क्या हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की जरूरत है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

राजभाषा दिवस अब एक औपचारिकता बनकर रह गया है. अभी आवश्यकता यह है कि हिंदी को हम राष्ट्रभाषा के रूप में प्रयोग में ले आएं. इसके लिए शासन प्रणाली, न्याय व्यवस्था तथा उच्च शिक्षा में इसे अपनाया जाए. साल 1947 से पहले हिंदी को लेकर जो प्रेरणा और उत्साह का माहौल था, वह आज नहीं है. इसके लिए किसी एक शासन या एक पक्ष को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है. इससे बात नहीं बनेगी. हमारी मानसिकता पर अभी भी औपनिवेशिक प्रभाव की छाप है. यह हिंदी की राह में सबसे बड़ी बाधा है.

स्वतंत्रता से पहले हमारे मन में एक संकल्प था कि स्वतंत्र देश में हम अपने दायित्वों को निभायेंगे. हमारे सामने प्राथमिकताओं की एक सूची थी. आप कल्पना करें, 1918 में जब महात्मा गांधी को हिंदी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष बनाया गया, तो उन्होंने सबसे पहला काम यह किया कि अपने बेटे देवदास गांधी, जो बाद में हिंदुस्तान टाइम्स के प्रसिद्ध पत्रकार और संपादक हुए, को दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए चेन्नई (तब मद्रास) भेजा. उनका बड़ा सम्मान भी था और गांधी जी को अपने बेटों में सबसे अधिक लगाव उन्हीं से था.

गांधी जी ने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को पत्र भी लिखा कि देवदास गांधी के ठहरने की व्यवस्था कर दी जाए. देवदास गांधी उन्हीं के घर पर ठहरे थे. उन्होंने एक संस्था भी बनायी, जो आज मृतप्राय है. जब महात्मा गांधी ने दूसरी बार सम्मेलन की अध्यक्षता संभाली, तो उन्होंने महाराष्ट्र, गुजरात और पूर्वोत्तर में हिंदी प्रसार के लिए प्रयास किया. आज इस तरह का काम कौन कर रहा है?

राजभाषा विभाग ने बरसों से जगह-जगह अनुवादकों को पदाधिकारी के रूप में तैनात किया है. लेकिन क्या राजभाषा विभाग, प्रकाशन विभाग, राष्ट्रीय पुस्तक ट्रस्ट आदि संस्थाओं से अच्छी पुस्तकें पठनीय भाषा में प्रकाशित हो रही हैं? इसका उत्तर भी नकारात्मक है. यह भी एक चिंताजनक स्थिति है कि आज हिंदी के एक-दो अखबारों को छोड़ दें, तो शेष सभी सिंडिकेटेड और विदेशी लेखों को प्रकाशित कर रहे हैं.

वही एक-दो अखबार हैं, जो ऐसे लेखों को न छापकर अपनी प्रतिभाओं को प्रोत्साहन दे रहे हैं और संपादकीय पन्ने पर उनके लेख प्रकाशित कर रहे हैं. यह एक चलन बन गया है कि आप विदेशी लेखकों को छापें, तो आप बड़े अखबार माने जायेंगे. ऐसी स्थिति में हमारी प्रतिभाओं को कब और कहां स्थान मिलेगा? वही हाल हिंदी का उच्च शिक्षा में है.

जब मैं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ता था, तो गणित के हमारे शिक्षक और विभागाध्यक्ष डॉ ब्रजमोहन आर्ट्स फैकल्टी के प्रिंसिपल भी होते थे. वे गणित की कक्षाएं हिंदी में पढ़ाते थे. उनकी कक्षाओं में छात्रों की भीड़ उमड़ती थी, जिनमें दूसरी कक्षाओं के लड़के भी होते थे. वैसा कोई दूसरा उदाहरण मुझे नहीं दिखता. विज्ञान और गणित की शिक्षा आज देश में हिंदी में कहां दी जा रही है? आज आवश्यकता है कि विज्ञान, गणित, संस्कृत, वेद, उपनिषद आदि हिंदी में पढ़ाये जाएं.

मैं देखता हूं कि सरकारी संस्थाओं में जो काम हो रहे हैं, वे मूल रूप से अंग्रेजी में हो रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि हिंदी कुछ क्षेत्रों में बढ़ी है. आज हिंदी के बड़े-बड़े अखबार हैं, जो करोड़ों की संख्या में छापे जा रहे हैं तथा उनके पाठकों की संख्या भी करोड़ों में है. सिनेमा और मनोरंजन के अन्य क्षेत्रों में हिंदी का उल्लेखनीय विस्तार हुआ है, यह भी सही है. लेकिन आज भी सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों में हिंदी के लिए जगह कहां है?

सो, मूल प्रश्न मानसिकता का है. रबींद्रनाथ टैगोर ने ‘गीतांजली’ बांग्ला भाषा में लिखी थी और बाद में उसका अनुवाद अंग्रेजी में हुआ था. एक बार लंदन में वे अपनी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद का पाठ कर रहे थे, तो एक व्यक्ति ने किसी पंक्ति पर उन्हें टोका कि इसमें वह भाव अभिव्यक्त नहीं हो पा रहा है, जो मूल बांग्ला में है. टैगोर ने उस व्यक्ति की आपत्ति से सहमति जतायी थी. सो, जो भाषा का प्रश्न है, वह मात्र भाषा का प्रश्न नहीं है, वह राजनीति, संस्कृति, समाज और देश के भविष्य का प्रश्न है. इस दृष्टि से देखें, तो हमें अपने-आप से यह प्रश्न पूछना पड़ेगा कि क्या हम सचमुच हिंदी को वह स्थान दे रहे हैं, जो उसे मिलना चाहिए.

जवाहरलाल नेहरू के कारण हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी. इस मुद्दे पर मत-विभाजन हुआ था. सरदार पटेल ने हिंदुस्तानी का प्रस्ताव रखा था. देश के विभाजन के बाद कांग्रेस पार्टी ने अगर एक बात सरदार पटेल की नहीं मानी, तो वह यही मामला था. जब मत-विभाजन हुआ, तो उसमें हिंदी को जीत मिली. जिस हिंदी को संविधान ने अपनाया, जिस हिंदी को हम अपने अतीत से जोड़ते हैं, उसके फलने-फूलने के लिए समुचित प्रयास नहीं हुए.

मेरे विचार से हिंदी भाषी क्षेत्रों के लोग ही हिंदी के साथ अन्याय कर रहे हैं. अगर सर्वेक्षण हो कि विभिन्न क्षेत्रों में शीर्ष पर आसीन लोगों के बच्चे कहां शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, तो स्थिति स्पष्ट हो जायेगी. जब उनके बच्चे सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ेंगे, पहली कक्षा से पहले ही उन्हें अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा दी जायेगी, तो सोचने की शुरुआत तो अंग्रेजी से होगी. यही हो रहा है. कई पीढ़ी हम पीछे चले गये हैं.

जहां तक हिंदी के भविष्य का मामला है, तो मैं यह कहूंगा कि हमारे देश में पुनर्जागरण की एक चेतना धीरे धीरे पैदा हो रही है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जो प्रावधान किये गये हैं, उसके लागू होने के बाद हमें परिणाम दिखने लगेंगे. इस नीति में बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन यह किया गया है कि अब प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में प्रदान की जायेगी. यही विचार स्वाधीनता आंदोलन में महात्मा गांधी का भी था. इसके वैज्ञानिक कारण हैं.

चीन ने अगर विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैंकिंग में उल्लेखनीय जगह बनायी है, उसकी वजह यही है कि चीन ने अपनी भाषा को शिक्षा का, विज्ञान का, नवोन्मेष का तथा तकनीक का माध्यम बनाया है. चाहे जो भी कारण रहे हों, हम इस मामले में चूक गये हैं. राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लागू होने के साथ जो सिलसिला शुरू होगा, उसको लेकर हमें आशान्वित रहना चाहिए.

दूसरी बात यह है कि जब किसी स्थिति की अति हो जाती है, तो उसके बाद चेतना पैदा होगी और लोग अपने उत्तरदायित्व को समझेंगे. स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है. इसके अंतर्गत कई तरह के कार्यक्रम आयोजित होंगे. ऐसे में एक सकारात्मक और प्रेरणादायक वातावरण भी बनेगा, जिसमें अपनी भाषा की उन्नति के लिए प्रयास होंगे. भविष्य को लेकर हमें आशावान रहना चाहिए.

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