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11 मई 1998 को पोखरण में तीन बमों के सफल परीक्षण के साथ भारत न्यूक्लियर स्टेट बन गया. - श्रीनारद मीडिया

11 मई 1998 को पोखरण में तीन बमों के सफल परीक्षण के साथ भारत न्यूक्लियर स्टेट बन गया.

11 मई 1998 को पोखरण में तीन बमों के सफल परीक्षण के साथ भारत न्यूक्लियर स्टेट बन गया.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

11 मई 1998 को राजस्थान के पोखरण में तीन बमों के सफल परीक्षण के साथ भारत न्यूक्लियर स्टेट बन गया. ये देश के लिए गर्व का पल था. इसके 20 साल बाद 25 मई 2018 को पोखरण की कहानी बयां करने वाली हिंदी फिल्म ‘परमाणु: दि स्टोरी ऑफ पोखरण’ रिलीज़ हुई.

भारत को परमाणु संपन्न बनाने वाले ‘ऑपरेशन शक्ति’ की कहानी शायद 20 मार्च 1998 से शुरू होती है. ये अंदाज़ा इसलिए लगाया जाता है, क्योंकि इससे एक दिन पहले ही बीजेपी के नेतृत्व वाली NDA की सरकार बनी थी. प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने के अगले ही दिन अटल बिहारी वाजपेयी ने परमाणु ऊर्जा आयोग (DEA) के अध्यक्ष आर. चिदंबरम से मुलाकात की थी. उनके एक सहायक ने बाद में बताया कि ‘ये महज़ शिष्टाचारवश की गई मुलाकात नहीं थी.’

अटल 1996 में 13 दिन की सरकार संभालने के दौर से ही परमाणु कार्यक्रम को लेकर गंभीर थे. कम ही लोग जानते हैं कि उन 13 दिनों के कार्यकाल में वाजपेयी ने जो एकमात्र कदम उठाया था, वो DRDO और DEA को परमाणु परीक्षण की तैयारी की हरी झंडी देना था. फिर जब सरकार गिरी, तो न्यूक्लियर प्रॉजेक्ट भी ठंडे बस्ते में चला गया.

पर दिलचस्प तो 1998 के अप्रैल और मई के महीने थे. इंडिया टुडे के राज चेंगप्पा अपनी रिपोर्ट में 11 मई का हाल बताते हैं कि एक छोटे से बंकर में बने अस्थायी कंट्रोल रूम के अंदर सैनिक वर्दी में बैठे वो तीन लोग पसीना-पसीना हो रहे थे. लग रहा था जैसे किसी मुंबइया मसाला फिल्म के बुढ़ाते हुए हीरो बैठे हों. उनके इर्द-गिर्द कंप्यूटरों के साथ-साथ रंग-बिरंगी बत्तियों वाले कंट्रोल पैनल बिखरे थे. एक ताले में लगी चाबी को घुमाने पर वहां रखे पैनलों में से एक के टाइमर में उल्टी गिनती शुरू हो जाती. ऐसी ही एक गिनती ने 11 मई को बिजली सप्लाई करके दुनिया को हिला देने वाले ब्लास्ट कर डाले. पर इससे पहले पोखरण की हवा ने उन्हें खूब परेशान किया.

सैनिकों की वर्दी में बैठे जिन तीन लोगों की बात हो रही है, उनकी छाती पर नाम लिखे थे- कैप्टन आदी मर्जबान, मेजर जनरल नटराज और मेजर जनरल पृथ्वीराज. पर भारतीय सेना में इन नामों के कोई अफसर थे ही नहीं. असल में ये कूट नाम थे, जो 1995 की सर्दियों में तय किए गए थे, जब भारत तीन परमाणु परीक्षण की तैयारी कर रहा था. लेकिन तब खबर लीक हो गई और उस समय के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को अंतरराष्ट्रीय दबाव में पीछे हटना पड़ा.

कैप्टन आदी मर्जबान की ड्रेस में पोखरण रेंज के विज्ञान अधिकारी थे. मेजर जनरल नटराज की ड्रेस में DEA के अध्यक्ष आर. चिदंबरम थे और मेजर जनरल पृथ्वीराज की ड्रेस में DRDO के अध्यक्ष एपीजे अब्दुल कलाम थे. सेना के अनुशासन से उलट कलाम की टोपी के बाहर चमकीले सफेद बालों की लट अलग ही दिख रही थी. असल में इन लोगों ने ये ड्रेसेज़ इसलिए पहन रखी थीं, ताकि पोखरण रेंज में उनके लगातार हो रहे दौरों की खबर लीक न हो.

प्लूटोनियम को पोखरण तक कैसे पहुंचाया गया

परीक्षण से 10 दिन पहले एयरफोर्स के AN-32 विमान ने रात में मुंबई के सांताक्रूज़ हवाई अड्डे से उड़ान भरी. इस प्लेन में लकड़ी के छ: क्रेट रखे हुए थे, जिनकी रखवाली स्टेनगन लिए कुछ कमांडो कर रहे थे. ये क्रेट दिखने में उन बक्सों जैसी थीं, जिनमें सेब रखे जाते हैं. क्रेट के अंदर धातु का एक कवच लगा हुआ था और उसके अंदर विस्फोटक कैटेगरी के प्लूटोनियम के गोले रखे हुए थे. इन गोलों को ट्रॉम्बे के भाभा परमाणु ऊर्जा केंद्र में तैयार किया गया था और एक गोले का वजन 5 से 10 किलो के बीच था.

प्लेन ने उड़ान भरी और दो घंटे में जोधपुर पहुंच गया. वहां उन क्रेटों को प्लेन से निकालकर एयरपोर्ट के बाहर खड़े ट्रकों में लाद दिया गया. ट्रकों के इस काफिले के लिए किसी स्पेशल प्रोटेक्शन का इंतज़ाम नहीं किया गया था, जिससे ये कोई आम काफिला लगे और किसी को भी परमाणु परीक्षण संबंधी गतिविधियों की भनक न लगे. रात के अंधेरे में ये ट्रक पोखरण पहुंचे, जहां विस्फोटक डेटोनेटर और ट्रिगर पहले ही पहुंचा दिए गए थे. प्लूटोनियम के गोले मिलते ही वैज्ञानिकों ने असेंबलिंग का काम शुरू कर दिया. अमेरिकी सैटेलाइट्स को चकमा देने के लिए ये सारा काम अंधेरी रातों में किया जा रहा था.

जब ब्लास्ट से दो दिन पहले दिक्कत आ गई

1982-83 में जब इंदिरा गांधी ने परमाणु परीक्षण को मंज़ूरी दी थी, तब पोखरण में तीन बेलनाकार कुएं खोदे गए थे. 1998 के परीक्षण इन्हीं कुओं में किए गए. लेकिन, अमेरिकी खुफिया एजेंसियों को चकमा देने के लिए सेना ने 1998 से कुछ साल पहले से ही पोखरण में जान-बूझकर विचित्र तरीका अपना रखा था. साइट पर कभी कोई नया गड्ढा खोदा जाता, तो कभी पुराने गड्ढे की सफाई की जाती. ऐसे में अमेरिकी अंदाज़ा ही नहीं लगा पा रहे थे कि आखिर पोखरण में चल क्या रहा है.

9 मई यानी परीक्षण से दो दिन पहले जब वैज्ञानिक और इंजीनियर नियमित देखभाल के लिए एक कुएं में उतरे, तो उसी समय बिजली चली गई और वो अंदर ही फंस गए. फिर रात में जब वो बालू और सीमेंट से विस्फोटक वाले कुएं को बंद कर रहे थे, तभी गलती से एक बुलडोज़र ने एक बड़े पत्थर को उस कुएं की तरफ धकेल दिया. अगर ये पत्थर ज़ोर से विस्फोटक पर गिरता, तो किसी भी तरह का नुकसान हो सकता था. पर तभी सेना के एक जवान ने उछलकर उस पत्थर को रोक लिया.

और फिर परीक्षण वाले दिन हवाओं ने परीक्षा ली

परीक्षण से कुछ घंटे पहले जब चिदंबरम और कलाम कंट्रोल रूम में बैठे थे, तब रेंज के मौसम विज्ञान अधिकारी उनके पास गए और बताया कि अचानक से तेज हवा चलने लगी है. जब तक हवा थम नहीं जाती, तब तक मिशन ‘रोकना’ पड़ेगा, क्योंकि ब्लास्ट के बाद अगर रेडिएशन फैला, तो तेज हवा उसे पास के गावों तक पहुंचा देगी और लोग मारे जाएंगे. हवा दोपहर तक नहीं थमी और बाहर का तापमान 43 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया. आखिरकार दोपहर में तीन बजे के बाद जब हवा थमी, तब 3:45 बजे तीनों उपकरणों का ब्लास्ट कर दिया गया.

और ब्लास्ट ने पोखरण की ज़मीन के साथ क्या किया

पोखरण में हाइड्रोजन बम ब्लास्ट करने में एक समस्या थी कि गांव इतने नज़दीक थे कि वैज्ञानिक हद से हद 45 किलो टन (1 किलो टन 1000 TNT के बराबर होता है) ब्लास्ट करा सकते थे. तो वैज्ञानिकों ने कंप्यूटर के ज़रिए पहले ही कायदे से अंदाज़ा लगा लिया था कि रेडियो-एक्टिविटी को को ज़मीन की सतह के नीचे ही रोका जा सके.

जैसे ही विस्फोट किया गया, ज़मीन में 200-300 मीटर नीचे 10 लाख डिग्री सेंटीग्रेड तक तापमान पैदा हुआ. ये सूरज के बराबर का तापमान है. ब्लास्ट से करीब 1000 टन की चट्टान या छोटी पहाड़ी तुरंत भाप बन गई और चट्टान के नीचे धंसने के साथ ही उतनी ही चट्टान और पिघल गई. वो फौरन ठंडी हो गई और उसने रेडियो-एक्टिविटी को रोक दिया. फुटबॉल के मैदान के बराबर की ज़मीन कई मीटर ऊपर उठ गई. आसपास लगे दर्जनों भूकंपमापी यंत्रों ने तुरंत परीक्षण को रिकॉर्ड करके उसकी पुष्टि कर दी.

राज चेंगप्पा अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि सुरक्षित दूरी से विस्फोट देख रहे सैकड़ों सैनिक बरबस ही ‘भारत माता की जय’ बोल पड़े. वैज्ञानिकों ने एक-दूसरे को गले लगा लिया. चिदंबरम ने 1974 जितना ही रोमांच महसूस किया. काकोडकर हमेशा की तरह शांत थे. उन्होंने कहा, ‘हमने अपना काम कर दिया है.’ फिर धीरे से बोले, ‘सफलतापूर्वक’. ये सारे लोग दो दिन बाद फिर उसी जगह गए और उन्होंने दो और परीक्षण किए. ‘सफलतापूर्वक’.

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