संविधान में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों पर बहस क्यों हो रही है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

लोकसभा सदस्यों ने दावा किया है कि भारत के संविधान की प्रस्तावना की नई प्रतियों में “समाजवादी” और “पंथनिरपेक्ष” शब्द हटा दिये गए हैं।

  • हमें यह मालूम होना चाहिये कि ये दो शब्द मूल प्रस्तावना का हिस्सा नहीं थे। इन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान संविधान (42वाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा संविधान में जोड़ा गया था।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना:

  • परिचय:
    • प्रत्येक संविधान का एक दर्शन होता है। भारतीय संविधान में अंतर्निहित दर्शन को उद्देश्य संकल्प (Objectives Resolution) में संक्षेपित किया गया था, जिसे 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था।
    • संविधान की प्रस्तावना उद्देश्य संकल्प में निहित आदर्श की व्याख्या करती है।
    • यह संविधान के परिचय के रूप में कार्य करता है और इसमें इसके मूल सिद्धांत और उद्देश्य शामिल हैं।
  • वर्ष 1950 में लागू की गई प्रस्तावना:
    • हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा उसके समस्त नागरिकों को:
      • सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
      • विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
      • प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिये तथा
      • उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, बंधुता बढ़ाने के लिये,
    • दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
  • समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों का समावेश:
    • प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार के समय आपातकाल की अवधि के दौरान संविधान (42वें संशोधन) अधिनियम, 1976 के माध्यम से प्रस्तावना में “समाजवादी” और “पंथनिरपेक्ष” शब्द जोड़े गए थे।
      • “समाजवादी” शब्द को शामिल करने का उद्देश्य भारतीय राज्य द्वारा लक्ष्य और दर्शन के रूप में समाजवाद पर बल देना था, जिसमें गरीबी उन्मूलन तथा समाजवाद का एक अनूठा रूप अपनाने पर ध्यान केंद्रित किया गया था जिसमें केवल विशिष्ट एवं आवश्यक क्षेत्रों का राष्ट्रीयकरण शामिल था।
      • “पंथनिरपेक्ष” को शामिल करने से एक पंथनिरपेक्ष राज्य के विचार को बल मिला, जिसमें सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार, तटस्थता बनाए रखने को प्रोत्साहित किया गया और किसी विशेष धर्म को राज्य धर्म के रूप में समर्थन नहीं दिया गया।

प्रस्तावना से समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों को हटाने पर बहस का कारण:

  • राजनीतिक विचारधारा और प्रतिनिधित्व:
    • इन शब्दों को हटाने की वकालत करने वालों का तर्क है कि “समाजवादी” और “पंथनिरपेक्ष” शब्द वर्ष 1976 में आपातकाल के दौरान शामिल किये गए थे।
    • उनका मानना है कि यह एक विशेष राजनीतिक विचारधारा ढोने जाने जैसा है और यह प्रतिनिधित्व और लोकतांत्रिक निर्णय लेने के सिद्धांतों के खिलाफ है।
  • मूल आशय और संविधान का दर्शन:
    • आलोचकों का तर्क है कि वर्ष 1950 में अपनाई गई मूल प्रस्तावना में ये शब्द शामिल नहीं थे। वे इस बात पर ज़ोर देते हैं कि संविधान के दर्शन में पहले से ही समाजवाद और पंथनिरपेक्षता का स्पष्ट उल्लेख किये बिना न्याय, समानता, स्वतंत्रता तथा भाईचारे के विचार शामिल हैं।
    • उनका तर्क है कि ये मूल्य हमेशा संविधान में निहित थे।
  • गलत व्याख्या किये जाने पर चिंता:
    • कुछ आलोचकों ने चिंता व्यक्त की है कि “समाजवादी” और “पंथनिरपेक्ष” शब्दों की गलत व्याख्या या दुरुपयोग किया जा सकता है, जिससे संभावित रूप से ऐसी नीतियाँ के निर्माण और गतिविधियाँ होंगी जो उनके मूल इरादे से भटक जाएंगे।
    • वे प्रस्तावना में अधिक तटस्थ और लचीले दृष्टिकोण का तर्क देते हैं।
  • सामाजिक निहितार्थ:
    • इन शब्दों की उपस्थिति या अनुपस्थिति का सार्वजनिक नीति, शासन और सामाजिक विमर्श पर प्रभाव पड़ सकता है।
    • धार्मिक विविधता वाले देश में “पंथनिरपेक्ष” शब्द विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है, और इसके हटने से धार्मिक तटस्थता के प्रति राज्य की प्रतिबद्धता को लेकर चिंताएँ बढ़ सकती हैं।

आगे की राह 

  • प्रस्तावना में इन शर्तों के निहितार्थ पर एक सुविज्ञ तथा समावेशी सार्वजनिक चर्चा को बढ़ावा दें। इसमें विभिन्न दृष्टिकोणों और चिंताओं को समझने के लिये शिक्षा जगत, नागरिक समाज, राजनीतिक दलों एवं नागरिकों को शामिल किया जाना चाहिये।
  • प्रस्तावना में “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्दों के महत्त्व, व्याख्या और ऐतिहासिक संदर्भ पर विचार-विमर्श करने के लिये संसद जैसे संवैधानिक निकायों के भीतर एक संरचित बहस की सुविधा प्रदान करें। किसी भी संभावित संशोधन के निहितार्थों का विश्लेषण करने के लिये गहन चर्चा को प्रोत्साहित करें।
  • प्रस्तावना में “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्दों के ऐतिहासिक संदर्भ, संवैधानिक दर्शन तथा कानूनी निहितार्थ का अध्ययन करने के लिये संवैधानिक विशेषज्ञों, कानूनी विद्वानों, इतिहासकारों एवं समाजशास्त्रियों की एक स्वतंत्र समिति की स्थापना करें। उनके द्वारा दिये गए निष्कर्ष बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकते हैं।

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