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जीवन मूल्यों के क्षरण का दुष्परिणाम हैं समाज में बढ़ रहे हिंसा के मामले. - श्रीनारद मीडिया

जीवन मूल्यों के क्षरण का दुष्परिणाम हैं समाज में बढ़ रहे हिंसा के मामले.

जीवन मूल्यों के क्षरण का दुष्परिणाम हैं समाज में बढ़ रहे हिंसा के मामले.

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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समाज में सदैव किसी न किसी तरह के मूल्य चलन में रहे हैं। इनका उद्देश्य समाज को नियमबद्ध रूप से एक आदर्शात्मक व्यवस्था के रूप में चलाना था। समाज अपनेआप में एक व्यवस्था का नाम है, जहां प्रत्येक व्यक्ति के लिए नियमों, कानूनों का पालन करना सुनिश्चित किया गया है। वर्तमान में वैश्विक स्तर पर अनेक लोकतांत्रिक शक्तियां विभिन्न संकटों से दो-चार हो रही हैं तो उन्हें भी मानवीय मूल्यों की महत्ता का अहसास हो रहा है।

जीवन-मूल्यों को समझने के लिए उसके निर्धारक तत्वों को जानना जरूरी है। मनुष्य का संपूर्ण कायिक, मानसिक, सामाजिक व्यवहार उसकी मूल प्रवृत्तियों द्वारा संचालित होता है। इन्हीं के आधार पर मूल्य संरचना निर्माण को मुख्य रूप से दो भागों में बांटा जाता है।

पहला जैविक आधार और दूसरा पराजैविक आधार कहा जाता है। किसी भी व्यवस्था को सुचारु ढंग से संचालित करने के लिए उसका पराजैविक आधार अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। इसमें सामाजिक मूल्य के साथ-साथ मानवीय मूल्य भी अंतर्निहित हैं। यदि मानवीय मूल्यों की आदर्शवादी व्यवस्था न हो तो संभवत: समाज का, शासन का संचालन करना दुष्कर हो जाएगा। मानवीय क्रियाकलापों में आज मानवीय मूल्यों में ह्रास देखने को मिल रहा है।

समाज में जिस तरह से हिंसा के मामले बढ़ रहे हैं वह मानवीय मूल्यों के क्षरण का ही दुष्परिणाम है। इन मूल्यों के क्षरण को कैसे रोका जाए? मानवीय मूल्यों का मनुष्य के साथ साहचर्य अनादिकाल से रहा है। ऐसे में किसी भी रूप में मानवीय मूल्यों को बचाना मानव की प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए। यद्यपि परिवर्तन समाज की शाश्वत प्रक्रिया है।

जब भी कोई समाज विकासक्रमानुसार एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाता है तभी जीवन-व्यवस्था से संबद्ध मानवीय संबंधों पर आधारित जीवन-मूल्यों के स्वरूप एवं दिशा में भी परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। तब युगीन आवश्यकतानुसार पूर्वस्थापित जीवन-मूल्यों का पुनर्मूल्यांकन, अवमूल्यन तथा नव-निर्माण का कार्यक्रम भी क्रियान्वित होता है।

ऐसी स्थिति में जीवन-मूल्यों की प्रतिस्थापना के लिए एकमात्र सहारा शिक्षा व्यवस्था ही नजर आती है। शिक्षा जहां एक ओर मनुष्य के वैयक्तिक व्यक्तित्व को विकसित करती है, वहीं उसके सामाजिक तथा सांस्कृतिक व्यक्तित्व को भी गति देती है। शिक्षा व्यक्ति की चिंतन-शक्ति, अभिरुचि, क्षमता आदि का विकास करके उसकी सामाजिकता और सांस्कृतिकता का निर्माण करती है। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति कई-कई पीढ़ियों की सांस्कृतिक विरासत का संवाहक बनता है। यही संवाहक यदि मानवीय-मूल्यों का संरक्षण करता हुआ आगे बढ़ता है तो वह न केवल समाज के लिए लाभकारी होता है, वरन लोकतंत्र के लिए भी कारगर होता है।

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