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क्या बिहारी प्रधानमंत्री के लिए दिल्ली दूर है? - श्रीनारद मीडिया

क्या बिहारी प्रधानमंत्री के लिए दिल्ली दूर है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

एक ही तीर पर कैसे रुकूं मैं, आज लहरों में निमंत्रण है। हरिवंश राय बच्चन की इस काव्य रचना को 1974 में जब जेपी ने पटना के गांधी मैदान से दोहराया था तो इसके अक्षरों ने दिल्ली के तख्त पर बैठे हुक्मरानों को भी सिंहासन खाली करने पर मजबूर कर दिया था। एक नाम किसी किरदार में तब्दील हो जाता है तो फिर कहानी बन जाती है। कुछ कहानी कुछ सेकेंड जीती है तो कुछ मिनट, कुछ कहानी कुछ दिन याद रहती है तो कुछ वर्षों। ऐसी ही एक कहानी बिहार से निकल कर सामने आई है। बिहार में एक बार फिर खेला हो गया।

बिहार की राजनीति में अंतरात्मा की आवाज पर सत्ता ने फिर से शरीर बदल लिया है। घड़ी सब के घर में होती है। जिस चाल से घड़ी चलती है उसे क्लॉकवाईज कहते हैं। कहा जा सकता है कि बिहार में नीतीश कुमार के पास ऐसी घड़ी है जो क्लॉकवाईज और एंटीक्लॉकवाईज दोनों दिशा में घूमती है। नीतीश ने बीजेपी का साथ छोड़ एक बार फिर से महागठबंधन का दामन थाम लिया है। इसके साथ ही नीतीश के राष्ट्रीय राजनीति में जाने की भी चर्चा होने लगी है। वैसे भी जदयू के नेता नीतीश में प्रधानमंत्री वाले गुण देखने लगे हैं। वैसे तो एक बार जो पीएम मैटेरियल हो जाता है हमेशा के लिए बना रहता है।

प्रधानमंत्री तो बिहारी ही बनेगा

एक बार की बात है अटलजी की सरकार के खिलाफ विपक्ष वोटिंग करने वाला था। देर रात तक बहस हो रही थी। जब नीतीश कुमार के  बोलने की बारी आई। विपक्षी सांसद शोर करने लगे। तभी इसी शोर से एक आवाज आई कि क्या बिहारी प्रधानमंत्री बनेगा? नीतीश ने अपने भाषण का अंत कुछ इस अंदाज में किया- प्रधानमंत्री तो बिहारी ही बनेगा। नाम होगा अटल बिहारी। नीतीश 17 सालों तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे। इस दौरान वो बार बार पार्टनर बदलते रहे। नीतीश की ये आदत रही है कि जब भी कोई सहयोगी पार्टी अपनी चलाने लग जाते हैं वो उसका पल्ला झाड़ दूसरे का हाथ पकड़ लेते हैं।

नीतीश और लालू की दोस्ती

नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव 90 के दशक में दोस्त हुआ करते थे। दोनों की दोस्ती के चर्चे मशहूर थे। लेकिन 2005 में नीतीश ने बीजेपी के साथ मिलकर बिहार में सरकार बना ली और लालू की 15 सालों की हुकूमत को खत्म कर दिया। राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी स्थायी नहीं होती। इसलिए 2013 में जब नीतीश ने बीजेपी से गठबंधन तोड़ा उसके बाद लालू ने उनका हाथ थामा और दोनों ने 2015 के चुनाव में महागठबंधन को उतारकर साथ सरकार बनाई। लेकिन दोस्ती से शुरू हुए इस रिश्ते में फिर से दरार पड़ गई।

नीतीश ने 1994 में जार्ज फर्नांडीस के साथ मिलकर समता पार्टी बना ली थी। लालू ने 1997 में राजद बनाया और शरद यादव जनता दल में ही रहे। साल 2003 में समता पार्टी का विलय जनता दल में हो गया और पार्टी का नाम जनता दल यूनाइटेड हो गया। नीतीश कुमार वीपी सिंह और वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे। 1999 में 13वीं लोकसभा के चुनाव संपन्न हुए और नीतीश कुमार लोकसभा सदस्य के रूप में चुने गए। नीतीश कुमार बातौर कृषि मंत्री वाजपाई कैबिनेट में शामिल हुए।

कैसे शुरू हुई थी गठबंधन में खटपट

कहते हैं कि धुआं वहीं से उठता है, जहां आग लगी होती है। बिहार में जिस तरह से राजनीति का धुआं उठ रहा है। हर कोई यही चर्चा कर रहा है कि कहीं ना कहीं जेडीयू और बीजेपी गठबंधन के बीच बगावत की चिंगारी आखिर सुलगने की नौबत कैसे आई। नीतीश ने क्यों सीएम की कुर्सी छोड़ी और फिर तेजस्वी को साथ लेकर नई सरकार बनाने की कहानी लिख दी। जिसके पीछे सबसे बड़ा तर्क ये दिया जा रहा है कि अब उनकी ताकत वो नहीं रह गई जो पहले कभी हुआ करती थी। इसके अलावा विधानसभा अध्यक्ष से भी उनकी तीखी बहस का वीडियो काफी में चर्चा रहा था।

इसमें सबसे अहम बात कि विधायकों की संख्या के साथ वोट प्रतिशत में भी घटाव देखने को मिला है। विरोधियों की तरफ से बीजेपी की कृपा पर सीएम बनने का तंज भी कसा जाता रहा। नीतीश कुमार की नाराजगी की मुख्य वजह फ्री हैंड न मिलना रहा। इसी वजह से उन्होंने दिल्ली में सरकार के कार्यक्रमों से भी दूरी बनाकर रखी। उन्होंने राज्य में बीजेपी नेताओं से भी दूरी बनाए रखी। अब ये फ्री हैंड इसलिए भी नहीं मिल पाया क्योंकि आरसीपी सिंह जैसे नेताओं ने जेडीयू से ज्यादा बीजेपी के प्रति अपनी वफादारी दिखाई। उनका बीजेपी के ज्यादा करीब जाना ही नीतीश कुमार को अखर रहा था।

बिहार की राजनीति के टीना फैक्टर हैं नीतीश

नीतीश कुमार को लेकर कहा जाता है कि either you love him or hate him but cant ignore या तो आप उनसे प्यार कर सकते हैं या नफरत लेकिन उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते। बिहार की राजनीति में तीन मुख्य राजनीतिक दल ही सबसे ताकतवर माने जाते हैं। इन तीनों में से दो का मिल जाना जीत की गारंटी माना जाता है। बिहार की राजनीति में अकेले दम पर बहुमत लाना अब टेढ़ी खीर है।

नीतीश कुमार को ये तो मालूम है ही कि बगैर बैसाखी के चुनावों में उनके लिए दो कदम बढ़ाने भी भारी पड़ेंगे। बैसाखी भी कोई मामूली नहीं बल्कि इतनी मजबूत होनी चाहिये तो साथ में तो पूरी ताकत से डटी ही रहे, विरोधी पक्ष की ताकत पर भी बीस पड़े। अगर वो बीजेपी को बैसाखी बनाते हैं और विरोध में खड़े लालू परिवार पर भारी पड़ते हैं और अगर लालू यादव के साथ मैदान में उतरते हैं तो बीजेपी की ताकत हवा हवाई कर देते हैं। बिहार की राजनीति में टीना (TINA) फैक्टर यानी देयर इज नो अल्टरनेटिव जैसी थ्योरी दी जाती है।

हवा का रूख भांपना चाहते हैं 

नीतीश कुमार ऐसे राजनेता हैं जिनको लेकर हमेशा कोई न कोई कयास चलता ही रहता है। कभी कहा जाता है कि वो विपक्ष के प्रधानमंत्री उम्मीदवार भी बन जाएं, इसको लेकर भी चर्चा होती रहती है। एक समय ऐसा भी था जब खबरें आईं कि प्रशांत किशोर से लेकर शरद पवार व अन्य विपक्षी खेमे के नेता उन्हें मनाने में लगे भी थे। साल 2020 में बीजेपी की मदद से बिहार में नीतीश कुमार सीएम तो बन गए हैं लेकिन उनकी धमक पुरानी जैसी नहीं रह ग। ऐसे में नीतीश बिहार की सियासत से परे राष्ट्रीय राजनीति में पर्दापण के लिए नई पटकथा लिख रहे हैं?

कैसे बनेगा समीकरण

नीतीश कुमार के साथ जाने से 2024 में यूपीए की सीटें बढ़ जाएंगी। ऐसे में अगर नीतीश पीएम के उम्मीदवार बनते हैं तो यूपी, बिहार और झारखंड तीन राज्यों से लोकसभा की 134 सीटें आती हैं। महागठबंधन के रूप में अगर जदयू, राजद, कांग्रेस, सपा, झामुमो चुनाव में जाती है तो बीजेपी को सीटों का अच्छा नुकसान हो सकता है। इससे इतर अगर नीतीश पीएम की रेस में आते हैं तो एक मजबूत चेहरे के सहारे विपक्षी कुनबे को भी मजबूती मिलेगी। अभी तक एकला चलो रे की राह अपना रही ममता बनर्जी को लेकर संशय जरूर है।

लेकिन तेलंगाना में बीजेपी के फुल एक्शन प्रचार वाले मोड को देखते हुए केसीआर के लिए भी स्थिति इतनी सहज नहीं रहने वाली हैं। वहीं केंद्र को कई मुद्दों पर समर्थन देने वाले नवीन पटनायक से नीतीश की करीबी किसी से छिपी नहीं है। यहां तक की बीजू पटनायक को भारत रत्न देने का मामला भी जेडीयू की तरफ से उठाया गया था।

नीतीश कुमार के नाम से कब-कब प्रधानमंत्री शब्द जुड़ा

साल 2013 में जब नरेंद्र मोदी का नाम भाजपा ने प्रधानमंत्री पद के लिए तय किया था तब जदयू और खुद नीतीश ने खुद को पीएम मैटेरियल बताया था। बाद में जब महागठबंधन का निर्माण हुआ तो नीतीश कुमार जदयू के साथ उसका एक हिस्सा थे। नीतीश को ही तब महागठबंधन का सबसे बड़ा चेहरा या पीएम कैंडिडेट माना जा रहा था। नीतीश कुमार सत्ता में रहने के लिए जाने जाते हैं विपक्ष में बैठना उनकी आदत नहीं। नीतीश कुमार अपनी बात मनवाने की कला बखूबी जानते हैं, जिस तरह बिहार में भाजपा को 5 सीटों का त्याग कर 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ने पर भाजपा को मजबूर कर दिया था। बाद में साल 2020 में सबसे कम सीटें लाकर भी सीएम बन जाना। ऐसे में यह देखना दिसचस्प होगा की बिहार के सियासी चौसर पर क्या नई बाजी खेली जाती है।

नीतीश विजय अश्व को थामना चाहते हैं?

नीतीश और बीजेपी के बीच अलगाव का एक बड़ा फैक्टर महाराष्ट्र का सियासी उलटफेर भी है। जिस तरह से शिंदे कैंप के जरिये शिवसेना में सेंधमारी हुई। उसने नीतीश को चौकन्ना कर दिया। फिर आरसीपी और चिराग मॉडल की बात सामने आने लगी। नीतीश को लगा कि महाराष्ट्र वाला  सियासी खेल उनके साथ भी न हो जाए। वैसे भी बीजेपी के मिशन 2024 में पीएम मोदी को फिर से सत्ता में लाना बीजेपी का सबसे पहला उद्देश्य है। वैसे भी चक्रवर्ती सम्राट बनना हो तो अश्वमेध यज्ञ करना होता है। जब अश्व महाराष्ट्र में घूमा तो नीतीश को अंदाजा हो गया कि इसका रूख बिहार की तरफ कभी भी हो सकता है। नीतीश उस अश्व को थामना चाहते हैं। जैसे कि कभी राम के विजय अश्व को दो नन्हें बालकों लव कुश ने रोक लिया था। नीतीश इसमें कितने सफल होते हैं ये तो आगे पता चलेगा।

 

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