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खुद से वादा करें कि 2023 में आप हठकर कुछ नया करेंगे - श्रीनारद मीडिया

खुद से वादा करें कि 2023 में आप हठकर कुछ नया करेंगे

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हममें से कुछ लोगों ने पंकज त्रिपाठी की फिल्म कागज जरूर देखी होगी, इसमें उन्होंने अमीलो मुबारकपुर गांव के किसान लाल बिहारी की भूमिका निभाई थी, उसे सरकारी दस्तावेजों में मृत बता दिया था। फिल्म में उनके संघर्ष, नौकरशाही के खिलाफ 19 साल की लड़ाई को दिखाया गया है, ये कहानी संतोष मूरत सिंह के जीवन की सच्ची घटनाओं पर आधारित है, जिनका दावा था कि दलित लड़की से शादी करने के बाद रिश्तेदारों ने कागजों में उन्हें मृत बता दिया था।

इसे सिर्फ कहानी कहकर खारिज न करें। सीबीएसई मार्कशीट में अपनी गलत जन्मतिथि सुधरवाने के लिए दायर एक महिला की याचिका सुनते हुए हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने संदर्भ के रूप में इस फिल्म का इस्तेमाल किया। फिल्म के निर्देशक सतीश कौशिक बहुत खुश थे कि उनकी फिल्म का माननीय उच्च न्यायालय ने उल्लेख किया, जो बताता है कि कैसे अच्छा सिनेमा समाज को प्रभावित करता है, अच्छे बदलाव लाता है।

फैसले में न्यायमूर्ति चंद्र धारी सिंह ने फिल्म का हवाला देते हुए बिना कागजात व प्रभाव वाले लोगों की पीड़ा बताई। यहां तक कि सरकारी दस्तावेजों में मृत बताए कुछ युवाओं को फिल्म रिलीज़ के बाद उप्र के जिला अधिकारियों ने जीवित घोषित किया। आप सोच रहे होंगे कोई अकेला व्यक्ति कैसे फिल्म जैसे ताकतवर माध्यम की तरह बदलाव ला सकता है? तब आपको पुणे के असिस्टेंट कमिश्नर रमाकांत माने के बारे में जानना चाहिए।

राय न बनाएं कि वो पावरफुल पुलिस वाले हैं। माने ने बदलाव के लिए पद नहीं बुद्धिमानी का इस्तेमाल किया। ये उनकी कहानी है। 1988 में पुलिस अकादमी में प्रशिक्षण दिनों में उनके पिता के एक पत्र ने उनके सोचने का तरीका बदल दिया। 60 साल के पिता ने व्यथित होकर लिखा कि कोल्हापुर में उनकी पुश्तैनी जमीन का कोर्ट केस वह हार गए हैं क्योंकि जमीन के रिकॉर्ड अस्पष्ट मराठी लिपि में थे, जो कि 20वीं सदी के शुरू ही प्रयोग में नहीं है।

कागजों में क्या लिखा है, वहां कोई नहीं समझ सकता था। उसी दिन रमाकांत ने मराठी मोडी लिपि सीखने का निश्चय किया और उसमें महारत हासिल करने और भाषाविद् बनने में उन्हें दो दशक लग गए। महाराष्ट्र के कई हिस्सों में हजारों करोड़ों के मामले ठंडे बस्ते में डाल दिए गए क्योंकि दस्तावेजों का अर्थ समझने वाला कोई नहीं था। 1957 में मोडी लिपी को स्कूली पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया था, माना जाता है कि आज इस लिपि को समझने वाले 250 से ज्यादा लोग नहीं होंगे, वो भी शायद भूल गए हों क्योंकि आज ये इस्तेमाल नहीं होती।

2008 में जब उनकी पोस्टिंग जाति वैधता विभाग में हुई, जो चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के जाति प्रमाण पत्र जांचता है, उन्हें भी वैसी ही परेशानियां हुई, जो पिता ने झेली थी। उन्होंने फिर से शोलापुर में एक रिफ्रेशर कोर्स किया और पुणे में पेशवा डॉक्यूमेंट ऑफिस गए और छत्रपति शिवाजी के समय के भू-दस्तावेजों का अध्ययन किया। तब से उन्होंने लिपि में अपनी महारत से राज्य में कई विवाद सुलझाने में मदद की है।

सबसे कठिन मामले सुलझाने में योगदान देने के लिए उनके साथी व वरिष्ठों ने उनकी सराहना की। उन्हें अब तक कई नकद पुरस्कार मिल चुके हैं और सांगली जिले के दत्तगुरु मंदिर पर एक पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ नृसिंहवाडी’ लिखी है। मोडी लिपि में दस्तावेज इकट्ठे करके उनका अध्ययन करना इस व्यस्त पुलिसकर्मी का शौक है। इस तरह उन्होंने अपने शौक से बिल्कुल अनोखा काम किया।

फंडा यह है कि नए साल पर खुद से घिसेपिटे कसरत के वादे के बजाय गरीबों की मदद या सामाजिक भलाई के लिए कुछ नया करने का संकल्प लें, वैसे आपका वजन ज्यादा है तो कसरत तो करनी ही होगी।

 

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