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एकजुट विपक्ष कुछ विशेष स्थितियों में, राज्यों में ही कारगर होता है,क्यों? - श्रीनारद मीडिया

एकजुट विपक्ष कुछ विशेष स्थितियों में, राज्यों में ही कारगर होता है,क्यों?

एकजुट विपक्ष कुछ विशेष स्थितियों में, राज्यों में ही कारगर होता है,क्यों?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

बहुमत वाली सरकार जब भी गद्दी पर मजबूती से स्थापित हो जाती है और उसे हराना किसी एक के बस के बाहर हो जाता है, तब-तब विपक्षी एकता का विचार हवा में तैरने लगता है। लेकिन इसे समझने की जरूरत है कि यह कितना काल्पनिक, पराजयवादी है और बार-बार कितना नाकाम साबित हुआ है, किस तरह यह सत्ता पर अच्छी तरह पकड़ जमाए सरकार की अक्सर मदद ही करता रहा है और किस तरह यह राजनीति के मेले में जादू की पुड़िया बेचने जैसा करतब है।

आज जबकि 2024 के आम चुनाव में पहला वोट डाले जाने के लिए लगभग एक साल बाकी रह गया है, तब विपक्ष उसी नाकाम विचार को आज नया रूप देने में जुटा है। इसलिए यह अच्छी तरह समझा जा सकता है कि विपक्ष का इरादा क्या है।

उसके बयानों पर गौर कीजिए- सत्ता हासिल करने की कोशिश करना हमारा अधिकार है; हममें से कोई अपने बूते ही नरेंद्र मोदी को नहीं हरा सकता; इसलिए हमें कुछ करना होगा; हम और पांच साल इंतजार नहीं कर सकते, जबकि विपक्ष कमजोर होता जा रहा है।

‘मुझे कुछ करना है’, यह प्रशंसनीय भावना है। लेकिन क्या यह भावना वैसी ही होनी चाहिए, जैसी पहले कई बार उभर चुकी है, जिसका नतीजा हमेशा शून्य रहा है? इस आलसी और थके विचार में मूल खामी यह है कि यह इस मान्यता पर आधारित है कि आप एक ताकतवर नेता और उसकी पार्टी को महज जोड़-तोड़ से हरा सकते हैं। मतलब यह कि अगर एक पार्टी या एक नेता सरकार को नहीं हरा सकता तो क्यों न मिलकर इसकी कोशिश करें? आखिर भारत में जो भी किसी तरह का बहुमत हासिल करता है, वह 50% से ज्यादा वोट तो हासिल करता नहीं है।

चुनाव में गणित से ज्यादा भावनाओं का मेल काम आता है। इस तर्क का कॉपीराइट दिवंगत नेता अरुण जेटली के नाम ही है, लेकिन हम इसे विस्तार देते हुए कह सकते हैं कि चुनावी राजनीति गणित और भावनाओं के मेल का जोड़ भी नहीं है। इसमें मनोविज्ञान भी शामिल है, अपने फायदे के लिए मतदाता की सक्रियता यानी लेन-देन भी शामिल है, तो कुछ दार्शनिकता और बेशक मर्ज की पहचान भी।

सुविधाभोगी मतदाता को पाला बदलने के लिए राजी करवाने के वास्ते आपको इन सबका विश्वसनीय मिश्रण तैयार करने की जरूरत है। तब आप कल्पना कीजिए कि राहुल गांधी (मल्लिकार्जुन खड़गे) से लेकर ममता बनर्जी, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, अरविंद केजरीवाल, एम.के. स्टालिन, के. चंद्रशेखर राव, पिनराई विजयन, अखिलेश यादव, मायावती, नीतिश कुमार, हेमंत सोरेन, तेजस्वी यादव, नवीन पटनायक, वाई.एस. जगन मोहन रेड्डी तक तमाम नेता एक ही मंच पर जमे हैं। इन सबके मेल से एक जबरदस्त गणित तैयार होता है।

लेकिन तभी तीन बड़ी समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। पहली, आप यह कल्पना कर ही नहीं सकते कि निकट भविष्य में ये सब भाजपा के खिलाफ एक गठबंधन में शामिल दिखेंगे। दूसरी, इनमें से कई नेता राष्ट्रीय स्तर पर तो साथ आ सकते हैं, लेकिन कई की अपने-अपने राज्य में कांग्रेस से प्रतिद्वंद्विता है।

तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण समस्या यह है कि इन सबको एक साथ बांधने वाला कोई साझा वैचारिक सूत्र नहीं है। जैसे ही आप पटनायक और जगन को चुनेंगे, आप पाएंगे कि उन्हें आज लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ लड़ने की कोई खास वजह नहीं नजर आती है। उसी क्षण आपका गणित फेल हो जाएगा।

इसके बाद, आप उन नेताओं की सूची बना सकते हैं, जो एक साथ बैठ नहीं सकते, मसलन अखिलेश और मायावती। इसके बाद आप ऐसे मिश्रण तैयार कर सकते हैं, जिनमें विपक्षी दल अहम राज्यों में एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं। कांग्रेस हर जगह ‘आप’ के खिलाफ है और तेलंगाना में केसीआर के खिलाफ है।

फिर वैसे विरोधाभास हैं, जैसे कांग्रेस और वाम दलों के बीच हैं। 1969 के बाद आज ये दोनों पहली बार वैचारिक दृष्टि से इतने करीब आए हैं। 1969 में, इंदिरा गांधी की अल्पमत सरकार भाकपा के- जिसे क्रेमलिन में बैठे उनके शुभचिंतकों ने पटरी पर बनाए रखा था- वोटों के कारण बच पाई थी।

गत फरवरी में दोनों ने गठबंधन के रूप में त्रिपुरा विधानसभा का चुनाव लड़ा, और इससे पहले पश्चिम बंगाल में साथ लड़ चुके थे। राजनीतिक अर्थव्यवस्था के मामले में राहुल गांधी की भाषा 1991 के बाद पहली बार वाम दलों की भाषा के इतने करीब दिख रही है, जितनी उनकी पार्टी की भाषा तब थी।

इसके साथ ही वे केरल में स्थाई तौर पर एक-दूसरे से भिड़ते रहे हैं। यहां तक कि अगर वे वहां सीटों के बंटवारे का अप्रत्याशित फैसला भी कर लें तो भी कई वामपंथी मतदाता मोदी को हटाने के नाम पर कांग्रेस को वोट देने को राजी नहीं होंगे।

तीसरी बात है साझा विचारधारा और संदेश के अभाव की। मतदाता इतने समझदार हो गए हैं कि वे भांप लेते हैं कि सुविधा का गठबंधन क्या होता है। वे जान लेते हैं कि उन्होंने जिस शख्स को भारी बहुमत से दो बार सत्ता सौंपी थी, बस उसे हटाने के लिए भिन्न-भिन्न तथा प्रायः परस्पर विरोधी हितों वाले लोग एकजुट हो गए हैं।

हमारा राजनीतिक इतिहास कहता है कि यह कभी कारगर नहीं हुआ। एकजुट विपक्ष कुछ विशेष, सीमित स्थितियों में कारगर होता है, वह भी खासकर राज्यों में। लेकिन वह विचारधारा अथवा राजनीतिक पूंजी से विहीन, विविध हितों वाले किसी अखिल भारतीय मेल के रूप में कभी कारगर नहीं हुआ। 1996-2014 वाले दौर के विपरीत आज देश की राजनीति प्रतिद्वंद्वी गठबंधनों के बीच तनातनी की नहीं रह गई है।

1967 में इंदिरा गांधी ने मामूली बहुमत हासिल तो कर लिया था, लेकिन कई विपक्षी दलों ने उन्हें कई राज्यों में सत्ता में नहीं आने दिया। विपक्षी दलों ने केवल एक मकसद (कांग्रेस हटाओ) के लिए ढीला-ढाला राज्यस्तरीय गठबंधन किया था, जिसे संयुक्त विधायक दल (संविद) नाम दिया गया।

 

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