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टीएन शेषन ने कैसे बदली चुनावों की अराजक व्यवस्था? - श्रीनारद मीडिया

टीएन शेषन ने कैसे बदली चुनावों की अराजक व्यवस्था?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

आज अगर देश में निष्पक्ष और स्वतंत्र माहौल में चुनाव हो पाता है तो इसका श्रेय टीएन शेषन को जाता है। देश के दबंग चुनाव आयुक्त के तौर पर अपनी पहचान बनाने वाले टीएन शेषन नौकरशाही में भी सुधार के जनक थे। ईमानदारी और कानून के प्रति अपनी निष्ठा की वजह से वह बहुतों को खटकते भी थे। इस वजह से उनके विरोधी उनको सनकी और तानाशाह तक भी कहते थे। लेकिन वह व्यवस्था में क्रांति लाने वाले इंसान, मेहनती, सक्षम प्रशासक, योग्य नौकरशाह, बुद्धीजीवियों और मध्य वर्ग के नायक थे।

पलक्कड़ (केरल) के निवासी टीएन शेषन ने 1955 में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में ट्रेनी के तौर पर अपने कॅरियर की शुरुआत की। शेषन ने अपनी पहली तैनाती में ही तीखे तेवर दिखाते हुए तमिलनाडु के मदुरई जिले के डिंडीगुल में सब कलेक्टर पद पर रहते हुए हरिजन समुदाय के एक व्यक्ति पर फंड के घपले का आरोप में गिरफ्तार करवा दिया। मंत्री के दवाब के बाद भी आरोपी को नहीं छोड़ा।

चेन्नई में यातायात आयुक्त पद के दौरान एक बार एक ड्राइवर ने शेषन से पूछा कि अगर आप बस के इंजन को नहीं समझते और ये नहीं जानते कि बस को ड्राइव कैसे किया जाता है, तो आप ड्राइवरों की समस्याओं को कैसे समझ पाएंगे। शेषन ने इसको एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने न सिर्फ़ बस की ड्राइविंग सीखी बल्कि बस वर्कशॉप में भी काफ़ी समय बिताया।

एक बार उन्होंने बीच सड़क पर ड्राइवर को रोक कर स्टेयरिंग संभाल लिया और यात्रियों से भरी बस को 80 किलोमीटर तक चलाया। शेषन का तमिलनाडु के मुख्यमंत्री से काफी झगड़ा हो गया, जिसके बाद वे प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली आ गए और तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग के एक सदस्य के तौर पर उनकी नियुक्ति हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के आग्रह पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के सचिव बन गए।

सचिव के तौर पर उन्होंने टिहरी बांध और सरदार सरोवर बांध जैसी परियोजनाओं का विरोध किया। भले ही सरकार ने उनको विरोध को दरकिनार कर दिया और परियोजना पर काम को आगे बढ़ाया लेकिन बांध के पर्यावरण पर पडऩे वाले प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया गया।

इसके साथ ही शेषन ने विभागों में नहीं कहने का रुझान शुरू किया। इस दौरान राजीव गांधी से उनकी नजदीकी बढ़ी। वहां से उनको आंतरिक सुरक्षा का सचिव बनाया गया। करीब 10 महीनों बाद उनको कैबिनेट सचिव बनाया गया। जब राजीव गांधी दिसंबर 1989 में चुनाव हार गए और प्रधानमंत्री नहीं रहे तो टीएन शेषन का ट्रांसफर योजना आयोग में कर दिया गया। शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त बनने की दास्तां भी कम दिलचस्प नहीं है।

दिसंबर 1990 केंद्रीय वाणिज्य मंत्री और शेषन के दोस्त सुब्रमण्यम स्वामी ने प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के दूत के तौर शेषन पर मुख्य चुनाव आयुक्त के पद की पेशकश की। शेषन इस प्रस्ताव से बहुत अधिक उत्साहित नहीं हुए थे, क्योंकि पहले ही कैबिनेट सचिव विनोद पांडे ने भी उन्हें ये प्रस्ताव दिया था। शेषन इस प्रस्ताव पर राजीव गांधी से मिले। राजीव गांधी ने शेषन को मुख्य चुनाव आयुक्त का पद स्वीकार करने के लिए अपनी सहमति दे दी। लेकिन वो इससे बहुत खुश नहीं थे। उन्होंने उन्हें छेड़ते हुए कहा कि वो दाढ़ी वाला शख्स (चंद्रशेखर) उस दिन को कोसेगा, जिस दिन उसने तुम्हें मुख्य चुनाव आयुक्त बनाने का फ़ैसला किया था। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने साठ के दशक में तमिलनाडु में शेख़ को नजऱबंद करवा दिया था।

शेषन उस समय मदुरै जिले के कलेक्टर थे। उनको जिम्मेदारी दी गई थी कि वो शेख़ द्वारा बाहर भेजे गए हर पत्र को पढ़ें। शेख ने डॉक्टर एस राधाकृष्णन प्रेसिडेंट ऑफ़ इंडिया के नाम पत्र लिखा। शेषन ने बिना डरे पत्र पढ़ लिया। शेख़ ने घोषणा की कि वो उनके साथ किए जा रहे खऱाब व्यवहार के विरोध में आमरण अनशन पर जाएंगे। शेषन ने कहा कि सर ये मेरा कर्तव्य है कि मैं आपकी हर ज़रूरत का ख्याल रखूं, मैं ये सुनिश्चित करूंगा कि कोई आपके सामने पानी का एक गिलास भी ले कर न आए। शहरी विकास मंत्रालय के संयुक्त सचिव के धर्मराजन त्रिपुरा में हो रहे चुनावों का पर्यवेक्षक का कार्य छोड़ कर थाइलैंड चले गए।

इस पर दंडित करते हुए शेषन ने उनकी गोपनीय रिपोर्ट में विपरीत प्रवष्टि करने का फ़ैसला किया। शेषन ने वर्ष 1993 में 17 पेज का आदेश जारी किया कि जब तक सरकार चुनाव आयोग की शक्तियों को मान्यता नही देती, तब तक देश में कोई भी चुनाव नहीं कराया जाएगा। आखिरकार सरकार को उनके सामने झुकना पड़ा। मौजूदा आदर्श आचार संहिता उसी आदेश का परिणाम है। शेषन के आने से पहले मुख्य चुनाव आयुक्त एक आज्ञाकारी नौकरशाह होता था जो वही करता था जो उस समय की सरकार चाहती थी। ये शेषन का ही बूता था कि उन्होंने चुनाव में पहचान पत्र का इस्तेमाल आवश्यक कर दिया।

शेषन ने साफ कह दिया कि अगर मतदाता पहचान पत्र नहीं बनाए गए तो 1 जनवरी 1995 के बाद भारत में कोई चुनाव नहीं कराए जाएंगे। शेषन के दौर में ही हिमाचल प्रदेश में चुनाव के दिन पंजाब के मंत्रियों के 18 बंदूकधारियों को राज्य की सीमा पार करते हुए धर दबोचा गया। उत्तर प्रदेश और बिहार सीमा पर तैनात नागालैंड पुलिस ने बिहार के विधायक पप्पू यादव को सीमा नहीं पार करने दी।

हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल गुलशेर अहमद को चुनाव आयोग द्वारा सतना का चुनाव स्थगित करने के बाद उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। गुलशेर अहमद पर आरोप था कि उन्होंने राज्यपाल पद पर रहते हुए अपने पुत्र के पक्ष में सतना चुनाव क्षेत्र में चुनाव प्रचार किया था। उसी तरह राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल बलिराम भगत को भी शेषन का कोपभाजन बनना पड़ा था, जब उन्होंने एक बिहारी अफ़सर को पुलिस का महानिदेशक बनाने की कोशिश की। शेषन ने बिहार में पहली बार चार चरणों में चुनाव करवाया और चारों बार चुनाव की तारीखें बदली गईं।

ये बिहार के इतिहास का सबसे लंबा चुनाव था। शेषन ने आचार संहिता के उल्लंघन पर पश्चिम बंगाल की राज्यसभा सीट पर चुनाव नहीं होने दिया, जिसकी वजह से केंद्रीय मंत्री प्रणब मुखर्जी को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने उन्हें पागल कुत्ता कह डाला। साल 1992 के शुरू से ही शेषन ने सरकारी अफ़सरों को उनकी ग़लतियों के लिए लताडऩा शुरू कर दिया था।

उसमें केंद्र के सचिव और राज्यों के मुख्य सचिव भी शामिल थे। बीते दशकों में टीएन शेषन से ज़्यादा नाम शायद ही किसी नौकरशाह ने कमाया हो। वर्ष 1990 के दशक में तो भारत में एक मज़ाक प्रचलित था कि भारतीय राजनेता सिर्फ़ दो चीज़ों से डरते हैं। एक ख़ुदा और दूसरे टीएन शेषन से।

 

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