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कोरोना से जंग में जागरूकता क्यों जरूरी है? - श्रीनारद मीडिया

कोरोना से जंग में जागरूकता क्यों जरूरी है?

कोरोना से जंग में जागरूकता क्यों जरूरी है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है. वातावरण खौफनाक व दर्दनाक है. सामाजिक ताना बाना पूरी तरह से भयाक्रांत होकर अपने दायित्वों से विमुख होता जा रहा है. नदियों में तैरती लाशें इसका चिंताजनक उदाहरण हैं. सामाजिक संगठन के साथ संरचना व्यक्तिगत मूल्यों और परंपरागत संस्कारों को अक्षुण्ण बनाये रखने में असमर्थ होती दिख रही है. ऐसे में इन शक्तियों द्वारा दृढ़ता से कोरोना की रोकथाम हेतु जागरूकता ही एकमात्र विकल्प है.

ग्रामीण क्षेत्रों में जहां संसाधन का घोर अभाव है, वहां इनकी भूमिका सर्वोपरि सिद्ध हो सकती है. जिस परिस्थिति का सामना देश कर रहा है, उसमें हमें यह समझना होगा कि यह आपदा कुछ अलग किस्म की है. स्वतंत्र भारत ने कई प्रकार की आपदाएं झेली है- भूकंप, बाढ़, सूखा, छोटी-मोटी महामारी, आंधी, सुनामी आदि. वे आपदाएं सीमित समय के लिए थीं, लेकिन वर्तमान आपदा लंबी चलेगी. इसकी प्रकृति अलग है. इसलिए हमें एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका में आगे आना चाहिए और इस आपदा में अपने नेतृत्व पर भरोसा करना चाहिए.

अद्यतन आंकड़ों के अनुसार इस महामारी से देश में प्रति दिन लगभग चार हजार लोगों की मौत हो रही है. अब तक जान गंवाने वालों की संख्या ढ़ाई लाख को पार कर चुकी है. प्रति दिन लाखों लोग संक्रमित हो रहे हैं. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े में बताया गया है कि अब तक दो करोड़ से ज्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं. इस आपदा में सरकारी प्रबंधन के तौर पर बहुत सारी अनियमितताएं देखने को मिलीं, लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि लाख आलोचनाओं के बाद भी अंततः सरकार के द्वारा खड़े किये गये तंत्र ने ही मानवीय मूल्य और जनता के प्रति दायित्व का परिचय दिया है.

जिस प्रकार गैर सरकारी व निजी अस्पतालों ने अपराधिक, गैर कानूनी कृत्य कर लोगों को परेशान किया, वैसे में अगर सरकारी तंत्र नहीं होता, तो काली पूंजी एवं बैंक के लोन से बने निजी अस्पताल पैसे के लालच में लोगों की लाशों तक की बोलियां लगाते और शरीर के अंग गैर-कानूनी तरीके से बाजार में बेच देते. स्वार्थी तत्व आपदा को अवसर के रूप में देखते हैं.

इस संदर्भ में महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘कुदरत सबका पेट भर सकती है, पर किसी एक हवस नही.’ सर्वोदय विचारक दादा धर्माधिकारी कहते हैं, वर्तमान युग में तख्त, तिजोरी और तलवार लोगों की प्रतिष्ठा का मापदंड बन गया है. सरकार को कोसने के साथ ही क्या हम ऐसी सामाजिक शक्ति खड़ी कर सकते हैं, जो नरपिशाच बन गये स्वार्थी तत्वों का सामाजिक बहिष्कार करे?

इस संकट काल में कुछ जिम्मेदार राजनेता लोगों को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे नेता न तो समाज के लिए हितकर हैं और न ही देश के लिए. विप्लव आप किसके खिलाफ करेंगे, जो आपकी सुरक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था में लगे हैं, या फिर सरकार के खिलाफ? वर्तमान स्थिति में यह और खतरनाक साबित होगा. संकट के इस क्षण में जिम्मेदार राजनेताओं को संयम रखना चाहिए और भड़काऊ बयान से बचना चाहिए.

संकट की इस घड़ी में समाज के प्रबुद्ध वर्ग को धैर्य से काम लेने की जरूरत है. कोरोना काल में दो-तीन संगठनों ने बेहद सकारात्मक ढंग से अपने को प्रस्तुत किया है. इस दौर में कुछ धार्मिक व सामाजिक संगठनों ने बढ़िया पहल की है, जो सराहनीय है, लेकिन नाकाफी है. हमारे देश में लाखों की संख्या में गैर-सरकारी संगठन, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, जातीय न्यास पंजीकृत हैं. हर छोटे-बड़े पंथ के अपने संगठन हैं.

हमारे देश में बड़े-बड़े धनाढ्य मंदिर हैं, करोड़ों की संपत्ति वाले खानकाह और दरगाह हैं. अनेक बाबाओं एवं संतों के पास बड़ी संख्या में जन और धन दोनों हैं, लेकिन जिस प्रकार कुछ संगठनों ने इस बीमारी के खिलाफ तत्परता दिखायी है, वैसी तत्परता अन्य संगठनों ने नहीं दिखायी. ऐसे संगठनों को आत्मचिंतन करना चाहिए और हो सके, तो देश व समाज के लिए आगे आकर प्रथम पंक्ति के योद्धा की भूमिका निभानी चाहिए.

आखिर इसका समाधान क्या है? इस बात में विश्वास नहीं है कि स्वास्थ्य सेवा पूर्ण रूप से सरकार के जिम्मे हो, लेकिन निजी तंत्र को लूटने और गुंडागर्दी की खुली छूट किसी कीमत पर नहीं मिलनी चाहिए. इसलिए इस क्षेत्र में सरकार को एक ताकतवर नियामक बनाने की जरूरत है, जो स्वतंत्र हो और आम जनता के प्रति जिम्मेदार हो. दूसरा, सरकार को समय-समय पर स्वास्थ्य व्यवस्था की समीक्षा भी करनी होगी.

अब समय आ गया है कि हमारे देश का हर सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं जातीय संगठन स्वास्थ्य व्यवस्था पर भी ध्यान दे. देश के धार्मिक स्थलों के साथ स्वास्थ्य व्यवस्था को जोड़ने की जरूरत है. कोरोना महामारी से सीख लेकर सरकार को चाहिए कि वह स्वास्थ्य और शिक्षा को पूर्ण रूप से सबको निशुल्क सुलभ कराये.

यदि डॉक्टरी की पढ़ाई में किसी विद्यार्थी को पांच करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे, तो वह पहले अपनी पूंजी निकालेगा और उसके लिए वह सभी प्रकार के नैतिक-अनैतिक धंधों में शामिल हो जायेगा. अंत में, कोरोना महामारी के कारण जनता ने व्यक्तिगत, सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी जिस अनुशासन को अंगीकार किया है, उसे सतत बनाये रखने की जरूरत है. इससे हम न केवल वर्तमान संकट से निकलेंगे, अपितु आसन्न महामारियों का सामना करने में भी सक्षम होंगे.

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