क्या मानव-हाथी टकराव अपने-अपने अस्तित्व की लड़ाई है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

उत्तराखंड के कुंजा गांव में हाथी ने खेत में एक किसान को पटक कर गंभीर रूप से घायल कर दिया। हफ्ते भर पहले झारखंड के लातेहार जिले में दर्जनभर हाथियों के झुंड ने फसलों और घरों को नुकसान पहुंचाने के बाद एक ग्रामीण को कुचलकर मार डाला। इससे पहले 19 जून को झारखंड के ही जामताड़ा में एक जंगली हाथी ने खेत जा रहे पति-पत्नी की जान ले ली। मानव-हाथी टकराव की इस तरह की अनेकों घटनाएं देश के विभिन्न हिस्सों से सामने आती रहती हैं। कई बार झुंड से बिछड़कर हाथी मानव बस्ती में जाकर उत्पात मचाने लगता है। सवाल यह है कि आखिर गजराज को गुस्सा क्यों आता है? वे उत्पात क्यों मचाते हैं? क्या सारा कुसूर उनका है या कुसूरवार हम भी हैं?

दरअसल बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण, वनोन्मूलन, जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आवास नष्ट होने ने मानव-हाथी टकराव को बढ़ावा दिया है। केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रलय के अनुसार 2014 से 2019 के बीच 500 हाथियों की मौतें हुईं, जबकि इसी अवधि में 2361 लोगों की जानें भी गई हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि

मानव-हाथी टकराव की वजह से हर साल औसतन 100 हाथियों और 400 से अधिक इंसानों की जानें जा रही हैं।

इसके अलावा घर, फसल, पशु और संपत्तियों का नुकसान भी उठाना पड़ता है। वास्तव में मानव-हाथी टकराव अपने-अपने अस्तित्व की लड़ाई है। टकराव की वजह से हाथियों की संख्या लगातार कम हो रही है, जिससे उनके संरक्षण का कार्य प्रभावित हुआ है। इस टकराव को रोकना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि इससे दोनों पक्षों को केवल नुकसान ही होता है। इस प्रवृत्ति का पारितंत्र और जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ता है।

वर्ष 2017 की हाथी जनगणना के मुताबिक देश में एशियाई हाथियों की संख्या 27,312 है, जबकि 2012 में हाथियों की संख्या 29,576 थी। मानव-हाथी टकराव से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य ओडिशा, बंगाल, झारखंड, असम, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु है। टकराव की 85 फीसद घटनाएं इन्हीं छह राज्यों में होती हैं। 2017-2031 के बीच देश में तीसरी ‘राष्ट्रीय वन्यजीव कार्ययोजना’ लागू है, जो वन्यजीवों के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करती है।

वन्य जीव संरक्षण अधिनियम-1972 तथा संविधान के अनुच्छेद 48 (क) और 51-(क) का सातवां उपबंध भी पर्यावरण संरक्षण तथा जीवधारियों के प्रति दयालुता प्रकट करने का कर्तव्य बोध कराता है। किसी भी जीव-जंतु से मानव का टकराव पर्यावरण के लिए अहितकर है, क्योंकि यह कुछ प्रजातियों के अस्तित्व को ही खत्म कर देता है। लिहाजा ‘सह-अस्तित्व’ की भावना जागृत करनी होगी। तभी यह पृथ्वी खुशहाल हो पाएगी। इसमें हम मानवों की भूमिका सवरेपरि है।

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