसी सूर्य की भांति चमका और आज भी पूरी दुनिया के समक्ष मुक्ति के आह्वान की एक अप्रतिम मिसाल है।

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