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क्या भारत में पुलिस जाँच की एक विश्वसनीय संहिता की आवश्यकता है? - श्रीनारद मीडिया

क्या भारत में पुलिस जाँच की एक विश्वसनीय संहिता की आवश्यकता है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

एक फैसले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने दोषियों (जो अपराध या गलत कार्य के लिये दोषी नहीं पाए गए) को बरी करने संबंधी कानूनों में खामियों को नियंत्रित करने हेतु “सुसंगत और भरोसेमंद जाँच संहिता” की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।

  • न्यायालय ने पुलिस जाँच में खामियों का हवाला देते हुए वर्ष 2013 के अपहरण और हत्या मामले में 3 आरोपियों को बरी कर दिया, जिसके बाद ये टिप्पणियाँ आईं।

पुलिस जाँच के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • सर्वोच्च न्यायालय ने आपराधिक न्याय प्रणाली के सुधारों पर न्यायमूर्ति वी.एस. मलिमथ समिति की वर्ष 2003 की रिपोर्ट का उल्लेख किया, जिसमें इस तर्क पर ज़ोर दिया गया था कि “दोषियों का सफल अभियोजन सत्य की गहन और सावधानीपूर्वक खोज एवं साक्ष्यों के संग्रह पर निर्भर करता है जो स्वीकार्य व संभावित दोनों हैं”।
  • न्यायालय ने वर्ष 2012 में भारत के विधि आयोग की रिपोर्ट का हवाला देकर कहा कि दोषसिद्धि की कम दर के कारणों में “पुलिस द्वारा अयोग्य, अवैज्ञानिक जाँच और पुलिस एवं अभियोजन के बीच उचित समन्वय की कमी” शामिल है।  

भारत में सुसंगत और विश्वसनीय पुलिस जाँच संहिता की आवश्यकता: 

  • पुलिस जाँच में उन खामियों को रोकने के लिये, जिसके कारण तकनीकी आधार पर दोषियों को बरी कर दिया जाता है, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने उजागर किया है।
  • जाँच और साक्ष्य संग्रह के मानकों में सुधार करने के लिये, जो अक्सर अयोग्य एवं अवैज्ञानिक होते हैं, जैसा कि भारत के विधि आयोग ने बताया है।
  • पराधिक न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता और वैधता को बढ़ाने के लिये, जो अक्सर भ्रष्टाचार, राजनीतिक हस्तक्षेप एवं मानवाधिकारों के उल्लंघन से प्रभावित होती है।
  • अपराधियों के खिलाफ सफल अभियोजन सुनिश्चित करने के लिये, विशेषकर हत्या, बलात्कार, आतंकवाद आदि जैसे गंभीर अपराधों से जुड़े मामलों में।
  • पीड़ितों, गवाहों और आरोपियों के अधिकारों एवं हितों की रक्षा करने के लिये, जिन्हें अक्सर जाँच प्रक्रिया के दौरान उत्पीड़न, धमकी तथा ज़बरदस्ती का सामना करना पड़ता है।

भारत में पुलिस जाँच के लिये मलिमथ समिति की सिफारिशें: 

  • परिचय:
    • मलिमथ समिति की स्थापना वर्ष 2000 में गृह मंत्रालय द्वारा की गई थी, जिसका उद्देश्य भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार करना था। इसने वर्ष 2003 में “आपराधिक न्याय प्रणाली के सुधार पर समिति की रिपोर्ट” नामक अपनी रिपोर्ट में अपनी सिफारिशें प्रस्तुत कीं।
    • समिति की अध्यक्षता कर्नाटक और केरल उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी.एस. मलिमथ ने की।
    • समिति की राय थी कि मौजूदा प्रणाली “अभियुक्तों के पक्ष में है और अपराध के पीड़ितों को न्याय दिलाने पर पर्याप्त ध्यान केंद्रित नहीं करती है।”
  • पुलिस जाँच के लिये सिफारिशें: 
    • पैनल ने जिज्ञासु जाँच प्रणाली के तत्त्वों को शामिल करने का सुझाव दिया जिसका उपयोग फ्राँस और जर्मनी जैसे देशों में किया जाता है और इसकी निगरानी न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा की जाती है।
    • समिति ने जाँच विभाग को विधि एवं व्यवस्था से अलग करने का सुझाव दिया।
    • इसने जाँच की गुणवत्ता में सुधार करने की दिशा में राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग और राज्य सुरक्षा आयोगों की स्थापना की भी सिफारिश की।
    • इसने कई उपायों का सुझाव दिया, जिसमें अपराध डेटा की देखरेख करने के लिये प्रत्येक ज़िले में एक अतिरिक्त SP की नियुक्ति, संगठित अपराध से निपटने के लिये विशेष दस्तों का संगठन और अंतर-राज्य या अंतर्राष्ट्रीय अपराधों की जाँच के लिये अधिकारियों की एक टीम के आलावा पोस्टिंग, स्थानांतरण आदि से निपटने के लिये एक पुलिस स्थापना बोर्ड का गठन करना शामिल है।
    • पुलिस हिरासत को अब 15 दिनों तक सीमित कर दिया गया है। समिति ने सुझाव दिया कि इसे 30 दिनों तक बढ़ा दिया जाए और गंभीर अपराधों के मामले में चार्ज शीट दाखिल करने के लिये 90 दिनों का अतिरिक्त समय दिया जाए।

अपराधिक न्याय प्रणाली:

  • आपराधिक न्याय प्रणाली कानूनों, प्रक्रियाओं एवं संस्थानों का समूह है जिसका उद्देश्य सभी लोगों के अधिकारों और सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए अपराधों को रोकना, उनका पता लगाना, मुकदमा चलाना तथा दंडित करना है।
  • इसकी चार उपप्रणालियाँ हैं:
    • विधानमंडल (संसद)
    • प्रवर्तन (पुलिस)
    • न्यायनिर्णयन (न्यायालय)
    • सुधार (कारावास, सामुदायिक सुविधाएँ)
  • भारत की आपराधिक न्याय प्रणालियों का विकास विभिन्न शासकों के अधीन हुआ है, भारत में आपराधिक कानूनों को ब्रिटिश शासन के दौरान संहिताबद्ध किया गया था, जो आज भी काफी हद तक अपरिवर्तित हैं। बाद में 1833 के चार्टर अधिनियम के तहत वर्ष 1834 में स्थापित पहले कानून आयोग के अनुसार वर्ष 1860 में भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code- IPC) का मसौदा तैयार किया गया था।
  • दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure- CrPC) भारत में आपराधिक कानून के प्रशासन के लिये प्रक्रियाएँ प्रदान करती है। इसे वर्ष 1973 में अधिनियमित किया गया और यह 1 अप्रैल 1974 को प्रभावी हुआ।

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