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हम हिंदी को क्यों स्वीकार कर रहे हैं ? - श्रीनारद मीडिया

हम हिंदी को क्यों स्वीकार कर रहे हैं ?

हम हिंदी को क्यों स्वीकार कर रहे हैं ? 

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हम हिंदी को क्यों स्वीकार कर रहे हैं? इसलिए नहीं कि वह सबसे उत्कृष्ट भारतीय भाषा है। हम उसे मुख्यत: इस कारण स्वीकार कर रहे हैं कि इस भाषा के बोलने वालों की संख्या अन्य किसी भाषा के बोलने वालों की संख्या से अधिक है। यदि 32 करोड़ लोगों में से 14 करोड़ किसी एक भाषा को समझते हों और उसका विकास भी हो सकता है, तो हम कहते हैं कि वह भाषा स्वीकार की जाए, किंतुु उसे इस प्रकार अपनाया जाए कि अंतरिम काल में राजकीय कार्य शिथिल न हो जाए और किसी काल में भी भारत की तथा उसकी अन्य महान भाषाओं की प्रगति शिथिल न हो।

आपको अंग्रेजी को हटाने के लिए पंद्रह वर्ष दिए गए हैं। वह किस प्रकार हटाई जाए? उसे हटाते जाना होगा। हमें वस्तुस्थिति को ध्यान में रखकर इस संबंध में निर्णय करना होगा कि कुछ विशेष कार्यों के लिए अंग्रेजी को भारत में जारी रखा जाए या नहीं रखा जाए। मेरे कुछ मित्र बता चुके हैं कि हमने कुछ कारणों से भले ही अंग्रेजी शासन से भारत को मुक्त किया हो, किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि हम अंग्रेजी भाषा का भी बहिष्कार करें। …यदि हमारी यह धारणा हो कि कुछ प्रयोजनों के लिए हमेशा अंग्रेजी प्रयोग में आए और उसी भाषा में शिक्षा दी जाए, तो लज्जा की कोई बात नहीं है।

ऐसे प्रांतों के लोगों को, जहां हिंदी नहीं बोली जाती, हिंदी के संबंध में घबराहट क्यों है? यदि हिंदी के समर्थक मुझे क्षमा करें, तो मैं कहूंगा कि यदि हिंदी को प्रयोग में लाने की अपनी मांग पेश करने में वे इतना जोर न दिखाते, तो वे जो कुछ चाहते हैं, वह उन्हें मिल जाता और भारत की सारी जनता हृदय से उनके साथ सहयोग करती और वे जिन बातों की आशा भी नहीं करते हैं, वे भी उन्हें प्राप्त हो जातीं। …जो लोग इस संविधान सभा में हिंदीभाषी प्रांतों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उनसे मेरा निवेदन है कि वे यह स्मरण रखें कि हिंदी को स्वीकार करने पर उन पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ जाती है।

मुझे यह देखकर प्रसन्नता हुई कि कुछ सप्ताह पूर्व हिंदी साहित्य सम्मेलन की सभा में इस आशय का एक प्रस्ताव पारित हुआ था कि हिंदीभाषी प्रांतों में एक या एक से अधिक भारतीय भाषाओं की अनिवार्य शिक्षा के लिए प्रबंध किया जाएगा। …यदि आप यह चाहते हैं कि हिंदी सारे भारत में अपनाई जाए और केवल कुछ राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी का स्थान न ले, तो आप हिंदी को इस योग्य बनाइए और उसमें प्राकृतिक रूप से न केवल संस्कृत से, अपितु उसकी भगिनी रूपी अन्य भारतीय भाषाओं से भी शब्द आने दीजिए। हिंदी के विकास को कुंठित न कीजिए।

मैं अपने बंगाली ढंग से हिंदी बोल सकता हूं। महात्मा गांधी अपने ढंग से हिंदी बोलते थे। सरदार पटेल गुजराती ढंग से हिंदी बोलते हैं। यदि संयुक्त प्रान्त अथवा बिहार के मेरे मित्र यह कहें कि उनकी हिंदी ही प्रामाणिक हिंदी है और जो कोई इस प्रकार की हिंदी नहीं बोल सकेगा, उसका बहिष्कार किया जाएगा, तो यह न केवल हिंदी के लिए, बल्कि सारे देश के लिए बुरी बात होगी। इसलिए मुझे इसकी प्रसन्नता है कि इस अनुच्छेद के मसौदे में इस संबंध में उपबंध रखे गए हैं कि इस देश में इस भाषा का विकास कैसे होगा।

मुझे इसकी चिंता है कि एक ऐसी भाषा अस्तित्व में आ जाए, जिसे भारत के सभी लोग न केवल बोलें और लिखें, बल्कि जिसमें भारत सरकार का राजकीय कार्य भी किया जाए। हम इसके लिए सहमत हो गए हैं कि वह भाषा हिंदी होगी। किंतु उसके पग-पग पर इस प्रकार समायोजन करने की जरूरत है कि हमारे राष्ट्रीय हितों की हानि न हो और राज्यों की भाषाओं के हितों की भी हानि न हो। यदि आप इस प्रकार कार्य करेंगे, तो मुझे इस संबंध में कुछ भी संदेह नहीं है कि हमें पंद्रह वर्ष तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी और सभी प्रांतों के लोग हमारे निर्णय को सहर्ष स्वीकार करेंगे और प्रयोग में लाएंगे।

दक्षिण वालों केे लिए यह एक बहुत ही कठिन समस्या है। दक्षिण के लिए यह प्रश्न जीवन और मृत्यु का है और आवश्यक है कि इसे यथोचित रूप से हल किया जाए। …जब हम अपनी भाषाओं को छोड़कर और उत्तर की भाषा को अपनाकर अपने प्रांतों में अपने निर्वाचकों के सामने जाएंगे, तो हमारी क्या दशा होगी? …आखिर स्थिति क्या है? हमारे क्षेत्रों की भाषाएं हिंदी से अधिक विकसित हैं और उनका साहित्य भी हिंदी के साहित्य से अधिक वृहत् है।

यदि हम हिंदी को स्वीकार करने जा रहे हैं, तो वह इस कारण नहीं कि वह उत्कृष्ट भाषा है, इस कारण नहीं कि वह सबसे अधिक सुसंपन्न है, इस कारण नहीं कि संस्कृत के समान वह अन्य भाषाओं की जननी है। इस प्रकार की कोई बात नहीं है। हम उसे केवल इस कारण स्वीकार करने जा रहे हैं कि बहुत से लोगों की भाषा हिंदी है। यह बात भी नहीं है कि इस देश के अधिकांश लोग हिंदीभाषी हैं। केवल बात इतनी है कि भारत में जो भाषाएं बोली जाती हैं, उनमें से हिंदी बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक है।

केवल इसी आधार पर यह दावा किया जा रहा है कि हिंदी को सारे देश की राज-भाषा के रूप में स्वीकार किया जाए। …जिस स्थिति में हम इस समय हैं, उसके कारण हमने नागरी लिपि सहित हिंदी को राज-भाषा मान लिया है। किंतु मैं यह कह चुका हूं कि आप राष्ट्रभाषा शब्द का प्रयोग नहीं कर सकते, क्योंकि जिस प्रकार अंग्रेजी अथवा अन्य कोई भाषा हमारे लिए राष्ट्रभाषा नहीं है, उसी प्रकार हिंदी भी राष्ट्रभाषा नहीं है।

.हमारी अपनी भाषाएं हैं, जो राष्ट्र-भाषाएं हैं और वे हमें उतनी ही प्रिय हैं, जितनी प्रिय हिंदीभाषी लोगों को अपनी भाषा है। जैसा कि मैं कह चुका हूं, हम हिंदी को तथा नागरी लिपि को राज-भाषा और राजलिपि के रूप में स्वीकारने के लिए इसलिए सहमत हुए कि उस भाषा को भारत की अन्य भाषाओं की अपेक्षा अधिक लोग बोलते हैं। यदि केवल इस कारण आप यह कहना चाहते हैं कि कल ही से परिवर्तन कर दिया जाए और कल ही से हिंदी को राज-भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया जाए, तो मेरे विचार से लोगों को यह मान्य नहीं होगा।

…आखिर हमने काहे की मांग की है? हमने यह मांग की है कि हमें तैयारी करने के लिए समय दिया जाए। हमारी यहां सबसे पहली मांग थी, दूसरे पक्ष के नेता इसके लिए सहमत हो गए। उन्होंने कहा कि वे तैयारी के लिए पंद्रह वर्ष दे देंगे। …आप कहते हैं कि दस वर्ष के पश्चात एक और आयोग नियुक्त होगा और वह आयोग एक प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगा और उस प्रतिवेदन के आधार पर आदेश दिए जाएंगे। इसका अर्थ क्या है? आपका यह केवल कथन मात्र है कि आप पंद्रह वर्ष दे रहे हैं, किंतु पांच वर्ष के पश्चात और दस वर्ष के पश्चात आप हिंदी प्रयोग में लाने जा रहे हैं…।

हमें इसका गर्व रहा है कि हमारा संस्कृत से कोई संबंध नहीं रहा है। हमारा यह दावा नहीं है कि तमिल संस्कृत से निकली है या वह संस्कृत पर किसी प्रकार से आधारित है। हम अपनी शब्दावली को यथासंभव विशुद्ध रखने के प्रयास करते रहे हैं और हमने उसमं संस्कृत के शब्दों को नहीं मिलने दिया है। अब हमें अपने इस रवैये को छोड़ना है। …अनिच्छा होने पर भी, अपने दृष्टिकोण को बदलना है और फिर हिंदी का अथवा संस्कृत का अध्ययन करना है। आपको पहले लोगों को शिक्षा देनी होगी।

आप हमारे लिए सदा के लिए रुकावट डाल रहे हैं। जिन लोगों की मातृभाषा हिंदी हैं, वे केवल हिंदी सीखेंगे, किंतु हमें दक्षिण में न केवल हिंदी सीखनी पड़ेगी, बल्कि अपनी मातृभाषा भी सीखनी पड़ेगी। हम अपनी मातृभाषा नहीं त्याग सकते। इसके अतिरिक्त प्रादेशिक भाषा भी सीखनी होगी। इस व्यवस्था से आप हमारे लिए सदा के लिए रुकावट पैदा कर रहे हैं। आप उत्तर भारत के निवासियों को यह समझना होगा कि हम कितना त्याग कर रहे हैं।
…जो बातें की गई हैं और जो बातें की जाने वाली हैं, उनसे कहीं अधिक आपत्तिजनक हिंदीभाषी लोगों का हमारे साथ व्यवहार तथा उनका मांग करने का ढंग है। कहा जाता है, निस्संदेह आपको स्वीकार करना ही चाहिए। इस प्रकार की बातों से ही हमारा धैर्य टूटता है। मैं उत्तर भारत के लोगों से अपील करता हूं कि वे इस प्रकार का रुख न अपनाएं। हमें यह भावना उत्पन्न करनी है कि हमारा एक ही देश है और हमें एक साथ रहना है।

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