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गैंगरेप के बाद औरतों को आरी से काटकर फेंक देते थे, ताकि हम डरकर कश्मीर छोड़ दें-शीतल कौल. - श्रीनारद मीडिया

गैंगरेप के बाद औरतों को आरी से काटकर फेंक देते थे, ताकि हम डरकर कश्मीर छोड़ दें–शीतल कौल.

गैंगरेप के बाद औरतों को आरी से काटकर फेंक देते थे, ताकि हम डरकर कश्मीर छोड़ दें–शीतल कौल.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

बेहद घनी आबादी के बीच दूसरी मंजिल पर इनका एक कमरा है। यही कमरा शीतल और उनके परिवार का बेडरूम है, यही स्टडी, यही डायनिंग और यही ड्रॉइंगरूम। कमरे में जगह-जगह लाल परदे लगे हैं, जो कपड़ों, किताबों या फिर शायद गरीबी को ढांपने के लिए लगे हों। नीचे पतली-सी चटाई पर चादर जितना पतला गद्दा है। इसी पर दिन में बच्चे पढ़ते, और रात में सोते हैं।

दिल्ली की लोहा-पिघलाऊ वाली गर्मी में जब हम शीतल के घर पहुंचे, फैन पूरी तेजी से घूम रहा था। सिर पर छोटा-सा अंचरा और मुंह पर मास्क लगाए उन्होंने मुझे बैठाया और शुरू हुआ वो शोकगीत, जो सालों से अनकहा था।

लड़कियों की लाशें फूलकर ऐसी हो गई थीं, जैसे चढ़ावे का तैरता फूल हो
शीतल कहती हैं- जन्म वहीं हुआ, पली-बढ़ी वहीं। बोली एक थी। हम पंडित जब हेरथ पर्व मनाते, पड़ोसी मुस्लिम भी शामिल होते थे। तैयारियों में मदद करते। शादी-ब्याहों में भात-न्यौतते। बस खाना हमारा उनसे जरा अलग था। फिर एकाएक सब बदल गया। हिंदू लड़कियों को बाहर निकलने से रोका जाने लगा। हिंदू लड़कों को मजहब बदलने को कहा जाने लगा।

मस्जिदों से नफरत-भरे नारे गूंजने लगे। फिर वो बात सुनाई पड़ी, जिसने हमें खौफ से भर दिया- हम कश्मीर को पाकिस्तान बनाएंगे, लेकिन हिंदू आदमियों के बगैर, हिंदू औरतों के संग। औरतों के साथ बलात्कार होने लगा। कई जान-पहचान की लड़कियां गायब हो गईं, उनके परिवार भी नहीं जानते कि उनका क्या हुआ। किसी-किसी की लाश दरिया में फूलकर तैरती हुई मिली, ऐसे, जैसे चढ़ावे का फूल तैरता हो।

शीतल कौल दिल्ली के रोहिणी इलाके में रहती हैं। इसी गली से होकर मैं उनके घर पहुंची। दूसरी मंजिल पर एक कमरे का उनका घर है। जिसमें किचन से लेकर सोना-बैठना और बच्चों का पढ़ना सब काम होता है। कश्मीर में इससे बड़ा तो उनका किचन था।
शीतल कौल दिल्ली के रोहिणी इलाके में रहती हैं। इसी गली से होकर मैं उनके घर पहुंची। दूसरी मंजिल पर एक कमरे का उनका घर है। जिसमें किचन से लेकर सोना-बैठना और बच्चों का पढ़ना सब काम होता है। कश्मीर में इससे बड़ा तो उनका किचन था।

जब अपने ही घर में शिकारी घुस जावे, तो सड़कों पर भटकना ही ठीक है। तो हमने यही किया। एक ट्रक भाड़े पर ली और दो-तीन कश्मीरी पंडितों के परिवार उसी रात बाहर निकल आए। पहले जम्मू के शरणार्थी कैंप में रहे, फिर यहां से वहां बिखर गए।

जब सपना देखती हूं, कश्मीर का ही देखती हूं घर छोड़ते वक्त क्या-क्या साथ लिया? सवाल जितना मासूम था, शीतल की नजरों में शायद उतना ही बचकाना। बंदूक की गोली की तरह दन्न से उनकी आवाज छूटती है- क्या-क्या उठाते! सिर्फ एक-दो बर्तन उठाए, रजाई ली और निकल पड़े। बाकी सब वहीं छूट गया। सब्ब! घर-जमीन, गाय-बैल सब छूट गया। जमापूंजी धरी की धरी रह गई।

‘याद करने में बहुत दिक्कत होती है’- कश्मीर की उस पंडिताइन की भर्राई बातों के बीच मैं चुपचाप नीचे देख रही थी और सोच रही थी कि इनसे बात करते हुए मेरा सारा होमवर्क बेकार हो गया। कई सवाल थे, जो छूट गए। कई जवाब थे, जो बगैर सवाल के ही कानों को छेदकर दिल को भेदते चले गए।

‘कश्मीर से निकले तो हम बिखर गए।’ शीतल की आवाज से मैं लौटती हूं- ‘कोई यहां चला गया, कोई वहां बस गया। सब बिखर गया, हम लोग भी बिखर गए। अब कश्मीर से बस सपनों का ही नाता रहा है। जब सपना देखती हूं, वहीं का देखती हूं। अपना घर, अपने लोग, वहां के दरिया, बाग-बागान, ठंडी हवा। जब नींद खुलती है तो सीलनभरे कमरे में घर्र-घर्र करता फैन दिखता है।’

थोड़ा ठहरकर मैं सोपोर की खासियत यानी सेब की बात पूछती हूं। शीतल कहती हैं- जब कोई चीज ज्यादा मिलती है तो उसकी कद्र नहीं होती। मेरे साथ भी यही हुआ। वहां हमारे पास सेब के कई बाग थे। मौसम में सेब गिरकर खराब होते, कुछ बिकते, कुछ पड़े-पड़े सड़ते। मुझे कोई मतलब नहीं था। खाती नहीं थी मैं। फिर कश्मीर छूटा। अब दिल्ली में सेब दिखते हैं। बागानों की जगह ठेलों पर। छोटे-सख्त और हरे-पीले से। बेस्वाद, लेकिन महंगे। अब भी खाने का दिल नहीं होता, लेकिन बिल्कुल दूसरी वजह से।

शीतल से विदा लेते हुए मैंने पहली दफे अपना पत्रकारी मुखौटा छोड़ उनके हाथ थाम लिए। कुछ पसीने, तो कुछ तकलीफ से भीगे उन हाथों में उम्मीद थी कि शायद अब कुछ बदल सके। शायद अब वो उस घर को लौट सकें, जो भले खाक हो चुका, लेकिन जिसे दोबारा बसाने की गुंजाइश है।

हमने कश्मीर छोड़ा है, अपने रिवाज नहीं
मेरा अगला पड़ाव करीब 500 मीटर की दूरी पर था। पैदल चलते हुए मैं उस इलाके को देख रही थी। दिल्ली की चमक-दमक से एकदम जुदा। यहां घर आपस में ऐसे सटे थे, जैसे गेंदे के फूल की पंखुड़ियां। सड़क पर गाड़ियों की चीं-पीं हो रही थी। धूल था- धुआं था और था दिल्ली-वाला लहजा। कश्मीरियों को यहां कैसा लगता होगा? कैसा लगता होगा, जब हर सुबह परिंदों और दरिया की आवाज की बजाय गाड़ियों के हॉर्न से उनकी नींद खुले? कैसे वो इतने सालों तक चुप रहे सके….?

सवालों के अंधड़ के बीच हम पहुंचे विजय कुमार टिक्कू के कमरे (घर), जहां दरवाजे पर स्वस्तिक के निशान बने हैं। करीब 52 साल के विजय अंग्रेजी और मिली-जुली हिंदी में स्वागत करते हुए अपने परिवार से मिलवाते हैं। तभी छोटा बेटा लपककर पांव छूने को झुकता है, जिसे मैं बीच में ही पकड़ लेती हूं। मेरी सकपकाहट दूर करते हुए विजय बोलते हैं- ‘अरे, हम कश्मीरियों के यहां बड़ों से ऐसे ही मिलने का दस्तूर है! हमने कश्मीर छोड़ा है, अपने रिवाज नहीं’। ये थी शुरुआत!

विजय कहते हैं- अपने घर भला कौन नहीं लौटना चाहता है, लेकिन लौटूंगा नहीं। वापस से उन गद्दार दोस्तों की शक्ल नहीं देखना चाहता, जिन्होंने मुसीबत में साथ छोड़ दिया और मिलिटेंट्स से जा मिले। क्या करना ऐसे दोस्तों का…

विजय कहते हैं- 19 जनवरी की रात जब कश्मीरी पंडितों पर जुल्म का सिलसिला शुरू हुआ, मैं बाहर था। दो-तीन दिन बाद लौटा तो बड़ा-सा घर भांय-भांय कर रहा था। वहां पिताजी और भाभी के अलावा कोई नहीं था। बहनों को लेकर भाई जा चुके थे। पता लगा कि रात में मस्जिदों से आवाजें आईं और हिंदू घरों से लोगों को खींच-खींचकर निकाला जाने लगा। धमकियां मिलने लगीं। वो जनवरी की रात थी। बेहद सर्द, लेकिन उसी हाल में हमारे लोगों को सड़क पर बिठाकर उनसे नारे लगवाए गए। धमकियां दी गईं कि जल्दी से भाग जाओ, वरना मारे जाओगे।

तभी मेरी मां का देहांत हुआ था। हम पंडित सालभर तक मृतक के नाम पर दरिया में पानी देते हैं। एक रोज मैं पानी देने गया हुआ था कि तभी पुल पर अपने ही दोस्त की ताजा-ताजा लाश दिखी। मैं खून से सने हाथ लेकर घर लौटा और दोनों हाथ पिताजी के आगे कर दिए। इसके बाद ही वो कश्मीर छोड़ने को राजी हुए।

क्या घर लौटने को दिल नहीं चाहता?
विजय कहते हैं- क्यों नहीं चाहता, लेकिन लौटेंगे नहीं। अब वापस से उन गद्दार दोस्तों की शक्लें नहीं देखनीं, जिन्होंने मुसीबत में साथ छोड़ दिया और मिलिटेंट्स से जा मिले। क्या करना ऐसे दोस्तों का, जो खुद बताते थे कि इस-इस घर में कश्मीरी पंडित रहते हैं!

इंटरव्यू का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए कश्मीर समिति, दिल्ली के सीनियर मेंबर कंवल चौधरी से समझना चाहा कि 19 जनवरी की रात आखिर क्या हुआ था, जो कश्मीरी पंडितों में खलबली मच गई। वे याद करते हुए बताते हैं- मस्जिदों से हुजूम के हुजूम निकले और सड़कों पर बिखर गए। वो कश्मीरी में चीख रहे थे कि या तो आप धर्म बदल लें, या भाग जाएं या फिर मारे जाएं, लेकिन अपनी औरतों को यहीं छोड़ दें। रातोंरात हिंदू घरों पर पोस्टर चिपक गए कि यहां से चले जाओ।

70 साल की फूलां रैना की आंखों में डल झील से भी गहरा पानी तिर रहा है, जिसे पोंछना मेरे बस की बात नहीं है। वे कहती हैं,' अब तो उम्र ढल गई है, वापस कश्मीर जा भी नहीं सकूंगी। जब भी अपने कश्मीर की याद आती है तो छुप-छुप कर रोती हूं।'
70 साल की फूलां रैना की आंखों में डल झील से भी गहरा पानी तिर रहा है, जिसे पोंछना मेरे बस की बात नहीं है। वे कहती हैं,’ अब तो उम्र ढल गई है, वापस कश्मीर जा भी नहीं सकूंगी। जब भी अपने कश्मीर की याद आती है तो छुप-छुप कर रोती हूं।’

हमारी औरतों के गैंग रेप के बाद उनके शरीर आरी से काटकर फेंक दिए जाते, ताकि हम डर जाएं। यही हुआ भी। हम डर गए और कश्मीर छोड़ दिया। खुद मैंने चार मंजिला अपना मकान छो़ड़ किया। अब उस पर किसी और का कब्जा है और मैं यहां दिल्ली में किराए के कमरे में रहता हूं।

करीब 70 साल की फूलां रैना हमारी पड़ताल का आखिरी चेहरा थीं। दो कमरों के उनके मकान में 10 लोग रहते हैं। टूटी-फूटी हिंदी में फूलां देर तक कुछ-कुछ बताती रहती हैं, हरेक बात कश्मीर की। उनकी बहू ट्रांसलेशन में मदद करती हैं। वो बताती हैं कि कैसे सारे पंडित भागे थे। औरतों के साथ किस तरह के जुल्म हुए थे।

फूलां के चेहरे की हरेक हलचल, आवाज का हर उतार-चढ़ाव वीडियो में रिकॉर्ड होता रहा, लेकिन सब कुछ मशीनी ढंग से। जब वे कहती हैं- ‘कश्मीर की याद आती है, तो चोरी-चोरी रोती हूं। क्या करूं। बुड्ढी हूं। अब तो जा भी नहीं सकूंगी’- सुनकर मैं कंपकंपा जाती हूं। डल झील से भी गहरा पानी उन बूढ़ी आंखों में तिर रहा है, जिसे पोंछने की मेरी हिम्मत नहीं।

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