आज ही के दिन महात्मा गांधी ने अंग्रेजो भारत छोड़ो का नारा का समरशंख फूंका था.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

8 अगस्त, 1942 को ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा देने वाले महात्मा गांधी के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ इतिहास, संस्कृति, भाषा की स्वाधीनता भी उतनी ही जरूरी थी। वे पश्चिमी चिंतन के इस वाक्य से बखूबी परिचित थे कि ‘इतिहास विजेताओं द्वारा लिखा जाता है’। अर्थात अपने राजनीतिक आधिपत्य को बनाए रखने के लिए विजेता अपनी दृष्टि पराधीनों पर थोपते हैं, शिक्षा इसका सबसे बड़ा माध्यम है।

इसलिए गांधी जी ने अपने पत्र ‘हरिजन सेवक’ के जुलाई, 1938 के अंक में लिखा था- ‘हमारी इस झूठी अभारतीय शिक्षा से लाखों लोगों का दिन-दिन जो अधिकाधिक नुकसान हो रहा है उसके प्रमाण मैं रोज पा रहा हूं।’ अपने अन्य पत्र ‘हरिजन’ के 2 नवंबर, 1947 के अंक में उन्होंने लिखा, ‘हम राजनीतिक दृष्टि से तो स्वतंत्र हो गए, परंतु पश्चिम के सूक्ष्म प्रभाव से मुक्त नहीं हुए हैं।’ दुर्भाग्य है कि स्वाधीनता के सात दशक से भी अधिक बीतने के बाद भी शिक्षा के भारतीय विमर्श की गांधी जी की कामना आज कामना ही है।

विकृत प्रस्तुति इतिहास की

इतिहास के संदर्भ में देखें तो भारतीय इतिहास का लेखन पहले अंग्रेजों के हित में और बाद में माक्र्सवादी दृष्टि से किया गया, जिसने भारतीय इतिहास को विकृत कर दिया। भारत के गौरवशाली अतीत और महान परंपराओं की या तो अनदेखी हुई या तोड़-मरोड़कर पेश किया गया। प्रख्यात इतिहासकार के. पी. जायसवाल के अनुसार, भारत में लोकतंत्र की अवधारणा रोमन-ग्रीक गणतंत्र प्रणाली से भी पुरानी है,

लेकिन एनसीईआरटी पुस्तक में भारतीय लोकतंत्र पर रहस्यमयी चुप्पी है। यह जरूर बताया गया है कि 2500 साल पहले यूनान के एथेंस में लोकतंत्र था। कुछ दशकों पहले तक वर्ष 1857 में हुए हमारे प्रथम स्वाधीनता संग्राम को ‘सिपाही विद्रोह’ कहा जाता था। जब वीर सावरकर ने इसे ‘भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहा’, तब भारतीय इतिहासकारों ने भारतीय दृष्टि से इसे देखना शुरू किया।

अंधेरे में दर्ज गौरवशाली पात्र

भारतीयों की मनोसांस्कृतिक एकता को तोड़ने के लिए पश्चिमी दृष्टि से लिखित इतिहास का एक अन्य खतरनाक षड्यंत्र था आर्यों को बाहर से आया बताना। हाल में हरियाणा के राखीगढ़ी की खुदाई में मिले नरकंकाल अवशेषों के डीएनए अध्ययन में हावर्ड और प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी के अध्येताओं ने इस दावे को पूरी तरह खारिज कर दिया। एनसीईआरटी की छठवीं व सातवीं की पुस्तकों में तुर्क, खिलजी, तुगलक, लोदी राजाओं के नाम पर स्वतंत्र अध्याय हैं, लेकिन ‘मौर्य साम्राज्य’ अथवा भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहे जाने वाले ‘गुप्त काल’ पर नहीं। इतिहास के अनेक गौरवशाली पात्रों को विस्मृतियों के अंधेरे में डाल दिया गया है। दिल्ली को बसाने वाले अनंगपाल तोमर या सबाल्टर्न नायक राजा सुहेलदेव की कोई चर्चा नहीं मिलती।

अनदेखा किया गया महान योगदान

अंग्रेजों के खिलाफ सिर्फ राजे-रजवाड़े ही नहीं लड़े थे। पिछड़ी और दलित जातियों-जनजातियों के अनेक वीरों ने इसमें हिस्सा लिया था। कोली समाज की झलकारी बाई, पासी समाज की ऊदा देवी, गंगू बाबा अथवा जनजातीय योद्धा भीमा नायक को इतिहास में क्यों स्थान नहीं मिला? पिछड़ी जातियों के अनेक नायक क्यों भुला दिए गए? इसके पीछे एक ओर यह दृष्टि थी कि विभिन्न जातियों की एकता को सामने न रखा जाए। दूसरी ओर यह भी सच है कि कई बार इसमें तथाकथित सवर्ण जातियों का भी दंभ था जिन्होंने इन महान स्वाधीनता सेनानियों के योगदान को अनदेखा किया।

गढ़ा जाए भारतीय विमर्श

सांस्कृतिक संदर्भों में देखें तो भक्ति की महान परंपरा को भी विकृत किया गया। जिस जार्ज ग्रियर्सन का अनेक लोग बखान करते हैं, उसी ने पहली बार भक्ति को निर्गुण और सगुण धाराओं में बांट दिया था। जबकि तुलसी ने स्पष्ट कहा है कि ‘सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा’। उधर ‘निर्गुनिया’ कहे जाने वाले कबीर सगुण रूप में राम को भजते हुए कहते हैं कि ‘हम घर आए राजा राम भरतार’।

आज भी आम जनता के लिए निर्गुण-सगुण में कोई मतभेद नहीं है, लेकिन भक्ति के अकादमिक विमर्श में हम ग्रियर्सन को ही ढो रहे हैं। इसी तरह से गणित-विज्ञान के हमारे गौरवशाली इतिहास को भी गर्त में डाल दिया गया। अंक-प्रणाली, दशमलव, भिन्नात्मक संख्या आदि गणितीय अवधारणाएं भारत में वैदिक काल से विद्यमान थीं, लेकिन अरब या यूरोप वालों ने इन्हें अपने नाम हथिया लिया।

कुटिलता से छिपा लिए गए अथवा नकारात्मक दृष्टिकोण से प्रस्तुत कपटपूर्ण सूक्ष्मताओं से भरे हुए सैकड़ों प्रसंग आपको एनसीईआरटी की इतिहास, समाज, साहित्य की पुस्तकों में मिल जाएंगे। देशप्रेम, गौरव और राष्ट्रीय एकता-अखंडता को बढ़ावा देने के बजाय ये विवरण बच्चों में हीनता, विभेद, कुंठा जैसे भाव भरने का काम करते हैं।

‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ बनाने के लिए आवश्यक है कि अब शिक्षा का भारतीय विमर्श गढ़ा जाए। इतिहास, संस्कृति, अवधारणात्मक विमर्शों के संदर्भ में पश्चिमी प्रभाव या ‘अंग्रेजियत भारत छोड़ो’ के नए नारे की आवश्यकता है।

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