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Exclusive: शहर का छोटा होना नहीं सपनों का बड़ा होना मायने रखता है - गीतांजलि अरन - श्रीनारद मीडिया

Exclusive: शहर का छोटा होना नहीं सपनों का बड़ा होना मायने रखता है – गीतांजलि अरन

Exclusive: शहर का छोटा होना नहीं सपनों का बड़ा होना मायने रखता है - गीतांजलि अरन


निर्देशिका और लेखिका गीतांजलि अरन की फ़िल्म कर्मा मीट्स किस्मत जल्द ही रिलीज होने जा रही है. इस फ़िल्म में गीतांजलि को संजय मिश्रा, फरीदा जलाल और अलका अमीन जैसे समर्थ कलाकारों का साथ मिला है. जिसे वह बहुत खास करार देती हैं. मूल रूप से पटना की रहने वाली गीतांजलि अरन की अब तक की जर्नी और उनकी इस फ़िल्म पर उर्मिला कोरी के साथ हुई बातचीत के प्रमुख अंश.

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फिल्मों से जुड़ाव कैसे हुआ?

मेरे दादाजी एस एस सिन्हा वे इनकम टैक्स विभाग में बहुत ही सीनियर लेवल पर थे. बाद में वे इनकम टैक्स कमिशनर भी बने. मुंबई में भी उनकी पोस्टिंग थी, जिस वजह से वह हिंदी सिनेमा के कई प्रसिद्ध चेहरों से उनकी खास दोस्ती थी. राज कपूर, मोहम्मद रफ़ी, राजेंद्र कुमार इन सबसे उनकी बहुत खास दोस्ती थी. ये 70 के आसपास क़ी बात है. आशा दादी तो उनको राखी बांधती थी. हमलोग उनको चिट्ठीयां लिखा करते थे. इस तरह की कई कहानियों को सुनते हुए मेरा बचपन बीता है. जिससे बॉलीवुड से मेरा खास जुड़ाव हो गया.

क्या आप भी मुंबई में पली बढ़ी हैं?

नहीं, मैं पटना में पली बढ़ी हूं. लंदन में सात सालों तक थी, फिर पटना आ गयी. मेरे पिता सच्चिदानंद सिन्हा पटना के प्रसिद्ध इएनटी सर्जन है. मेरी पढ़ाई पटना से ही हुई है. बचपन में दादाजी से बॉलीवुड की कहानियों को सुनते – सुनते मेरे अंदर भी कहानी का एक लगाव हो गया. जिस वजह से मैंने पटना यूनिवर्सिटी से मास मीडिया किया. इसमें मैंने फ़िल्म स्टडीज को बहुत बारीकी से पढ़ा. मैंने यूनिवर्सिटी टॉप किया था. हिंदी सिनेमा को जानने के बाद विदेशी फिल्मों को जानने के लिए मैंने लंदन में न्यूयॉर्क फ़िल्म अकादमी से डिप्लोमा कोर्स किया. उसके बाद फ़िल्म मेकिंग, स्क्रीनप्ले राइटिंग का भी कोर्स किया. भारत आकर मैंने सुभाष घई के व्हिस्टलिंग वूड्स से भी फ़िल्ममेकिंग का कोर्स किया. जिसके बाद मैंने तय किया कि ट्रेनिंग बहुत हो गयी. अब काम करने का समय आ गया और वहां से मेरी पहली फ़िल्म को बनाने की जर्नी शुरू हुई. मेरी पहली फ़िल्म ये खुला आसमान थी. इस फ़िल्म में रघुबीर यादव थे और यह फ़िल्म 2012 में रिलीज हुई थी.

2012 के बाद दूसरी फ़िल्म में इतना समय कैसे लग गया?

दरअसल पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से मुझे फ़िल्म मेकिंग से ब्रेक लेना पड़ा. अपने बच्चों की वजह से मैंने ये ब्रेक लिया. इसका मुझे थोड़ा भी अफ़सोस नहीं है,क्योंकि मैं जानती थी कि आगे जाकर मुझे फ़िल्म तो बनाना है. वैसे इन सालों में लेकिन मैं फिल्मों से जुडी रही मैंने खुद को अपडेट रखते हुए सीखना जारी रखा. मैंने क्लासेज भी शुरू किया था, जिसमें मैं बच्चों को फ़िल्ममेकिंग सीखाती थी. इन सालों में अपनी फ़िल्म किस्मत मेट कर्मा की कहानी लिखी.

यह फ़िल्म थिएटर में रिलीज होंगी या ओटीटी पर?

फिलहाल फ़िल्म का पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है. इसमें तीन महीने जाएंगे. पोस्ट प्रोडक्शन के बाद ही तय कर पाएंगे कि फ़िल्म थिएटर में रिलीज होंगी या ओटीटी पर.

अक्सर कहा जाता है कि छोटे शहर के लोगों का संघर्ष बड़ा होता है?

मुश्किलें हर किसी की जर्नी में आती हैं. आप कितने स्ट्रांग है. इस पर आपकी जर्नी निर्भर करती है. वैसे मुझे लगता है कि कोई शहर छोटा नहीं होता है. आपके सपने बड़े होने चाहिए और उसे पाने की जिद बड़ी होनी.

आपके पिता सच्चिदानंद सिन्हा डॉक्टर है, इंडस्ट्री में आपके कैरियर को लेकर वह कितने सपोर्टिंव रहे हैँ?

उन्होने हमेशा मेरा सपोर्ट किया है. मेरे पापा बहुत ही पढ़े लिखें है. बहुत ही जानकार इंसान है. उनको पता है कि लेखक बनना फ़िल्में बनाना आसान नहीं होता है. सिनेमा समाज में बदलाव ला सकता है. सच कहूं, तो वह मुझ पर गर्व करते है.

आपके आनेवाले प्रोजेक्ट्स?

दो फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिख रही हूं. एक यहां की कहानी है और दूसरी किंगडम ऑफ़ साउथ अरेबिया के लिए एक प्रोजेक्ट डेवलप कर रही हूं. वहां के लेखक के साथ मिलकर.



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