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क्या बेटियों को आज भी समान अवसर नहीं मिलते हैं? - श्रीनारद मीडिया

क्या बेटियों को आज भी समान अवसर नहीं मिलते हैं?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

मीराबाई चानू ने देश को बेटियों पर गर्व करने के लिए एक और वजह दी है. दुनिया के किसी भी खिलाड़ी के लिए ओलिंपिक में महज हिस्सा लेना ही बड़ी बात होती है. पदक जीतना तो किसी सपने के सच होने की तरह होता है. ओलिंपिक खेलों में वेटलिफ्टिंग में मीराबाई चानू ने रजत पदक जीता है. भारोत्तोलन स्पर्धा में भारत को 21 वर्षों बाद कोई पदक मिला है. मीराबाई भारोत्तोलन में पदक जीतनेवाली भारत की दूसरी महिला हैं.

इससे पहले 2000 के सिडनी ओलिंपिक में कर्णम मल्लेश्वरी ने कांस्य पदक जीता था. मीराबाई ने अपनी जीत के बाद कहा है कि उनके लिए यह एक सपने के सच होने की तरह है. वह इस पदक को अपने देश को समर्पित करती हैं. करोड़ों भारतीयों ने मेरे लिए दुआएं मांगीं और मेरे सफर में साथ रहे, इसके लिए वह आभारी हैं. उन्होंने कहा कि उनका पदक महिलाओं को भारोत्तोलन में प्रवेश करने के लिए प्रोत्साहित करेगा.

वह सब से कहना चाहती हैं कि लड़कियों को खेलों में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित करें. उन्होंने अपने परिवार ,खास कर मां के प्रति आभार जताया, जिन्होंने उनके लिए बहुत त्याग किया. मीराबाई चानू के पदक जीतने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि तोक्यो ओलिंपिक में इससे सुखद शुरुआत नहीं हो सकती थी. देश मीराबाई चानू के शानदार प्रदर्शन से उत्साहित है. उनकी सफलता हर भारतीय को प्रेरित करेगी. मीराबाई मणिपुर के एक बहुत मामूली परिवार से आती हैं. वेटलिफ्टिंग ताकत का खेल है.

इसमें बहुत पौष्टिक आहार चाहिए. शुरुआत में उनका जीवन बहुत संघर्षपूर्ण रहा. उनके बड़े भाई ने मीडिया को बताया कि मीराबाई और वह पास की पहाड़ियों से खाना बनाने के लिए लकड़ियां बटोर कर लाते थे. एक दिन वह अस्वस्थ होने के कारण लकड़ी नहीं उठा सके, तो मीराबाई लकड़ियों का बंडल उठा कर लायी, जबकि तब वह काफी छोटी थी. मीराबाई के घर से प्रशिक्षण केंद्र लगभग 25 किलोमीटर दूर था. भाइयों की मदद से वह नियमित रूप से रोजाना प्रशिक्षण के लिए जाती थीं, लेकिन 18 साल की उम्र में मीराबाई चानू ने एशियाई जूनियर चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीता.

उसके बाद तो उन्होंने पदकों की झड़ी लगा दी. उन्होंने 2013 की जूनियर राष्ट्रीय वेटलिफ्टिंग चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीता. साल 2014 में हुए राष्ट्रमंडल खेल में रजत पदक जीता. वर्ष 2016 के रियो ओलिंपिक में मीराबाई चानू को सही तरीके से वेट न उठा पाने के कारण अयोग्य करार दे दिया गया था. यह उनके या किसी भी खिलाड़ी के लिए बड़ा झटका होता, लेकिन वह पूरे दमखम से डटी रहीं और उन्होंने 2018 के राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीत कर शानदार वापसी की.

महिला हॉकी टीम में झारखंड की भी दो बेटियां- डिफेंडर निक्की प्रधान और मिडफील्डर सलीमा टेटे- खेल रही हैं. निक्की और सलीमा भी काफी संघर्ष के बाद टीम में जगह बना पायी हैं. निक्की प्रधान का जन्म रांची से लगभग 60 किलोमीटर दूर आदिवासी बहुल जिले खूंटी के हेसल गांव में हुआ. उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि कोई बहुत मजबूत नहीं है, लेकिन अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर उन्होंने भारतीय हॉकी टीम में जगह बनायी. सलीमा टेटे सिमडेगा जिले की हैं.

उनका सफर भी आसान नहीं रहा है. इसी तरह मेरठ की प्रियंका गोस्वामी भी पैदल चाल में पदक जीतने के लिए प्रयासरत हैं. उन्होंने रांची में रेस वॉक चैंपियनशिप में राष्ट्रीय रिकॉर्ड के साथ स्वर्ण पदक जीता था. प्रियंका के पिता यूपी रोडवेज में परिचालक थे, लेकिन किन्हीं कारणों से उनकी नौकरी चली गयी और मुश्किलों का दौर शुरू हो गया. मीडिया ने उनके परिवार से जो बातचीत की, उसके अनुसार लंबे समय तक प्रियंका एक समय का खाना गुरुद्वारे के लंगर में खाती थीं.

साल 2011 में पहला पदक जीतने के बाद परिस्थितियां बदलीं. प्रियंका ने पटियाला से स्नातक किया. साल 2018 में खेल कोटे से उन्हें रेलवे में नौकरी मिली, तब जाकर उनकी जिंदगी पटरी पर आयी. पंजाब के लुधियाना जिले के एक गांव से निकली मुक्केबाज सिमरनजीत कौर भी तोक्यो ओलिंपिक में हिस्सा ले रही हैं. सिमरन कौर गांव के एक साधारण परिवार से हैं. उनकी मां जीविकोपार्जन के लिए छोटे-मोटे काम करती थीं और पिता मामूली नौकरी करते थे.

अब तक धारणा यह रही है कि खेलों में सुविधाओं के कारण समृद्ध देशों के खिलाड़ियों का प्रदर्शन बेहतर रहता है. ये देश अपने खिलाड़ियों पर बड़ी धनराशि खर्च करते हैं. कोई भी अंतरराष्ट्रीय खेल स्पर्धा हो, वहां अमेरिका और पश्चिमी देशों का दबदबा देखने को मिलता है, लेकिन इसके उलट हमारे देश में गांव-देहात से निकले कमजोर पृष्ठभूमि के खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं.

अगर आपको याद हो, तो 2018 के इंडोनेशिया में आयोजित एशियाई खेलों में भारत ने ऐतिहासिक प्रदर्शन कर 69 पदक जीता था. एशियाई खेलों के इतिहास में भारत के इस सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन में छोटे स्थानों से आये खिलाड़ियों, खासकर महिला खिलाड़ियों का बड़ा योगदान था. महिलाओं ने एथलेटिक्स, स्क्वॉश, शूटिंग समेत कई खेलों में पदक जीते थे.

पिछले कुछ समय में शिक्षा से लेकर खेलकूद और विभिन्न प्रतिष्ठित प्रतियोगी परीक्षाओं में बेटियों ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है. वे जिंदगी के सभी क्षेत्रों में सक्रिय हैं, लेकिन अब भी समाज में महिलाओं के काम का सही मूल्यांकन नहीं किया जाता है. घर को सुचारू रूप से संचालित करने में उनकी दक्षता अक्सर अनदेखी कर दी जाती है. आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी के मामले में तो भारत अन्य देशों के मुकाबले बहुत पीछे है. हर क्षेत्र में महिलाएं सक्रिय तो हैं, लेकिन उनकी भागीदारी पुरुषों के मुकाबले बेहद कम है.

वजह स्पष्ट है कि उन्हें समान अवसर नहीं मिलते हैं. भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, देश के कुल श्रम बल में महिलाओं की हिस्सेदारी 25.5 फीसदी और पुरुषों का हिस्सेदारी 53.26 फीसदी है. कुल कामकाजी महिलाओं में से लगभग 63 फीसदी खेती-बाड़ी के काम में लगी हैं. जब करियर बनाने का समय आता है, उस समय अधिकतर लड़कियों की शादी हो जाती है.

विश्व बैंक के आकलन के अनुसार, भारत में महिलाओं की नौकरियां छोड़ने की दर बहुत अधिक है. यह पाया गया है कि एक बार किसी महिला ने नौकरी छोड़ी, तो ज्यादातर दोबारा नौकरी पर वापस नहीं लौटती है. दरअसल, समस्या यह है कि हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है, जिसमें बेटी को कमतर माना जाता है. यह सही है कि परिस्थितियों में परिवर्तन आया है, लेकिन अभी और बदलाव की जरूरत है.

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