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मैं दाहा नदी!..मुझे बचा लो मेरे बच्चों! - श्रीनारद मीडिया

मैं दाहा नदी!..मुझे बचा लो मेरे बच्चों!

मैं दाहा नदी!..मुझे बचा लो मेरे बच्चों!

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✍️ डॉक्टर गणेश दत्त पाठक, श्रीनारद मीडिया :

 

 

मैं आपकी अपनी दाहा नदी… मैं अब नदी कहां रही? मैं तो एक गंदे और गंभीर प्रदूषित नाले में तब्दील हो चुकी हूं। मैं कभी सीवान जिले की समृद्ध लोक परंपराओं की साक्षी रही। आज मेरे गोद में पल रहे जलीय जीव तड़प तड़प कर मर रहे। बेशुमार कचड़ों को अपने गोद में लिए मैं प्रवाहित तो हो रही हूं लेकिन मेरे पानी से आती दुर्गंध और बदबू सबको विचलित कर देती है। सीवान जिले के भू जल के स्तर को सहेजने में किनारे खड़े वृक्षों के मदद से सदियों से बड़ी भूमिका निभाती रही मैं आज अपने प्रदूषित जल को रोते हुए ढोती जा रही हूं।

याद आता है वह समय जब मेरे किनारे पर बच्चे खेलते थे। मेरे पानी से खाना बनता था। छठ आदि के अवसर पर मेरे शुद्ध जल से लोग श्रद्धापूर्वक अर्घ्य दिया करते थे। आज बहुत तकलीफ होती है जब मेरे बच्चे मेरे जल को देखकर दूर हट जाते हैं। मन उस समय भर आता है जब सोचती हूं कि मैं नहीं रही तो यहां के भूजल स्तर का क्या होगा ? मेरे गोद में पल रहे जलीय जैव विविधता का क्या होगा? परंतु कोई मेरी तरफ नहीं देख रहा है? कोई मेरी सुध नहीं ले रहा है?

मेरी बारे में बताया जाता है कि जनकपुर से अयोध्या लौटने के क्रम में माता सीता को प्यास लगने पर लक्ष्मण जी ने बाण से धरती को छेदा और मैं अवतरित हुई और मेरा नाम बाण गंगा पड़ा कुछ लोग बाणेश्वरी भी कहते रहे। मेरे किनारे पर श्रद्धा और आस्था सदियों से पूजन अर्चन में लगी रही। चाहे वो पूर्णिमा का स्नान हो या छठ के महापर्व का अवसर। चाहे वो जीउतिया का त्योहार हो या पीडिया का पावन पर्व। हर अवसर पर मेरे किनारे पर श्रद्धा का जनसैलाब उमड़ता रहा और मैं अपने बच्चों के खुशी में खुश होती रही। लेकिन अब मेरा प्रदूषित जल जहरीला होता जा रहा है मेरे अपने बच्चों के लिए…..और मैं बस बिलखती रहती हूं।

मैं निकलती हूं गोपालगंज के सासामुसा चंवर में स्थित एक आर्टिजन कुएं से। यहां से निकल कर मैं सीवान और छपरा जिले के 80 किलोमीटर का सफर तय कर छपरा के फुलवरिया ताजपुर के निकट सरयू नदी में मिल जाती हूं। इस दौरान मैं सीवान के बड़हरिया, सीवान सदर, हुसैनगंज, हसनपुरा, सिसवन और आंदर प्रखंडों से होकर गुजरती हूं। मेरे जल से इस पूरे मार्ग में भूजल स्तर बना रहता है।

तीस चालीस साल पहले मैं चौड़े प्रवाह में प्रवाहित होती रही। मेरे किनारे पर उस समय मौजूद वृक्ष भू जल स्तर को रिचार्ज करने में बड़ी सहायता करते थे। मैं सदानीरा थी। परंतु आज मैं महज एक नाला के रुप में प्रवाहित हो रही हूं। मेरी सुंदरता जाती रही। मेरे किनारे के वृक्ष भी अतिक्रमण के भेंट चढ़ चुके हैं ।

समय बीतता रहा और मैं कचरा डंपिंग सेंटर बनती गई। मेरे किनारे पर बसे नगर, कस्बों के आने वाले कचरों ने मुझे तबाह कर डाला। आज स्थिति यह है कि मैं एक प्रदूषित नदी बन गई हूं। पहले मेरे गोद में बच्चे खेलते थे, तैरते थे। मेरे किनारों पर पिकनिक मनाते थे। लेकिन अब मैं इतनी प्रदूषित हो चुकी हूं कि मेरे संपर्क में आने पर मेरे बच्चों को त्वचा संबंधी व्याधियां होने की आशंका रहती है। लेकिन फिर भी प्रतिदिन टनों कचरा मेरे गोद में फेंका जा रहा है। किसी को मेरी कोई परवाह ही नहीं है। मैं तबाह हो रही हूं मेरे बच्चों….

पहले जब मैं सदा नीरा रहती थी तो मेरे गोद में जलीय जीव भी मस्ती से रहते थे। विशेषज्ञ बताते हैं कि दस साल पहले तीस से चालीस प्रकार की मछलियां मेरे गोद में रहती थी। मेरे जल में पर्याप्त ऑक्सीजन मिलता था। जलीय जैव विविधता को मैं संपोषित करती थी। आज प्रदूषण के कारण मेरे जल में खतरनाक तत्व आर्सेनिक, लेड, पारा, क्रोमियम, आदि भी आ गए है। हानिकारक पदार्थों, मृत सड़े गले पशुओं को मेरे गोद में बेरोकटोक फेंकने के कारण मैं जहरीली बनती जा रही हूं। और देखिए ना, अपने बच्चों के लिए ही मैं मातृ स्वरूप दाहा जहरीली बनती जा रही हूं। किसी मां के लिए इससे बड़ा कष्ट क्या हो सकता है?

आज आप जहां देखें मैं जलकुंभियों से पटी पड़ी हूं। ये जलकुंभी मेरे में मौजूद ऑक्सीजन को सोख रही हैं। इन जलकुंभियों ने बीमारियों के प्रसार में योगदान दिया है। मेरे जलीय परिवार के जीवों की जिंदगी तबाह कर डाली है। मेरे पूरे प्रवाह पथ को इन जलकुंभियों ने घेर लिया है। इन जलकुंभियों से मेरा दम घुटता जा रहा है मेरे बच्चों….

मेरी बड़ी बहनों गंगा, यमुना के सफाई हेतु तो कुछ बड़ी योजनाएं तो चल रही हैं। लेकिन मेरे जैसी छोटी नदियों को कौन पूछ रहा है? कभी कभी सुनने में आता है कि कुछ मेरी जिंदगी को बचाने के लिए प्रशानिक स्तर पर कुछ प्रयास हो रहे हैं तो कभी कभी मैं राजनीतिक मुद्दा भी बन जाया करती हूं। लेकिन मेरे सेहत को सुधारने की कोई व्यवस्थित रणनीति बनती नहीं दिखाई देती है। मेरे कुछ लाडले कभी कभी मेरे किनारे पर मेरी व्यथा को संजीदगी से महसूस करते हुए कुछ प्रयास करते दिखाई देते रहते हैं लेकिन ये प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा जैसे ही रहते हैं।

मैं तबाह हो रही हूं मेरे बच्चों। मैं प्रदूषित हो रही हूं। परंतु मुझे अपने अस्तित्व की परवाह नहीं है। मैं तो बस यह सोचकर परेशान हो रही हूं कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो भू जल स्तर का ठीक से रिचार्ज नहीं होने पर मेरे किनारे के विशाल क्षेत्र में रहनेवाले मेरे बच्चे बूंद बूंद पानी को तरस जायेंगे, सूखे की स्थिति उत्पन्न होगी। मेरे किनारे रहने वाले पशु पानी बिना मर जाएंगे। मेरे किनारे उगने वाली फसलें सूख जायेंगी। मेरे गोद के सभी जलीय जीव मर जाएंगे। मेरे किनारे होने वाले लोक उत्सव मिट जायेंगे। क्या मैं अपने लाडलो की तबाही देख पाऊंगी? अभी भी समय है। मुझे बचा लो मेरे बच्चों…तुम्हारी दाहा!

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