क्या समान नागरिक संहिता पर केंद्र कुछ कर सकती हैं?

क्या समान नागरिक संहिता पर केंद्र कुछ कर सकती हैं?

कई लोकतांत्रिक देशों में समान नागरिक संहिता लागू है.

भारत में उसका विरोध क्यों ?

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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समान नागरिक संहिता का मामला एक बार फिर उठ रहा है। वैसे तो देश के सभी नागरिकों के लिए समान कानून की बात करने वाली समान नागरिक संहिता के केंद्रीय स्तर पर लागू होने की बात अभी दूर की कौड़ी नजर आती है, लेकिन इससे जुड़े पांच महत्वपूर्ण मुद्दों शादी की समान आयु, तलाक, भरण-पोषण, उत्तराधिकार, गोद लेना एवं संरक्षक पर कानूनों को सभी के लिए समान बनाने की मांग वाली पांच याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में आठ अप्रैल को सुनवाई होनी है।

केंद्र सरकार को इन मामलों में पहले ही नोटिस जारी हो चुके हैं, ऐसे में सरकार को आठ अप्रैल से पहले इन पर अपने जवाब दाखिल करने होंगे। माना जा रहा है कि सरकार इन मामलों में जल्द ही कोर्ट में जवाब दाखिल करने की तैयारी कर रही है। वैसे इनमें से कुछ मुद्दे ऐसे हैं जो लगभग हल हो चुके हैं, जैसे तत्काल तीन तलाक पर रोक लगाने का कानून आ चुका है।

लड़कियों की विवाह की आयु भी लड़कों के समान 21 वर्ष किए जाने का विधेयक सरकार संसद में पेश कर चुकी है और मामला फिलहाल स्थायी समिति के समक्ष विचाराधीन है। यह विधेयक लड़की व लड़के की विवाह की आयु एक समान 21 वर्ष करने का प्राविधान सभी धर्मों पर समान रूप से लागू करने की बात करता है।

सिर्फ गोवा में लागू है समान नागरिक संहिता

अभी देश में गोवा एकमात्र राज्य है जहां समान नागरिक संहिता लागू है। अब उत्तराखंड के नवनियुक्त मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कही है।

छह याचिकाएं दिल्ली हाई कोर्ट में लंबित

पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग वाली छह याचिकाएं दिल्ली हाई कोर्ट में लंबित हैं। हाई कोर्ट से उन पर केंद्र सरकार को नोटिस भी जारी हुआ था और केंद्र ने पिछले साल ही अपना जवाब दाखिल कर दिया था जिसमें इस पर गहनता से अध्ययन की जरूरत बताई थी। साथ ही कहा था कि यह मामला विधायिका के विचार करने का है, इस पर कोर्ट को आदेश नहीं देना चाहिए।

साथ ही मामला विधि आयोग को भेजे जाने का भी हवाला दिया गया था। दिल्ली हाई कोर्ट में लंबित इन याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट में स्थानांतरित करने की मांग की गई है। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में पांच स्थानांतरण याचिकाएं दाखिल हो चुकी हैं हालांकि उन पर अभी सुनवाई का नंबर नहीं आया है।

रिजिजू कह चुके हैं, समय सीमा का निर्धारण संभव नहीं

केंद्रीय कानून मंत्री किरन रिजिजू ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में कहा है कि मामले की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए इसमें किसी निश्चित समय सीमा का निर्धारण संभव नहीं होगा। यानी बात साफ है कि केंद्रीय स्तर पर समान नागरिक संहिता अभी दूर की कौड़ी है।

राज्यों के कानून बनाने पर विशेषज्ञों में मत भिन्नता

सवाल उठता है कि क्या राज्य सरकार समान नागरिक संहिता पर कानून बना सकती है। इस पर विशेषज्ञों में मत भिन्नता है। लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचारी कहते हैं कि समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक, उत्तराधिकार आदि कानून आते हैं और ये विषय संविधान की समवर्ती सूची में आते हैं इसलिए इसमें केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं। पूर्व विधि सचिव पीके मल्होत्रा कहते हैं कि वैसे तो इसमें कोई नुकसान नहीं है, पर्सनल ला को लेकर राज्य अपने-अपने कानून बनाते रहे हैं और जरूरत के हिसाब से केंद्रीय कानून में संशोधन भी करते रहे हैं।

समवर्ती सूची का विषय है तो वे ऐसा कर सकते हैं, लेकिन पर्सनल ला का एडमिनिस्ट्रेशन केंद्रीय कानून मंत्रालय के तहत आता है। जहां तक समान नागरिक संहिता की बात है तो इसके लिए संविधान के अनुच्छेद-44 में प्रविधान है जो पूरे देश के लिए समान नागरिक संहिता की बात करता है। यह राज्य की बात नहीं करता। ऐसे में अगर समान नागरिक संहिता की बात की जाती है तो वह संविधान के मुताबिक होनी चाहिए। यानी कुछ राज्य भले ही कदम उठाएं, लेकिन आखिरकार केंद्र को ही फैसला लेना पड़ेगा।

सभी मत-मजहब वालों के लिए तलाक, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार, विवाह की आयु, बच्चों को गोद लेने और विरासत संबंधी नियम एकसमान बनाने की मांग वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि इन सभी मामलों में एक जैसे नियम बन जाते हैं तो समान नागरिक संहिता का उद्देश्य पूरा हो जाएगा।

होना तो यह चाहिए था कि अभी तक इस उद्देश्य को हासिल कर लिया जाता, क्योंकि संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में साफ तौर पर कहा गया है कि राज्य समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में आगे बढ़ेगा। यदि ऐसा नहीं हो सका तो कुछ दलों के नकारात्मक रवैये, अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की राजनीति और इस दुष्प्रचार के कारण कि इससे विभिन्न समुदायों के रीति-रिवाजों में अनावश्यक हस्तक्षेप होगा।

दुर्भाग्य से यह दुष्प्रचार अभी भी जारी है। यह इसके बाद भी जारी है कि सर्वोच्च न्यायालय के साथ-साथ विभिन्न उच्च न्यायालय समय-समय पर समान नागरिक संहिता की आवश्यकता रेखांकित कर चुके हैं। तथ्य यह भी है कि गोवा में समान नागरिक संहिता पहले से ही लागू है और वहां सभी समुदायों के लोग रहते हैं। आखिर जो व्यवस्था गोवा में बिना किसी बाधा के लागू है, वह शेष देश में क्यों नहीं लागू हो सकती? प्रश्न यह भी है कि जब अन्य कई लोकतांत्रिक देशों में समान नागरिक संहिता लागू है तो भारत में उसका विरोध क्यों होता है?

यह प्रश्न अनुत्तरित है तो इसीलिए कि अभी तक किसी सरकार ने समान नागरिक संहिता का मसौदा तक तैयार करने की जहमत नहीं उठाई। कम से कम अब तो यह काम होना ही चाहिए, ताकि उस पर व्यापक विचार-विमर्श हो सके। यह हास्यास्पद है कि एक ओर संविधान की दुहाई देकर यह कहा जाता है कि कानून की नजर में सब बराबर हैं और दूसरी ओर भिन्न-भिन्न समुदायों के लिए विवाह विच्छेद, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार आदि से संबंधित नियम अलग-अलग बने हुए हैं।

समान नागरिक संहिता के अभाव के चलते ही विभिन्न समुदायों के लोगों में आपसी एकता का वह भाव देखने को नहीं मिलता, जो आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है। यह समझने की जरूरत है कि समान नागरिक संहिता का निर्माण देश की जनता को जोड़ने के साथ उनमें यह भाव जगाने का भी काम करेगा कि वे सब एक ही कानून से बंधे हुए हैं।

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