सीने में जलन आंखों में तूफ़ान सा क्यूं है इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूं है

सीने में जलन आंखों में तूफ़ान सा क्यूं है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूं है

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प्रिय शायर ‘शहरयार’ जन्मदिवस पर………

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

मुज़फ्फर अली निर्देशित फिल्म ‘ग़मन'(1978) की यह गज़ल आज भी लोगों की ज़ुबान पर है। शहरयार की कलम का यह ज़ादू सही मायने में इक सवाल है…वक़्त का मौज़ू सवाल।
दरअसल शहरयार ने कभी भी खुद शायरी के ‘प्रासंगिक’ होने का शोर नहीं मचाया। लिखते रहे और ‘नयी दुनिया’ से इत्तेफ़ाक रखा। जब भी उन्हें कोई फ़ासला नज़र आया, उस दर्द को शायरी में उतार दिया-

अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ ज्यादा है,कहीं कुछ कम है

शहरयार ‘पक्षधरता’ के हिमायती हैं। सियाशी पक्षधरता को दरकिनार करते हुए ‘मानवीय’ पक्षधरता के प्रबल समर्थक हैं।आत्मा की आवाज़ को मशाल की शक़्ल में तब्दील करने वाले शहरयार ‘तटस्थ’ लोगों को ख़ूब नंगा करते हैं। पाश की तरह उन्हें भी ‘बीच का रास्ता’ पसंद नहीं है-

तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीखों को सचमुच सुना नहीं है क्या
मैं एक जमाने से हैरान हूँ कि हाकिम-ए-शहर
जो हो रहा है उसे देखता नहीं है क्या

शहरयार मन की परत-दर-परत को भी महसूसने से नहीं चूकते। आवाज़ों को पहचानते हैं और उन्हें एक शक़्ल देते हैं-

मैंने हर एक ज़ुर्म से तुमको बरी कर दिया
मैंने सदा के लिए तुमको रिहा कर दिया

शहरयार के बिना ‘उमराव जान’ कभी नहीं बनती। उनकी गज़लों ने ‘अमीरन’ को जैसे ज़िंदा ही कर दिया-

उम्र भर सच ही कहा सच के सिवा कुछ न कहा
अज़्र क्या इसका मिलेगा ये न सोचा हमनें
कौन सा क़हर ये आंखों पे हुआ है नाज़िल
एक मुद्दत से कोई ख़्वाब न देखा हमने

‘इश्क़’ और ‘इंसानी’ शायरी के महबूब… प्रिय शायर ‘शहरयार’ को जन्मदिवस पर…………

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