लोकमंथन 2022ः लोक परंपरा में शक्ति की अवधारणा पर वक्ताओं ने रखे विचार

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महामंडलेश्वर माता पवित्रानंद गिरी ने अपने जीवन के कुछ पहलुओं का किया उल्लेख

एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं समाज में शक्ति की अवधारणाएंः सोनल मानसिंह

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

राज्यसभा सदस्य एवं प्रख्यात नृत्यांगना सोनल मानसिंह ने चार दिवसीय लोकमंथन-2022 में लोक परंपरा में शक्ति की अवधारणा विषय पर अपने विचार व्यक्त किए।

सोनल मानसिंह ने गुवाहाटी के पांजाबारी स्थित श्रीमंत शंकरदेव कलाक्षेत्र के प्रेक्षागृह में आयोजित कार्यक्रम में कहा कि समाज में शक्ति की अलग-अलग अवधारणाएं हैं, लेकिन वे कहीं-न-कहीं मिल जाती हैं। उन्होंने कहा कि भगवान की प्रतिमा के ऊपर जो चंदवा (चंद्राकार) लगाया जाता है, उसका संबंध चंद्रमा से है। भारतीय संस्कृति में ताली बजाने की परंपरा है और ताली बजाने से विघ्नों का नाश होता है।

कार्यक्रम को किन्नर अखाड़े की महामंडलेश्वर माता पवित्रानंद गिरी ने अपने जीवन के कुछ पहलुओं का उल्लेख कर कहा कि बदनामी के डर से माता-पिता ने मेरी पहचान छिपाकर रखा। इसके चलते मुझे बाहर आने-जाने की स्वतंत्रता नहीं मिलती थी। मैंने कई बार आत्महत्या करने की कोशिश की, लेकिन भगवान में मुझे जीवन प्रदान किया। समाज ने मुझे बताया कि मैं किन्नर हूं। मेरे पारिवारिक संस्कार अच्छे थे, मेरा परिवार शिक्षित था, इसलिए मैंने बीएससी नर्सिंग किया। परिवार और समाज की प्रताड़ना के चलते मैंने किन्नरों को अधिकार दिलाने के लिए ट्रस्ट की स्थापना की। 2014 में भारत सरकार द्वारा थर्ड जेंडर को दर्जा देने के बाद मुझे लगा कि मैं भी इस देश का नागरिक हूं। उन्होंने कहा कि उज्जैन में उन्होंने किन्नर अखाड़ा शुरू किया, उसके बाद हिंदू से मुसलमान बने कई किन्नर पुनः हिंदू बने।

सत्र के अंत में अतिथियों को सम्मानित किया गया। उक्त कार्यक्रम का संचालन सेफाली वैश्य ने किया। वहीं भारत में धार्मिक यात्राओं एवं अन्नदान की लोक परंपरा विषय पर आयोजित संभाषण समारोह में प्रो. वनवीणा ब्रह्म ने कहा कि वेदों में वर्णित कन्या दान, अन्न दान, गोदान में अन्नदान सबसे महत्वपूर्ण है। भारतीय संस्कृति की मान्यता है कि धार्मिक यात्राओं पर जाने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अन्नदान करने से प्रेम और आपसी भाईचारा बढ़ता है।

इसीलिए कई कार्यक्रमों पर भोज का प्रावधान है। श्राद्ध रीति में भी ब्रह्मभोज होता है। विवेकानंद ने असम की यात्रा करके विभिन्न धर्मस्थलों का दर्शन किया। बोड़ो समुदाय के काली चरण ब्रह्म ने भी देश के विभिन्न धार्मिक स्थलों की यात्रा की है। अखंड भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं को एकता एवं अखंडता को बरकरार रखने की क्षमता है।

डॉ. मुकुंद दातार ने कहा कि यात्राओं पर जाना कुल रीति, कुल धर्म है। वर्ष में चार बार यात्रा की जाती है, जिसमें आषाढ़ माह की यात्रा अधिक महत्वपूर्ण है। यात्रा का अर्थ पद-यात्रा से है न कि हवाई जहाज या ट्रेन यात्रा से। सत्र के अंत में सभी वक्ताओं को स्मृति चिह्न और शॉल से सम्मानित किया गया। कार्यक्रम का संचालन आशुतोष ने किया।

इस अवसर पर एक अन्य संभाषण समारोह में लोक परंपरा में कृषि एवं भोजन विषय पर पार्थ थपलियाल ने कहा कि श्रेष्ठ लोगों के आचरण को देखकर उसे अपनाना ही परंपरा है। कण-कण में विद्यमान ईश्वर को खोजना ही परंपरा है। लोक जीवन के 16 संस्कारों में भी भोजन की परंपरा है। जिस व्यक्ति के घर में कोई अतिथि भोजन नहीं करता, उसका जीना व्यर्थ है। दुखों को नाश करने वाला आहार ग्रहण करना चाहिए। पंच-प्राण की रक्षा के लिए भोजन किया जाता है। हमें भोजन करने की सात्विकता जैन समाज से सीखना चाहिए।

विष्णु मनोहर ने कहा कि भारतीय सात्विक भोजन स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है और इसे चिकित्सक भी मानते हैं। हमारे समाज में भोजन परोसने और खाने की भी परंपरा है। भारत के पारंपरिक भोजन की 2200 रेसिपी है। लोहा, तांबा, पीतल के बर्तन में ही खाना बनाना चाहिए।

डॉ. बीआर कंबोज ने कहा कि कृषि को लेकर हरित, नीली, सफेद आदि जितनी भी क्रांति हुई है, उसमें भारत का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वस्तु-विनिमय की प्रणाली कृषि से ही संबंधित है। कृषि के जरिए ही सहकारिता भी लोक परंपरा में आई। जैविक कृषि का परंपरा से गहरा संबंध है। वक्ताओं का सम्मान किया गया। सत्र का संचालन बीके कुथियाल ने किया।

लोक परंपरा में शिक्षा एवं कथा वाचन सत्र की शुरुआत में वक्ताओं का सम्मान शॉल एवं स्मृति चिह्न से किया गया। इस दौरान प्रो. अर्चना बरुवा ने कहा कि धीरे-धीरे आहोम भाषा पारंपरिक लोगों में रह गई। आहोम भाषा के स्थान पर असमिया भाषा का विकास हुआ। डॉ. सुजाता मिरी ने भी विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला।

इस अवसर पर आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम में शक्ति आराधना की प्रस्तुति महाराष्ट्र तथा लोक संगीत एवं लोक नृत्य की प्रस्तुति राजस्थान के कलाकारों ने दी। इसके साथ ही उत्तर-पूर्व भारत के लोक-नृत्यों की प्रस्तुति के तहत असम के बिहू नृत्य, बरदैसिखला, हमजार, दोमाही, किकांग, गुमराग एवं झुमुर, मिजोरम के चेराव, नगालैंड के थुवु शेले फेटा (चाखेसांग चिकेन डांस), मणिपुर के पुंग चोलोम एवं थांग टा तथा अरुणाचल प्रदेश के रिखामपद को कलाकारों ने प्रस्तुत कर दर्शकों का मन मोह लिया। अंत में असम की सुप्रसिद्ध गायिका मयूरी दत्ता एवं कल्पना पटवारी ने समधुर गीतों की प्रस्तुति दी।

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