Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the newsmatic domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/imagequo/domains/shrinaradmedia.com/public_html/wp-includes/functions.php on line 6121
डर पलायन की वजह भी बनता है,कैसे? - श्रीनारद मीडिया

डर पलायन की वजह भी बनता है,कैसे?

डर पलायन की वजह भी बनता है,कैसे?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

दो साल पहले हुए जम्मू-कश्मीर से संबंधित संवैधानिक बदलावों के बाद से आतंकी गिरोहों ने ऐसी वारदातें करने की धमकी दी थी. तब से घाटी में कुछ नये गिरोह भी सक्रिय हुए हैं. उस समय भी बाहरी मजदूरों पर हमले की कुछ घटनाएं हुई थीं. साल 2019 के पहले भी ऐसे हमले होते रहे हैं. कामगारों के अलावा हिंदू और सिख अल्पसंख्यकों को भी आतंकी निशाना बनाते रहे हैं.

ऐसी घटनाओं से लोगों में खौफ फैलना बिल्कुल स्वाभाविक है क्योंकि ऐसे मामलों में किसी ने न कोई चेतावनी दी है और न ही आपको पता है कि आपने कोई ऐसा काम किया है कि कोई आपको निशाना बनाये. मजदूरों में से कोई सड़क बना रहा है, किसी के घर की मरम्मत कर रहा है, लकड़ी का काम कर रहा है, कोई ठेला-रेहड़ी लगा कर कुछ बेच रहा है, ऐसे लोगों का राजनीति से कुछ भी लेना-देना नहीं है. वे वहां जाकर अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं. अचानक अगर इन्हें बाहर या घर में मारने का सिलसिला चलने लगे, तो डर का माहौल बनना लाजिमी है. यह डर पलायन की वजह भी बनता है.

हमें ध्यान देना चाहिए कि इन घटनाओं में मारे गये लोग आसान निशाना हैं. इनके पास न तो हथियार हैं और न ही कोई सुरक्षा कवच है. इन्हें मार देना कोई बहादुरी का काम नहीं है. मारनेवालों के बारे में अभी अटकलें ही लग रही हैं, पर ऐसा लगता है कि ये आतंकी लड़के कश्मीरी हैं और शायद इन्हें सरहद पार से नियंत्रित किया जा रहा है. बीते दिनों की घटनाओं की जिम्मेदारी लेनेवाले या संदिग्ध गिरोहों के नाम भले इस्लामिक न हों, लेकिन वे इस्लामिक कट्टरपंथी गुट ही हैं.

ऐसा माना जा रहा है कि ये गुट लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और अन्य पाकिस्तानी गिरोहों से ही संबद्ध हैं. ऐसे आतंकियों को अधिक प्रशिक्षण की जरूरत नहीं होती है. देखा गया है कि अब जो छोटे-छोटे हथियार कश्मीर में आ रहे हैं, वे ड्रोनों के जरिये गिराये गये हैं. कई ऐसे ड्रोनों के बारे में भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को जानकारी है, पर मुझे लगता है कि बहुत से ड्रोन हमारी नजर में नहीं आ पाये हैं. अब अगर किसी ऐसे व्यक्ति को पिस्तौल मिल जाए, जिसके िसर पर खून सवार हो और उसे थोड़ा-बहुत हथियार चलाना भी आता हो, तो वह हत्याएं करेगा क्योंकि उसे लगता है कि यह उसका मजहबी काम है. ऐसी मानसिकता है घाटी में.

साल 2013-14 के आसपास हमने देखा था कि जो लड़के आतंकी गिरोहों में शामिल होते थे, वे सोशल मीडिया पर खुल कर अपने इरादों की घोषणा करते थे. वे दिखाना चाहते थे कि वे बड़े मुजाहिद हैं. फिर वे सुरक्षा एजेंसियों की नजर में आ जाते थे और देर-सबेर मारे जाते थे. पहले ऐसे लड़के घर छोड़ कर लापता हो जाते थे. पिछले एक-डेढ़ साल से यह रुझान बदला है. अब शायद ऐसे दहशतगर्द लड़के अपने परिवारों के साथ ही रहते हैं और समाज में घुले-मिले हैं. इस स्थिति में इनको खोजना-पकड़ना पेचीदा हो जाता है और सुरक्षा एजेंसियों की चुनौती बढ़ जाती है.

दूसरी समस्या यह है कि जब 2019 के बाद से धमकियां आयीं, तब कुछ अधिक सतर्क हो जाना चाहिए था कि आतंकियों की रणनीति बदल सकती है. ऐसे हमलों के लिए बड़े पैमाने पर हथियार भेजने, ट्रेनिंग देने और घुसपैठ कराने की भी जरूरत नहीं है. लेकिन इससे खौफ बहुत ज्यादा फैलता है. यदि किसी फौजी ठिकाने पर आत्मघाती हमला होता है या झड़प होती है, तो उससे डर का वातावरण नहीं बनता है.

भय तो तब पसरता है कि किसी को सरे-राह गोली मार दी जाए और मरनेवाले को पता भी नहीं हो कि उसे क्यों मारा जा रहा है. इन घटनाओं से पता चलता है कि यह सब सोची-समझी योजना के तहत हो रहा है. हालांकि घाटी में हथियार पहले से ही बड़ी मात्रा में हैं, पर ड्रोन, सुरंगों आदि के सहारे जो खेप आ रही है, उसे रोकना एक मुख्य चुनौती है.

पहले से ही हमारी खुफिया व्यवस्था को काम शुरू कर देना चाहिए था. इंटरनेट और सोशल मीडिया को बंद करने से बेहतर यह है कि उस पर निगरानी रखी जाए कि युवाओं में किस तरह के रुझान हैं और किन लोगों व विचारों के संपर्क में हैं तथा वे किस तरह की बातें कर रहे हैं. ऐसी पाबंदियों की जरूरत भी है, लेकिन उसे लंबे समय तक नहीं रोका जाना चाहिए. जो घटनाएं आज हो रही हैं, उनकी तुलना नब्बे के दशक से नहीं की जानी चाहिए. बीते तीन दशकों में कई बार आज जैसी वारदातें हो चुकी हैं.

सुरक्षा एजेंसियां कभी जल्दी, तो कभी कुछ देरी से सुराग निकाल ही लेती हैं और आतंकियों को खत्म भी कर देती हैं. सबसे अधिक चिंता की जो बात है, उस पर अधिक चर्चा नहीं की जा रही है. जम्मू क्षेत्र में राजौरी और पंुछ में जो झड़पें हुई हैं, जिनमें नौ सुरक्षाकर्मी शहीद हुए हैं, वह मेरी नजर में ज्यादा खतरनाक है. ऐसा लगता है कि इन झड़पों में शामिल आतंकी अधिक प्रशिक्षित हैं और उनमें पाकिस्तानी सैनिकों के शामिल होने का भी अंदेशा है. यह ध्यान देना होगा कि क्या यह एक नया रुझान है. इस संबंध में अधिक जानकारी मिलने पर ही कुछ कहा जा सकेगा.

आंतरिक सुरक्षा के लिहाज से हमारे सामने ये चुनौतियां हैं. जहां तक कूटनीतिक पहलों का सवाल है, तो हमारे पास उम्मीद करने के लिए बहुत कुछ नहीं है. पश्चिमी या अन्य देशों से आशा नहीं करनी चाहिए कि वे पाकिस्तान पर बहुत अधिक दबाव बनायेंगे कि वह अपनी हरकतों से बाज आये. लेकिन हमें अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने वास्तविकताओं को रखने का सिलसिला भी जारी रखना चाहिए. बीते दशकों के अनुभव यही बताते हैं कि कूटनीतिक पहलों का बहुत अधिक असर नहीं पड़ा है, चाहे वह कश्मीर को लेकर हो या अफगानिस्तान का मसला हो.

चेतावनी और बयान बेअसर ही साबित हुए हैं. इस स्थिति में हमें अन्य सुरक्षा विकल्पों की ओर देखना होगा कि पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब दिया जाए. हम सर्जिकल स्ट्राइक जैसे उपाय फिर आजमा सकते हैं. पिछली कार्रवाई के बाद कुछ महीनों तक शांति रही थी. बालाकोट का अनुभव भी हमारे पास है. युद्धविराम समझौते को लेकर भी पुनर्विचार हो सकता है. लेकिन इन उपायों के गंभीर आयाम भी हैं, उनका भी ध्यान रखा जाना चाहिए. फिलहाल तो यही लगता है कि निर्दोष अल्पसंख्यकों और कामगारों को निशाना बनाने की घटनाएं आगे भी होती रहेंगी.

Leave a Reply

error: Content is protected !!