भाषाई विविधता भारत की शक्ति है—प्रो.राजेन्द्र सिंह

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

संस्कृत विभाग, महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय बिहार और मानव संसाधन विकास केंद्र, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर, मध्यप्रदेश के संयुक्त तत्वावधान में ‘हिंदी एवं संस्कृत साहित्य-काव्यशास्त्र’ विषयक राष्ट्रीय पुनश्चर्या कार्यशाला का उद्घाटन आभासीय मंच से किया गया है। ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020’ में लोक भाषाओं के संरक्षण-संवर्द्धन की बात की गई है। इस क्रम में कार्यशाला के तीसरे दिन द्वितीय सत्र के वक्ता के रूप में लोक साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान प्रो.राजेन्द्र सिंह बड़गूजर(अधिष्ठाता, मानविकी एवं भाषा संकाय, महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, बिहार) का सान्निध्य प्राप्त हुआ।

‘लोक साहित्य में अभिव्यक्त सामाजिक चेतना’ विषयक सत्र को संबोधित करते हुए प्रो.राजेन्द्र सिंह ने कहा कि, भारत लोक भाषाओं का देश है। गुरु-शिष्य परंपरा से प्रारंभ ‘लोक-साहित्य’ का इतिहास समृद्ध है। ‘लोक साहित्य’ शब्द अंग्रेजी के ‘फोकलोर’ शब्द का अनुवाद है, जिसका सर्वप्रथम प्रयोग अंग्रेजी के विद्वान ‘विलियम टाम्स’ ने किया था। लोक साहित्य जनसमूह की मौलिक सर्जनाओं का प्रतिफल है।

लोकसाहित्य का अभिप्राय उस साहित्य से होता है जिसकी रचना स्वयं लोक करता है। लोकसाहित्य उतना ही पुरातन और सनातन है जितना कि मानव जीवन। लोकसाहित्य मौखिक परंपरा से चला आया साहित्य है जिसमें मनुष्य की प्राकृतिक प्रवृत्तियां, आचार-विचार, व्यवहार, रीति-रिवाज, रूढि़यां, धार्मिक विश्वास, राग-लोभ, द्वेष, प्रेम, विरह, वात्सल्य आदि भावनाएं सम्मिलित रहती हैं।

यदि इस साहित्य को लोक की अनुभूतियों का साहित्य कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
‘लोक साहित्य’ काव्य या गीतों तक ही न सीमित न होकर लोगों के जीवन धर्म, संस्कृति तथा परम्पराओं से भी जुड़ा हुआ है। लोक साहित्य ने हमेशा से सामाजिक-राजनीतिक हलचलों को केंद्र में रखा है। सामाजिक परिवर्तन की मुहीम में लोक साहित्य ने साथ-साथ यात्रा तय की है।

प्रो.सिंह ने ‘लोक नाटकों’ के वैशिष्ट्य पर विस्तार से बात रखते हुए कहा कि, सामाजिक-विसंगतियों को दूर करने में लोक नाटकों का महत्वपूर्ण योगदान है। इस दृष्टि से भिखारीठाकुर, दयाचंद मायना आदि प्रासंगिक लोक-साहित्यकार हैं।

आभार-रश्मि सिंह,शोधार्थी, हिन्दी विभाग,महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, बिहार

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