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क्या भारत अपने राजकोषीय संघवाद को मज़बूत कर सकता है? - श्रीनारद मीडिया

क्या भारत अपने राजकोषीय संघवाद को मज़बूत कर सकता है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय संविधान को एक ‘होल्डिंग टूगेदर फेडरेशन’ (holding together federation) के रूप में समझा जा सकता है जो एकजुटता (unity) की ओर कुछ झुकाव रखता है। यह व्यवस्था उन कारकों को संबोधित करने के लिये अपनाई गई जो स्वतंत्रता से पहले देश के लिये विखंडनकारी थे।

पिछले 73 वर्षों में यह अत्यंत सुदृढ़ और अनुकूलनीय सिद्ध हुआ है। हालाँकि, वर्तमान समय में इस पर पुनर्विचार करना आवश्यक हो गया है कि केंद्र और राज्यों के बीच धन एवं संसाधनों को किस प्रकार साझा किया जाए। ऐसा इसलिये है क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था बदल रही है और उसकी आवश्यकताएँ अब अलग हैं।

राजकोषीय संघवाद:

  • राजकोषीय संघवाद (Fiscal federalism) पद यह प्रकट करता है कि किसी देश में सरकार के विभिन्न स्तरों के बीच वित्तीय शक्तियों और उत्तरदायित्वों को कैसे विभाजित किया जाता है।
  • इसमें इस तरह के प्रश्न शामिल हैं कि केंद्र सरकार या राज्य सरकारों द्वारा कौन-से कार्य एवं सेवाएँ प्रदान की जानी चाहिये, राजस्व कैसे बढ़ाया जाना चाहिये एवं उनकी साझेदारी कैसे की जाए और दक्षता एवं समता सुनिश्चित करने के लिये हस्तांतरण या अनुदान कैसे आवंटित किया जाए।

राजकोषीय संघवाद की स्थापना के लिये प्रमुख उपाय:

  • कराधान और व्यय शक्तियों की संवैधानिक व्यवस्था: संविधान सरकार के विभिन्न स्तरों के लिये कराधान और व्यय की शक्तियों एवं कार्यों को परिभाषित करता है, जहाँ केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच स्पष्ट सीमांकन किया गया है।
  • वित्त आयोग: वित्त आयोग (Finance Commission- FC) एक संवैधानिक निकाय (अनुच्छेद 280) है जो केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच कर राजस्व के वितरण की अनुशंसा करने के लिये उत्तरदायी है। यह राज्यों के वित्तीय संसाधनों को बढ़ाने, राजकोषीय अनुशासन को बढ़ावा देने और राजकोषीय मामलों में स्थिरता सुनिश्चित करने के उपाय भी सुझाता है।
  • वस्तु एवं सेवा कर: वस्तु एवं सेवा कर (Goods and Services Tax- GST) एक व्यापक अप्रत्यक्ष कर है जो वस्तुओं और सेवाओं पर विभिन्न केंद्रीय एवं राज्य करों को प्रतिस्थापित करता है। इसका प्रशासन जीएसटी परिषद (GST Council) द्वारा किया जाता है जिसमें केंद्र और राज्य सरकारों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं।
  • सहायता अनुदान प्रणाली: सहायता अनुदान प्रणाली (Grants-in-Aid System) (अनुच्छेद 275) में विशिष्ट उद्देश्यों या योजनाओं के लिये केंद्र सरकार से राज्य सरकारों को धन का विवेकाधीन हस्तांतरण शामिल है। इन अनुदानों का उद्देश्य राज्यों के संसाधनों को पूरकता प्रदान करना और क्षेत्रीय असमानताओं एवं विकास संबंधी अंतरालों को संबोधित करना है।
  • नियोजित अर्थव्यवस्था से बाज़ार-मध्यस्थता प्रणाली की ओर संक्रमण: एक नियोजित अर्थव्यवस्था (Planned Economy) से बाज़ार-मध्यस्थ प्रणाली (Market-Mediated System) की ओर संक्रमण ने केंद्रीकृत निर्णयन से अधिक विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण की ओर आगे बढ़ने को दर्ज़ किया है जहाँ बाज़ार की शक्तियाँ अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इस परिवर्तन का संसाधन आवंटन, निवेश और समग्र आर्थिक विकास पर प्रभाव पड़ा है। इससे राज्यों को आर्थिक निर्णयन के मामले में अधिक स्वायत्तता प्राप्त हुई है।
  • 73वाँ और 74वाँ संवैधानिक संशोधन: भारत में 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से स्थानीय स्वशासी निकायों के रूप में पंचायतों और नगर निकायों की स्थापना हुई। इस विकेंद्रीकरण का उद्देश्य स्थानीय शासन को बढ़ाना, ज़मीनी स्तर के संस्थानों को सशक्त बनाना और विकास नीतियों का अधिक प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करना था।
    • हालाँकि इन संशोधनों ने राज्य सरकारों से स्थानीय निकायों को धन का पर्याप्त और पूर्वानुमानित हस्तांतरण सुनिश्चित नहीं किया है।
      • राज्य सरकारें प्रायः स्थानीय निकायों के लिये सहायता अनुदान पर रोक या विलंबन के लिये अपनी विवेकाधीन शक्ति का उपयोग करती हैं, जिससे उनकी वित्तीय स्वायत्तता और जवाबदेही प्रभावित होती है।
  • योजना आयोग को समाप्त करना और नीति आयोग की स्थापना: वर्ष 2015 में योजना आयोग को नीति आयोग (National Institution for Transforming India- NITI Aayog) से प्रतिस्थापित कर दिया गया। यह परिवर्तन टॉप-डाउन नियोजन दृष्टिकोण से अधिक सहयोगात्मक एवं लचीले नीति-निर्माण प्रक्रिया की ओर आगे बढ़ने का प्रतिनिधित्व करता है। नीति आयोग को सहकारी संघवाद (cooperative federalism) को बढ़ावा देते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को रणनीतिक एवं तकनीकी सलाह प्रदान करने की भूमिका सौंपी गई है।
    • योजना आयोग के विपरीत, नीति आयोग का केंद्र-राज्य हस्तांतरण में कोई दखल नहीं है, जो राज्यों को योजना अनुदान के साथ सुधार की ओर आगे बढ़ने के लिये प्रेरित कर सकता।
  • राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (FRBM) अधिनियम, 2003राजकोषीय घाटे को कम करने और सार्वजनिक ऋण का प्रबंधन करने के माध्यम से राजकोषीय अनुशासन सुनिश्चित करने के लिये FRBM अधिनियम पेश किया गया था। यह अधिनियम केंद्र और राज्य दोनों सरकारों पर लागू होता है, जिससे एक अधिक उत्तरदायी राजकोषीय दृष्टिकोण को बढ़ावा मिलता है। हालाँकि, इसके कार्यान्वयन से कभी-कभी राजकोषीय विवेक के साथ विकास-उन्मुख व्यय को संतुलित करने की चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं।
  • वस्तु एवं सेवा कर (GST) अधिनियम और जीएसटी परिषदवर्ष 2017 में लाया गया जीएसटी अधिनियम एक महत्त्वपूर्ण कर सुधार (tax reform) को चिह्नित करता है। इसने अप्रत्यक्ष करों के जटिल जाल को एक एकीकृत कर ढाँचे से प्रतिस्थापित किया, कारोबार सुगमता (ease of doing business) को बढ़ावा दिया और ‘टैक्स कैस्केडिंग’ (tax cascading) को कम किया। जीएसटी लागू होने से राज्यों की कर संग्रह शक्तियाँ कम हो गईं।
    • कुछ राज्यों के वित्त मंत्रियों ने आरोप लगाया है कि जीएसटी परिषद के निर्णय राजनीतिक विचारों से प्रभावित होते हैं, न कि आर्थिक तर्कसंगतता से।
      • उनकी यह भी शिकायत रही है कि उनके विचारों को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता और बहुमत से उनके विचारों को दबा दिया जाता है।
  • उपकर और अधिभार का उपयोग: विशिष्ट उद्देश्यों के लिये राजस्व जुटाने हेतु उपकर (cess) और अधिभार (surcharge) का उपयोग एक आम स्थिति बन गई है। हालाँकि, यह विभाज्य पूल (divisible pool) के आकार को प्रभावित कर सकता है, जिससे राज्यों के बीच वितरण के लिये उपलब्ध धनराशि पर असर पड़ सकता है। इससे संसाधन आवंटन और वित्तीय स्वायत्तता में असंतुलन उत्पन्न हो सकता है।
    • उदाहरण के लिये, जीएसटी क्षतिपूर्ति उपकर  (GST compensation cess) अपर्याप्त और असामयिक भुगतान के कारण प्रायः विवादों से रहा है।
  • केंद्रीय विधान: केंद्रीय विधान के कई खंड, जैसे महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम 2005 , निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 और कई अन्य अधिनियम राज्यों पर अतिरिक्त बोझ डालते हैं।
  • उभरते राजनीतिक विमर्श: भारत अब स्वातंत्र्योत्तर काल का एकदलीय शासन नहीं रह गया है। यह वास्तव में बहुदलीय व्यवस्था में परिणत हो चुका है। राजनीति की प्रकृति, समाज, प्रौद्योगिकी, जनसांख्यिकीय संरचना और विकास प्रतिमान महत्त्वपूर्ण रूप से बदल गए हैं। इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप, भारत का राजनीतिक क्षेत्र अधिक प्रतिस्पर्द्धी और गतिशील हो गया है जिससे नए वित्तीय आयाम खुले हैं।

भारत अपने राजकोषीय संघवाद को कैसे सुदृढ़ कर सकता है? 

  • समता-उन्मुख अंतर-सरकारी हस्तांतरण: केंद्र सरकार से राज्यों को आवंटित धनराशि जैसे अंतर-सरकारी हस्तांतरण को इस तरह से अभिकल्पित किया जाना चाहिये जो समता को बढ़ावा दे।
    • क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर राजकोषीय असंतुलन: क्षैतिज असंतुलन (विभिन्न राज्यों के बीच असमानताएँ) और ऊर्ध्वाधर असंतुलन (केंद्र और राज्य सरकारों के बीच), दोनों को ही संबोधित करना अत्यंत आवश्यक है। हस्तांतरण के फ़ॉर्मूले को इस प्रकार अभिकल्पित किया जाना चाहिये कि यह दोनों प्रकार के असंतुलन पर विचार करे ताकि संसाधनों का उचित आवंटन सुनिश्चित किया जा सके।
  • प्रदर्शन-आधारित अनुदान: प्रदर्शन-आधारित अनुदान (Performance-Based Grants) शुरू किये जाने चाहिये जो स्वास्थ्य और शिक्षा संकेतकों में सुधार जैसे कुछ विकासात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये राज्यों को पुरस्कृत करते हों। यह राज्यों को प्रभावी शासन और परिणामों पर ध्यान केंद्रित करने के लिये प्रोत्साहित करेगा।
  • संवैधानिक सुधार: केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों एवं उत्तरदायित्वों के विभाजन को पुनर्परिभाषित करने के लिये अनुच्छेद 246 और सातवीं अनुसूची पर पुनर्विचार करना प्रासंगिक होगा। इससे यह स्पष्ट करने में मदद मिल सकती है कि प्रत्येक स्तर पर कौन-से कार्य किये जाने चाहिये; इससे भ्रम कम होगा और दक्षता बढ़ेगी।
  • स्थानीय सरकारों को सशक्त बनाना: सरकार के इस तीसरे स्तर को पर्याप्त संसाधन, कार्य उत्तरदायित्व और स्वायत्तता प्रदान कर सशक्त बनाया जाना चाहिये। इसमेंउत्तरदायित्वों और वित्त के लिये एक स्पष्ट रूपरेखा तैयार करना शामिल हो सकता है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि स्थानीय निकायों के पास ऐसे निर्णय लेने की शक्ति है जो उनके समुदायों को प्रभावित करते हैं।
  • सार्वभौमिक वित्तीय रिपोर्टिंग प्रणाली: एक मानकीकृत वित्तीय रिपोर्टिंग प्रणाली लागू की जानी चाहिये जो सरकार के सभी स्तरों को दायरे में लेती हो। इससे पारदर्शिता, जवाबदेही और कुशल वित्तीय प्रबंधन बनाए रखने में मदद मिल सकती है।
  • ऑफ-बजट उधारी की समीक्षा करना: यह सुनिश्चित करते हुए कि सभी वित्तीय लेनदेन बजट में शामिल हैं, ऑफ-बजट उधारी (Off-Budget Borrowing) के मुद्दे को संबोधित किया जाना चाहिये। इससे राजकोषीय प्रबंधन में प्रच्छन्न देनदारियों (hidden liabilities) पर रोक लगेगी और पारदर्शिता बढ़ेगी।
  • विकास संकेतकों का अभिसरण: धन के आवंटन में प्रति व्यक्ति आय और मानव विकास सूचकांक (HDI) जैसे आर्थिक एवं सामाजिक संकेतकों के संयोजन का उपयोग किया जाना चाहिये। यह दृष्टिकोण सुनिश्चित करेगा कि राज्य न केवल आर्थिक रूप से विकसित होंगे बल्कि अपने नागरिकों के समग्र कल्याण में सुधार पर भी ध्यान केंद्रित करेंगे।
  • राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (FRBM) अधिनियम: केंद्र और राज्य दोनों सरकारों के लिये FRBM अधिनियम के प्रावधानों को संरेखित किया जाना चाहिये ताकि वे अपनी विशिष्ट राजकोषीय स्थितियों को समायोजित करते हुए राजकोषीय अनुशासन बनाए रखें।
  • कर शक्तियों का हस्तांतरण: राज्यों को कराधान पर अधिक लचीलापन और नियंत्रण प्रदान किया जाना चाहिये, जो उन्हें उनकी स्थानीय आर्थिक स्थितियों एवं प्राथमिकताओं के अनुसार राजस्व उत्पन्न करने में सक्षम बनाएगा।
  • सहकारी संघवाद: सहकारी संघवाद की भावना को बढ़ावा दिया जाए जहाँ केंद्र और राज्य सरकारें उन नीतियों के निर्माण एवं क्रियान्वयन में सहयोग करेंगी जो समग्र रूप से पूरे देश को लाभ पहुँचाएँगी।
  • नियमित समीक्षा और संवाद: राजकोषीय मुद्दों, नीतिगत चुनौतियों और राजकोषीय संघवाद ढाँचे में संभावित सुधारों पर चर्चा करने के लिये केंद्र एवं राज्य सरकारों के बीच नियमित समीक्षा और संवाद के तंत्र स्थापित किये जाने चाहिये।
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