भारत में समान नागरिक संहिता लागू करने के महत्त्व

भारत में समान नागरिक संहिता लागू करने के महत्त्व

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

समान नागरिक संहिता भारत के विधिक एवं सामाजिक परिदृश्य में एक लंबे समय से लंबित और जटिल मुद्दा बना रहा है। UCC का उद्देश्य वर्तमान प्रणाली को बदलना है, जहाँ विभिन्न धार्मिक समुदाय विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और दत्तक ग्रहण जैसे मामलों में अपने स्वयं के व्यक्तिगत कानूनों (personal laws) का पालन करते हैं। समर्थकों का तर्क है कि UCC राष्ट्रीय एकीकरण, लैंगिक न्याय और विधि के समक्ष समता को बढ़ावा देगा, जबकि आलोचक चिंता जताते हैं कि यह धार्मिक एवं सांस्कृतिक विविधता के संरक्षण को क्षति पहुँचा सकता है।

समान नागरिक संहिता की अवधारणा स्वतंत्रता के बाद से ही भारत के संवैधानिक ढाँचे का अंग रही है, जिसे राज्य के नीति के निदेशक तत्त्व (DPSP) के रूप में शामिल किया गया है। हालाँकि इसका कार्यान्वयन दशकों से बहस और विवाद का विषय रहा है। समान नागरिक संहिता के इर्द-गिर्द होने वाली चर्चा धार्मिक स्वतंत्रता, अल्पसंख्यक अधिकार और समान नागरिक विधि एवं भारत की विविध सांस्कृतिक परंपराओं के बीच संतुलन जैसे संवेदनशील मुद्दों को स्पर्श करती है

समान नागरिक संहिता क्या है?

  • समान नागरिक संहिता भारत के सभी नागरिकों के लिये विवाह, तलाक, दत्तक ग्रहण, विरासत एवं उत्तराधिकार जैसे व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करने वाली विधियों के एक समूह को संदर्भित करती है।
  • समान नागरिक संहिता की अवधारणा का उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में राज्य नीति के निदेशक तत्व के रूप में किया गया है, जहाँ कहा गया है कि राज्य भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिये एकसमान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।
    • हालाँकि, यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि यह कानूनी रूप से प्रवर्तनीय (enforceable) अधिकार नहीं है, बल्कि राज्य के लिये एक मार्गदर्शक सिद्धांत है।

समान नागरिक संहिता से संबंधित संवैधानिक इतिहास और प्रमुख न्यायिक घोषणाएँ:

  • आरंभिक बहस:
    • मूल अधिकारों पर उप-समिति: संविधान के लिये मूल अधिकारों का मसौदा तैयार करने के क्रम में उप-समिति सदस्यों (बी. आर. अंबेडकर, के. एम. मुंशी और मीनू मसानी) ने UCC को अपने मसौदे में शामिल किया था।
    • अधिकारों का विभाजन: उप-समिति ने मूल अधिकारों को वाद-योग्य (justiciable) और वाद-अयोग्य (non-justiciable) श्रेणियों में विभाजित किया। UCC को वाद-अयोग्य श्रेणी में रखा गया।
      • मीनू मसानी, हंसा मेहता और अमृत कौर ने इसका विरोध करते हुए तर्क दिया कि धर्म पर आधारित व्यक्तिगत कानून राष्ट्रीय एकता में बाधा डाल सकते हैं।
      • उन्होंने समान नागरिक संहिता को वाद-योग्य अधिकार के रूप में पेश करने की वकालत की।
  • संविधान सभा की बहस:
    • अनुच्छेद 35 का मसौदा: अंबेडकर द्वारा प्रस्तुत अनुच्छेद 35 के मसौदे (जो बाद में अनुच्छेद 44 बना) ने समान नागरिक संहिता को निदेशक तत्वों में शामिल किया, जिससे यह गैर-अधिदेशात्मक (non-mandatory) हो गया।
      • इस्माइल साहब और पोकर साहिब बहादुर जैसे मुस्लिम नेताओं ने तर्क दिया कि समान नागरिक संहिता धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करती है और इससे असामंजस्य पैदा होगा।
    • UCC के बचाव में तर्क:
      • के. एम. मुंशी: उन्होंने राष्ट्रीय एकता और धर्मनिरपेक्षता के लिये समान नागरिक संहिता की वकालत की, जहाँ हिंदू समुदायों की चिंताओं पर भी ध्यान दिया।
      • अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर: उन्होंने तर्क दिया कि समान नागरिक संहिता से सद्भाव को बढ़ावा मिलेगा और सवाल उठाया कि मौजूदा समान दंड संहिता के विरुद्ध कोई विरोध क्यों नहीं हुआ।
      • भीमराव अंबेडकर: उन्होंने समान नागरिक संहिता की वैकल्पिक प्रकृति पर बल दिया और इसे नीति निदेशक तत्वों में शामिल करने को समझौता (compromise) बतलाया।
  • UCC पर प्रमुख न्यायिक घोषणाएँ
    • शाह बानो केस (1985) : न्यायालय ने एक मुस्लिम महिला के भरण-पोषण के अधिकार की पुष्टि की और समान नागरिक संहिता को राष्ट्रीय एकीकरण से जोड़कर देखा।
    • 1985 – जॉर्डन डिएंगडेह मामला: तलाक कानूनों की विसंगतियों को उजागर किया गया और विधिक एकरूपता के लिये UCC की मांग की गई।
    • 1995 – सरला मुद्गल मामला: समान नागरिक संहिता (UCC) का प्रबल समर्थन किया गया, विशेष रूप से बहुसंख्यक हिंदू आबादी के लिये, और इसके कार्यान्वयन में हो रही देरी पर सवाल उठाया।
    • 1996 – पन्नालाल बंसीलाल पिट्टी मामला: भारत की बहुलवादिता को स्वीकार किया गया तथा समान नागरिक संहिता के क्रमिक कार्यान्वयन का तर्क दिया गया।
    • 2000 – लिली थॉमस मामला: सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराधिकार के संदर्भ में UCC के महत्त्व पर बल दिया।
    • 2003 – जॉन वल्लमट्टम मामला: ईसाई पर्सनल लॉ में मौजूद भेदभावपूर्ण प्रावधानों को निरस्त कर दिया गया और समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर बल दिया गया।
    • 2014 – शबनम हाशमी मामला: किशोर न्याय अधिनियम को UCC से जोड़ा गया और धर्मनिरपेक्ष कानूनों की आवश्यकता पर बल दिया गया।
    • शायरा बानो केस- 2017इसने तीन तलाक के मुद्दे को संबोधित किया, समान नागरिक संहिता पर बहस को फिर से प्रेरित किया, लेकिन इसे मानवाधिकारों के मुद्दे से अलग कर देखा।
  • समावेशी संवाद – परामर्श के माध्यम से आम सहमति का निर्माण करना: UCC के लिये आगे की राह में विविध हितधारकों के साथ व्यापक, राष्ट्रव्यापी परामर्श शामिल होना चाहिये।
    • इसमें धार्मिक नेताओं, कानूनी विशेषज्ञों, नागरिक समाज संगठनों और विभिन्न समुदायों के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाना चाहिये।
    • यह प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिये तथा प्रस्तावित परिवर्तनों और उनके निहितार्थों के बारे में स्पष्ट जानकारी होनी चाहिये।
    • जागरूकता पैदा करने और विविध दृष्टिकोणों से अवगत होने के लिये सार्वजनिक बहस एवं चर्चाओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
      • यह समावेशी दृष्टिकोण चिंताओं को दूर करने और व्यापक आम सहमति का निर्माण करने में मदद कर सकता है, जिससे कार्यान्वयन के प्रति प्रतिरोध में कमी आ सकती है।
  • चरणबद्ध कार्यान्वयन – परिवर्तन के लिये क्रमिक दृष्टिकोण: अचानक आमूलचूल परिवर्तन के बजाय, UCC का चरणबद्ध कार्यान्वयन अधिक व्यवहार्य और कम विघटनकारी सिद्ध हो सकता है।
    • इसकी शुरुआत व्यापक सहमति वाले विषयों से हो सकती है, जैसे विवाह की कानूनी आयु का मानकीकरण, महिलाओं को समान अधिकार या उत्तराधिकार अधिकार।
    • फिर अगले चरण में अधिक विवादास्पद मुद्दों को संबोधित किया जा सकता है। यह क्रमिक दृष्टिकोण प्राप्त प्रतिक्रिया (फीडबैक) और वास्तविक व्यवहार्य परिणामों के आधार पर समायोजन की अनुमति प्रदान करेगा। यह समुदायों को अनुकूलित होने और कानूनी प्रणाली को परिवर्तनों के लिये तैयार होने का समय भी प्रदान करेगा।
  • संवैधानिक सुरक्षा – अल्पसंख्यक अधिकारों की रक्षा करना: किसी भी समान नागरिक संहिता के कार्यान्वयन में अल्पसंख्यक अधिकारों और सांस्कृतिक प्रथाओं की रक्षा के लिये सुदृढ़ संवैधानिक सुरक्षा उपाय शामिल होने चाहिये।
    • इसमें UCC कार्यान्वयन की निगरानी और शिकायतों के समाधान के लिये एक निकाय का गठन करना शामिल हो सकता है।
    • समुदायों के लिये स्पष्ट तंत्र स्थापित किया जाना चाहिये ताकि वे उन विशिष्ट प्रथाओं के लिये छूट प्राप्त कर सकें जो मूल अधिकारों के साथ टकराव की स्थिति में नहीं हों।
    • यह दृष्टिकोण एकरूपता और सांस्कृतिक संरक्षण के लक्ष्यों को संतुलित करने में मदद कर सकता है तथा UCC के आलोचकों की प्रमुख चिंताओं का समाधान कर सकता है।
    • समान नागरिक संहिता की तुलना में न्यायपूर्ण नागरिक संहिता अधिक महत्त्वपूर्ण है।
  • साक्ष्य-आधारित सुधार – राज्य-स्तरीय पहलों से प्रेरणा ग्रहण करना: आगे बढ़ने के लिये व्यक्तिगत कानून सुधारों से संबंधित मौजूदा राज्य-स्तरीय पहलों का सावधानीपूर्वक अध्ययन किया जाना चाहिये।

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