क्या आबादी में वृद्धि के सकारात्मक पहलू भी है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
बीते पांच दशकों में दुनिया में हुआ जनसंख्या विस्फोट हर किसी को चौंका रहा है। इसी से यह सवाल पैदा हुआ है कि धरती पर मनुष्यों की बढ़ती संख्या को बोझ या अभिशाप की तरह देखा जाए या वरदान माना जाए। जिन देशों में बढ़ती जनसंख्या को एक समस्या माना जाता है, भारत उनमें से एक है। यही कारण है कि वर्ष 2019 में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 15 अगस्त को लाल किले से राष्ट्र को संबोधित कर रहे थे, तो उन्होंने छोटे परिवार को देशभक्ति से जोड़ा था।
भारत की बढ़ती जनसंख्या
हमारे देश में तो छोटे परिवार या परिवार नियोजन की प्रेरणा कई दशकों से जगाई जाती रही है, लेकिन 48 वर्षों में ही दुनिया की जनसंख्या चार अरब से दोगुनी होकर आठ अरब होने से आबादी बहुल देश के राजनीतिक नेतृत्व और नीति-निर्धारकों में एक किस्म का अपराधबोध भी दिखता है। उनके भाषणों-वक्तव्यों से ऐसा प्रतीत होता है मानो भारत की बढ़ती जनसंख्या दुनिया में खाद्यान्न समेत तमाम दूसरे संकट पैदा कर सकती है।
इसलिए इस पर नियंत्रण पाना अत्यंत आवश्यक है। निश्चित ही ये आंकड़े भारत समेत पूरी दुनिया को हैरान करते हैं कि वर्ष 1950 में विश्व की जनसंख्या केवल ढाई अरब थी, जो अब आठ अरब का आंकड़ा पार कर गई है। आज पड़ोसी चीन 1.42 अरब के साथ दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बना हुआ है, तो भारत इस मामले में ज्यादा पीछे नहीं है। अभी हमारे देश में लगभग 1.41 अरब लोग हैं और जो रफ्तार यहां जनसंख्या बढ़ोतरी की है, अगले ही साल कम से कम इस मामले में हम चीन को पछाड़ने वाले हैं।
अनुमान यह भी है कि वर्ष 2050 के नजदीक पहुंच कर भारत-चीन की आबादी में स्थिरता और उकसे बाद कमी दर्ज की जा सकती है। हमारे जैसे युवा देशों की आबादी में गिरावट को दुनिया इस नजर से चिंताजनक मानती है कि इससे कामकाजी लोगों यानी वर्क फोर्स में कमी आ सकती है। शायद यही वजह है कि जिस आबादी को हम समस्या मान रहे हैं, उसे तमाम अर्थशास्त्री और विशेषज्ञ एक मूल्यवान संसाधन या संपत्ति के रूप में दर्ज करते हैं। यही नहीं, एलन मस्क जैसे कारोबारी (जिन्हें अपने दफ्तर और फैक्ट्रियां चलाने के लिए श्रमिक चाहिए) कहते हैं कि बहुत से लोग इस भ्रम में हैं कि पृथ्वी पर बहुत ज्यादा आबादी है।
एलन मस्क ने हाल में एक बयान में कहा कि दुनिया में जन्म दर के स्पष्ट संकेत हैं, जिसका मतलब है कि आबादी में गिरावट आने वाली है। आबादी में कमी आने का एक आधार यह है कि जिस चीन में वर्ष 1900 में दुनिया की 25 प्रतिशत जनसंख्या थी, उसमें 2050 तक 14 प्रतिशत की कमी आ सकती है।
ऐसा भारत में भी हो सकता है, क्योंकि शिक्षा और स्वास्थ्य जागरूकता बढ़ने पर लोग छोटे परिवार को महत्व देने लगे हैं। वैसे एक तथ्य यह है कि भारत-चीन में जब जनसंख्या घट रही होगी, तो उप-सहारा अफ्रीकी देशों- जैसे तंजानिया, नाइजीरिया और कांगो आदि में आबादी बढ़ रही होगी। यूं जब आबादी में गिरावट आएगी, उसकी रफ्तार थमेगी, तब क्या हालात होंगे, इसके अभी केवल अनुमान ही लगाए जा सकते हैं। पर मौजूदा स्थितियों में बड़ा सवाल यह है कि क्या धरती पर इंसानों की बढ़ती संख्या हर मामले में बोझ बन गई है।
जनसांख्यिकी आपदा
पिछले सप्ताह जब दुनिया में आठ अरबवें शिशु का जन्म हुआ होगा, उसका अनुमान लगाते हुए संयुक्त राष्ट्र के महासिवच एंतोनियो गुतेरस ने वैसे तो कहा कि यह मौका विविधता के सम्मान, मानवता के साझा लक्ष्यों को दर्ज करने और बढ़ती जीवन प्रत्याशा के साथ स्वास्थ्य सेवाओं के साथ शिशु जन्म दर व मातृत्व सुरक्षा में सुधार का जश्न मनाने का है। परंतु दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जिन्हें बढ़ती आबादी के कई दुष्प्रभाव दिखाई देते हैं।
ऐसे दावे किए जाते हैं कि बढ़ती आबादी का सबसे ज्यादा असर जन्म लेने वाले बच्चों के स्वास्थ्य और खान-पान पर पड़ता है। बच्चों को समुचित पोषण, शिक्षा और खेलकूद का अवसर नहीं मिलता। संसाधनों के बंटवारे के कारण बच्चे कुपोषण समेत कई बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। जो बच्चे जीवित बचते हैं उन्हें शिक्षा और रोजगार के लिए संघर्ष करना पड़ता है और लंबे समय तक बेरोजगारी झेलनी पड़ती है।
एक दबाव सरकारों और प्रशासनिक तंत्र पर भी पड़ता है। सरकारें युवाओं को समुचित रोजगार नहीं मुहैया कराने के कारण आलोचना का शिकार होती हैं। सड़क, बिजली, घर-मकान आदि संसाधनों पर भी आबादी का दबाव पड़ता है और खेती-किसानी में लगे परिवारों में जोत (खेती का रकबा) बंटवारे के कारण छोटी होती जाती है, जिससे उनकी कमाई कई गुना घट जाती है। ये सारे दावे और आंकड़े किताबी नहीं हैं।
हालात ये हैं कि लोगबाग चाहे किसी पर्यटन स्थल पर जाएं, ट्रेन-बस से यात्रा करें, शिक्षण संस्थानों में दाखिले की प्रक्रिया से गुजरें या नौकरियों के लिए आवेदन करें, हर जगह भारी भीड़ दिखाई देने लगी है। स्थिति एक अनार और लाखों बीमार वाली हो गई है। ऐसे में कई जगहों पर अव्यवस्था और अराजकता का माहौल बन जाता है और हालात काबू से बाहर हो जाते हैं। एक आरोप यह भी लगता है कि मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा ज्यादा बच्चे पैदा करने से देश में अराजकता का माहौल बन गया है, जिसमें सुधार के लिए ‘टू चाइल्ड पालिसी’ जैसे नियमों को अपनाया जाना बहुत जरूरी है।
जनसंख्या के सामुदायिक मिथक
देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाइ. कुरैशी ने अपनी किताब, ‘द पापुलेशन मिथ : इस्लाम, फैमिली प्लानिंग एंड पालिटिक्स इन इंडिया’ में मुसलमानों की आबादी में वृद्धि के मिथक को तोड़ने का प्रयास किया है। इस किताब में कुरैशी ने साफ लिखा है कि भारत में जनसंख्या विस्फोट की असली वजह सामाजिक और आर्थिक हैं। जैसे शिक्षा की कमी, गरीबी और क्षेत्र विशेष में डाक्टर-अस्पताल आदि जरूरी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी। कुरैशी ने लिखा है कि किसी किसी भी धर्म में प्रजनन दर के बढ़ने के ये ही प्रमुख कारण होते हैं और चूंकि मुसलमान इन मानदंडों पर सबसे होते हैं, इसलिए उन पर आबादी बढ़ाने के आरोप को बहुधा सच मान लिया जाता है।
कुरैशी के मुताबिक अब मुस्लिम परिवार भी ज्यादा तेजी से परिवार नियोजन अपना रहे हैं। आंकड़े देकर उन्होंने अपनी किताब में बताया है कि भारत में वर्ष 1951 में हिंदुओं की जनसंख्या 84 प्रतिशत थी, जो वर्ष 2011 में घट कर 79.8 प्रतिशत रह गई। इसी अवधि में मुसलमानों की जनसंख्या 9.8 प्रतिशत से बढ़ कर 14.2 प्रतिशत हो गई। जनसंख्या के हिसाब से 1951 में मुसलमानों की तुलना में 30 करोड़ हिंदू भारत में ज्यादा थे, जो अब बढ़ कर 80 करोड़ हो गए हैं।
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