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हिंदी को शिखर पर पहुंचाने वाले विदेशी विद्वान. - श्रीनारद मीडिया

हिंदी को शिखर पर पहुंचाने वाले विदेशी विद्वान.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत से बाहर विदेशी मूल का एक वर्ग ऐसा था, जो ज्ञान-पिपासु था। उसे विधित ज्ञात हो चुका था कि भारत की अध्यात्म, भूगोल, इतिहास, समाज, अर्थ, साहित्य, संस्कृति, कलाआदि अतीव समृद्ध हंै, जिन्हेंं समझने के लिए ‘हिंदी’ की समझ विकसित करनी होगी। उन प्रबुद्धजन का उद्देश्य था कि वे अपने-अपने देश से भारत आकर यहां के निवासियों के साथ संवाद स्थापित कर, यहां की आध्यात्मिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक आदि गतिविधियों का बोधकर सकें। अंगे्रजों के अतिरिक्त पुर्तगालियों, डचों तथा फ्रांसीसियों ने अन्य भारतीय भाषाएं-बांग्ला, गुजराती, मराठी आदि भी सीखी थीं। अंग्रेजों ने आरंभ में जिस मिली-जुली भाषा (हिंदी-अरबी-फारसी) के साथ हिंदी सीखी थी वह ‘हिन्दुस्तानी’ थी, जिसके समर्थक महात्मा गांधी थे।

यूरोपीय देशों से जो अभारतीय भारत आए थे, उन्हें भारत के वातावरण से परिचित कराने के लिए भारत में निवास करनेवाले तत्कालीन हिंदी-ज्ञाता पादरियों तथा हिंदी-विशेषज्ञ अंग्रेजों ने हिंदी सिखाने के उद्देश्य से हिंदी-व्याकरण की पुस्तकों के प्रणयन किए थे। उन पुस्तकों के अनुवाद कई विदेशी भाषाओं- डच, लैटिन, फ्रेंच आदि में कराए गए थे।

17वीं से 18वीं शताब्दी की अवधि हिंदी-व्याकरण के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से अतीव महत्व की रही है। 17वीं शताब्दी का पूर्वाद्र्ध हिंदीभाषा-व्याकरण के विचार से अति महत्व का रहा है। एक-से-बढ़कर-एक विद्वान थे, जिन्होंने हिंदी-भाषा को भारत की सीमाओं से बाहर पहुंचाया। इस संदर्भ में हम हालैण्ड निवासी जान जेशुआ केटलेर के योगदान को विस्मृत नहीं कर सकते, जिन्होंने भारत में आने के बाद हिंदी का विधित ज्ञानार्जन किया था।

केटलेर हिंदी के प्रभाव में इतना अधिक आ चुके थे कि उन्हें अपने देश के निवासियों को हिंदी सीखने के लिए प्रेरित करना पड़ा था, जिसके लिए उन्होंने डच भाषा में हिन्दुस्तानी भाषा का व्याकरण ही लिख डाला। इतना ही नहीं, सन् 1743 में डेविड मिल ने उसका लैटिन-भाषा में अनुवाद भी किया था। विदेशी भाषाओं के शब्द और हिंदी में उनके अर्थवाले कई शब्दकोश अब तक प्रकाश में आ चुके हैं।

सन् 1805 में ‘फारसी-हिन्दुस्तानी-अंग्रेजी शब्दकोश’ अस्तित्व में आया था, जिसे फ्रांसिस ग्लैडविन ने लिखा था। उसके बाद तो विदेशी लेखकों में हिन्दी शब्दकोश लिखने की होड़ लग चुकी थी। रेवरेण्ड विलियम येट्स का ‘हिन्दुस्तानी-अंगे्रजीकोश’, डंकन फोब्र्स की ‘ए डिक्शनरी आव हिन्दुस्तानी एण्ड इंगलिश’, जोसेफ टी. थामसन की ‘डिक्शनरी इन हिन्दी एण्ड इंगलिश’ हिंदी का संवद्र्धन करती रहीं।

विलियम प्राइस ने तो हिंदी के हित में उल्लेखनीय कर्म किए थे। उसके बाद तो हिंदी शब्दों के कई कोश प्रकाश में आए थे। सन् 1808 में कलकत्ता (अब कोलकाता) से प्रकाशित ‘हिन्दुस्तानी-अंग्रेजी डिक्शनरी’ अस्तित्व में आयी थी, जिसका विलियम हण्टर ने लेखन-संपादन किया था।

डेनिसभाषी डा. बेंजमिन शूल्ज ने भारत आकर अध्यवसाय करते हुए, मात्र दो माह में हिंदी-भाषा सीख ली थी। उसके बाद उन्होंने हिंदी-व्याकरण को लैटिन भाषा में लिखा था। उसी पुस्तक में देवनागरी लिपि में ‘परिशिष्ट’ के अंतर्गत बाइबिल की महत्वपूर्ण बातें बतायी गयी थीं। इटली के हिंदी विद्वान और कैथोलिक चर्च के पादरी कैसियानो बेलिगटी ने तो भारत में आने के बाद एक ऐसी व्याकरणात्मक पुस्तक लिखी थी,

जिसमें देवनागरी लिपि और हिंदी-भाषा में वर्णमाला का सांगोपांग परिचय प्रस्तुत करते हुए, उसकी व्याख्या थी। उसका प्रकाशन सन् 1771 में किया गया था। ग्रेट ब्रिटेन के हिंदी-विद्वान जार्ज हेडले ने हिन्दीव्याकरण-परंपरा में एक नवीन युग का सूत्रपात करते हुए, सन् 1773 में ‘ग्रैमेटिकल रिमाक्र्स आन द प्रैक्टिकल ऐण्ड वल्गर डाइलेक्ट आव द हिन्दोस्तान लैंग्वेज’ का लंदन से प्रकाशन करवाया था।

जान बार्थविक गिलक्राइस्ट एडिनबरा के निवासी थे। वे फोर्ट विलियम कालेज में हिन्दुस्तानी विभाग के प्रथम अध्यक्ष थे। उन्होंने ‘हिन्दुस्तानी’ भाषा को प्रोत्साहित किया था, किंतु ‘हिंदी’ भाषा को उसका मूल आधार माना था। उनकी ‘इंगलिश-हिन्दुस्तानी डिक्शनरी’ और ‘हिन्दुस्तानी ग्राम’ अत्यंत चॢचत रहे हैं। हिंदी में पाठ्यक्रम तैयार कराने की दिशा में उन्होंने ही प्रयास किया था। भारत में सर्वाधिक व्यवहार की जा रही हिंदी को उन्होंने ही ‘खड़ी बोली’ का नाम दिया था।

हेरासिम स्तोपनोविच लेबिदोव एक ऐसे रूसी विद्वान थे, जिन्होंने हिंदी के प्रति अपनी उत्कट् भक्ति को उजागर किया था। वे हिंदी भाषा सीखना चाहते थे, जिसके लिए उन्होंने स्वाध्याय का ही आश्रय लिया। उन्होंने हिन्दुस्तानी-अंगे्रजी कोश का लेखन किया था, जिसका नाम था, ‘ग्रामर आव द प्योर ऐण्ड मिक्स्ड ईस्ट इण्डियन डाइलेक्ट्स’।

टामस रोएबक ने ‘इंगलिश ऐण्ड हिन्दुस्तानी नेवल डिक्शनरी आव टेक्निकल टम्र्स एण्ड सी फेरेजिज’ सन् 1811 में कलकत्ता से प्रकाशित करायी थी, जिससे हिंदी के आधुनिक पारिभाषिक कोश की परंपरा आरंभ होती है। पादरी मैथ्यू थामसन एडम ने ‘ए ग्रामर आव हिन्दी लैंग्वेज’ नामक कृति सन् 1827 में कलकत्ता से प्रकाशित करायी थी।

उस पुस्तक में देवनागरी लिपि में आधुनिक पद्धति का वर्णक्रमानुसार संयोजन था। फ्रांस के हिंदी-विद्वान गार्सां डी (द) तासी ने आधुनिक विचार से हिंदी-साहित्य का इतिहास लिखने की दृष्टि विकसित की थी। उन्होंने फ्रेंच भाषा में ‘इस्तवार द लित्रेत्यूर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी’ (हिन्दुई और हिन्दुस्तानी साहित्य का इतिहास) का लेखन किया, जिसे सन् 1839 में पेरिस से प्रकाशित किया गया था।

एलेक्सेई पेत्रोविच बरान्निकोव रूसी विद्वान थे। उन्होंने रूसी भाषा में तुलसीदास कृत ‘श्री रामचरितमानस’ का अनुवाद कर, अपने हिंदी ज्ञान, विशेषत: ब्रजबोली के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की थी। वह आज नहीं हैं, परंतु उनके समाधिस्थल पर ‘श्री रामचरितमानस’ की यह अद्र्धाली आज भी अंकित है, ‘भलो भलाहिह पै लहै’, जो उनकी हिंदीप्रियता को सिद्ध करती दिख रही है।

अब हम बात करते हैं, हंगरी के आइमरे बैंघ की। वे बुडापेस्ट युनिवॢसटी में ‘इण्डोलाजी’ विषय का अध्ययन कर रहे थे तब उसी अवधि में वह भारतीय कवि आनन्दघन की कविताओं की शब्दशक्ति से इतने अधिक प्रभावित हुए थे कि वे हिंदीभाषा और साहित्य की विधिव शिक्षा ग्रहण करने के लिए बाध्य हो गए थे।

उन्होंने भारत स्थित शांतिनिकेतन से ‘हिंदी-विषय’ में पी-एच.डी. उपाधि अॢजत की थी। इतना ही नहीं, उन्होंने देवनागरी लिपि और हिंदीभाषा में ‘सन्देह को मारग’ नामक काव्यकृति का प्रणयन भी किया था। आगे चलकर, वे आक्सफोर्ड युनिवॢसटी में हिंदी साहित्य के प्राध्यापक नियुक्त किए गए। पेइचिंग युनिवॢसटी, चीन में हिंदी-विभाग के प्राध्यापक डा. च्यांग चिंगख्वेई जयशंकर प्रसाद की काव्यकृति ‘आंसू’ से अत्यन्त प्रभावित थे। उनमें हिंदी कहानीकार के सभी गुण विद्यमान थे।

जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन डब्लिन (आयरलैण्ड) के निवासी थे, परंतु जब वह भारतीय लोकसेवा के अधिकारी के रूप में भारत आए थे तब उन्होंने ‘भाषाविज्ञान का सर्वेक्षण’ लिखकर अपने भीतर की भारतीयता को जाग्रत किया था। उन्हें आधुनिक भारत में भाषा सर्वेक्षण करनेवाला प्रथम भाषाविज्ञानी का स्थान प्राप्त है। उन्होंने तुलसीदास और विद्यापति के साहित्य की महत्ता प्रतिपादित की थी।

हिंदीक्षेत्र की बोलियों और लोकसाहित्य की खोज करने में उनकी महती भूमिका रही है। वे भारत की भाषा, बोली तथा साहित्य को समृद्ध करने में आजीवन लगे रहे।

जापान का हिंदी के प्रचार-प्रसार में प्रथम स्थान रहा है। उसका कारण यह है कि भारत से बाहर यदि कहीं सबसे पहले हिंदी का अध्ययन-अध्यापन आरंभ हुआ था तो वह है, टोक्यो युनिवॢसटी। यहीं हिंदी की सबसे पहली कक्षा शुरू की गयी थी। उसी देश के हिंदी प्रचारक अकियो हागा के अवदान को अलक्षित नहीं किया जा सकता।

उन्होंने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वद्र्धा में हिंदी का प्राध्यापन भी किया था। इटली के हिंदी अनुरागी डा. एल. पी. टेसीटरी ने ‘तुलसीदास’ और ‘श्री रामचरितमानस’ की कथावस्तु की तुलना आदिकवि वाल्मीकि के रामायण की कथावस्तु से की है, जो कि उनका शोधप्रबंध है।

फादर कामिल बुल्के बेल्जियम के थे, किंतु ज्ञानपिपासा का शमन करने के लिए उन्होंने अपना कर्मक्षेत्र भारत चुना था। उन्होंने ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ से ‘हिन्दी विशारद’ की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। मेधा तीव्र होने के कारण उन्होंने पांच वर्षों में ही हिंदी, संस्कृत, अवधी, ब्रज, पालि, अपभ्रंश आदि का उपयोगी ज्ञान अॢजत कर लिया था। उनकी हिंदी के प्रति अनन्य भक्ति को एक उदाहरण से समझा जा सकता है।

उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ में पी-एच.डी. की उपाधि अॢजत की थी। उन दिनों सभी शोधप्रबंध अंग्रेंजी में लिखे जाते थे। कामिल बुल्के ने अपने शोध निर्देशक प्रो. माताप्रसाद गुप्त से स्पष्टत: कह दिया था- मैं अपना शोधप्रबंध ‘हिन्दीभाषा’ में ही लिखूंगा, अन्तत:, इलाहाबाद विश्वविद्यालय को उनकी अप्रतिम हिंदीप्रियता के सम्मुख झुकना पड़ा था, उसे अपना नियम बदलना पड़ा था।

कामिल बुल्के ने ‘हिन्दी-अंग्रेजी लघुकोश’, ‘अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोश’, ‘मुक्तिदाता’, ‘नया विधान’ तथा ‘नील पक्षी’ का सर्जन कर, हिंदी की श्रीवृद्धि की थी। हमने देखा कि विदेशी मूल के विद्वज्जन ने अपने सद्प्रयासों से हिंदी को देश-देशांतर में भली-भांति गौरवान्वित किया था। हम सभी सारस्वत हस्ताक्षरों के प्रति नमित हैं।

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