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1989 में रिहा किए 70 आतंकियों ने ही कश्मीर में कहर बरपाया-पूर्व डीजीपी. - श्रीनारद मीडिया

1989 में रिहा किए 70 आतंकियों ने ही कश्मीर में कहर बरपाया–पूर्व डीजीपी.

1989 में रिहा किए 70 आतंकियों ने ही कश्मीर में कहर बरपाया–पूर्व डीजीपी.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

द कश्मीर फाइल्स फिल्म को लेकर शुरू हुई बहस के बाद अब जम्मू कश्मीर में आतंकी हिंसा और अलगाववादी गतिविधियों के कई घिनौने सच सामने आने लगे हैं। अब जम्मू कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक डा. शेषपाल वैद ने नया राजफाश करते हुए कहा कि वर्ष 1989 में तत्कालीन सरकार और अधिकारियों के गलत और अपरिक्त फैसले के कारण 70 आतंकियों को छोड़ दिया गया। बाद में यही आतंकी विभिन्न संगठनों के प्रमुख कमांडर बने और उसके बाद की कहानी सभी जानते हैं।

31 दिसंबर 2016 से छह सितंबर 2018 तक पुलिस के प्रमुख रहे डा शेष पाल वैद 30 अक्टूबर 2019 को सेवानिवृत्त हुए हैं। उन्होंने द कश्मीर फाइल्स फिल्म पर शुरू हुुई बहस का जिक्र करते हुए कहा आतंकी हिंसा के लिए, कश्मीरी पंडितों के विस्थापन के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं। उन्होंने कहा कि जिस समय आतंकवाद सिर उठा रहा था, उस समय कई गलत और अपरिपक्व फैसले लिए जिनका खमियाजा आज तक भुगता जा रहा है।

उन्होंने कहा कि मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि 1989 मेें पुलिस ने जान हथेली पर रखकर कश्मीर में अलग अलग अभियान चलाकर 70 आतंकी पकड़े थे। यह सभी आतंकी उस समय पाकिस्तान से विध्वंसकारी गतिविधियों की ट्रेनिंग लेकर लौटे थे।

उन्होंने कहा कि मुझे आज भी उनमें से कई आतंकियों के नाम याद हैं। इनमें उत्तरी कश्मीर में त्रेहगाम कुपवाड़ा का मोहम्मद अफजल शेख भी शामिल था। अन्य आतंकियों में रफीक अहमद अहंगर, मोहम्मद अयूब नजार, फारूक अहमद गनई, गुलाम मोहम्मद गोजरी, फारूक अहमद मलिक, नजीर अहमद शेख, गुलाम मोहिउद्दीन तेली के नाम उल्लेखनीय हैं। मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि आखिर क्या कारण था कि इन्हें रिहा कर दिया। रिहा होने के बाद इनमें से कइयों ने नए आतंकी संगठन तैयार किए और कइयों ने अपने अपने इलाकों में जाकर नए आतंकियों की फौज तैयार कर, घाटी में कत्लेआम शुरू कर दिया था।

उस समय मैं एएसपी था, सवाल नहीं कर सकता था : डा. वैद के मुताबिक, उस समय मैं एएसपी था,इसलिए अपने वरिष्ठजनों से, तत्कालीन सत्ताधारी वर्ग से कोई सवाल नहीं कर सकता था। यह कदम तत्कालीन प्रदेश सरकार और तत्कालीन केंद्र सरकार की सहमति से ही उठाया गया होगा। इस फैसले से आतंकियों और उनके आकाओं में जम्मू कश्मीर व भारत के तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व की कमजोरी का संदेश होगा। किन लोगों ने यह फैसला लिया, उन्होंने क्या सोचा होगा, मैं उस पर अभी कुछ कहने में समर्थ नहीं हूं। इसका जवाब वही लोग देने में समर्थ हैं,जो उस समय नीति निर्धारक थे।

फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ प्रदर्शित होने के तीन दशक बाद कश्मीरी हिंदुओं के विस्थापन और हत्याओं की वीभत्स सच्चाई धीरे-धीरे बाहर निकल रही है। नौवें दशक के अंत में कुख्यात आतंकी बिट्टा कराटे कश्मीरी ङ्क्षहदुओं का चुन-चुन कर खून बहाता रहा। बिट्टा पकड़े जाने के बाद फिर बाहर आकर दोबारा आतंकी गतिविधियां में जुट जाता। अलबत्ता, मौजूदा समय में वह एक अन्य मामले में तिहाड़ जेल में बंद है।

22 जून, 1990 को जब उसे श्रीनगर में सीमा सुरक्षाबल के जवानों ने पकड़ा था तो उस समय तक वह लगभग डेढ़ दर्जन कश्मीरी हिंदुओं को मौत के घाट उतार चुका था। उसने हिंदुओं समुदाय के उन नौजवानों को भी नहीं बख्शा था, जिनके साथ वह एक ही थाली में खाना खाता था। वर्ष 2006 में जेल से रिहा होने से पूर्व उसे कभी अपने किए पर अफसोस नहीं हुआ। राजकीय मेडिकल कालेज अस्पताल जम्मू में 1997 की गर्मियों में जब उसे स्वास्थ्य जांच के लिए लाया गया था तो उसने यह जरूर कहा था कि जो लोग कश्मीर की आजादी के नाम पर घर भर रहे हैं, उनका भी हिसाब होगा।

तिहाड़ जेल में ही बंद जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के कमांडर रहे यासीन मलिक के बंदूक छोडऩे का एलान करने पर ही बिट्टा कराटे के मतभेद शुरू हुए थे। वह हिंदुओं के कत्ल को शौक मानता था। जेल से रिहा होने से पूर्व उसने खुद कई बार मीडियाकर्मियों से बातचीत में गुनाहों को यूं कुबूला, जैसे वह किसी खेल का हिस्सा हों। उसे खुद भी याद नहीं है कि उसने कितनी हत्याएं की हैं। वह सिर्फ यही कहता था कि मुझे सिर्फ हुक्म आता था और मैं उसे पूरा करता था।

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शूटर की तरह काम करता था बिट्टा : जम्मू कश्मीर लिबरेशल फ्रंट (जेकेएलएफ) के दुर्दांत आतंकियों में शामिल रहे पूर्व आतंकी कमांडर ने अपना नाम न छापे जाने की शर्त पर कहा कि उस समय जहां अन्य आतंकी सुरक्षाबलों पर हमला कर भागने की रणनीति पर काम करते थे, तो बिट्टा शूटर की तरह सिर्फ चुनिंदा हत्याओं के लिए निकलता था। वह किसी को भी आराम से गोली मार सकता था। फारूक अहमद उर्फ बिट्टा के नाम से ही लोग डर जाते थे।

गुलाम कश्मीर से लेकर अमेरिका व इंग्लैंड में जुड़े थे तार : वर्ष 2006 में जेल से रिहा होने के बाद वह जेकेएलएफ के यासीन मलिक गुट में जाने के बजाय राजबाग गुट जिसके तार गुलाम कश्मीर में अमानुल्ला खान और अमेरिका व इंग्लैंड में बैठे पुराने अलगाववादियों से जुड़े थे, में शामिल हुआ। वर्ष 2008 में वह महिला पत्रकार अस्बाह अर्जुमंद के संपर्क में आया जो उस समय कश्मीर में मानवाधिकारों के मुद्दे पर किसी प्रोजेक्ट पर काम कर रही थी। इससे पूर्व दोनों एक परिचित की शादी में मिले थे। वर्ष 2011 में अस्बाह अर्जुमंद से फारूक अहमद डार उर्फ बिट्टा कराटे ने शादी की। बिट्टा की पत्नी जम्मू-कश्मीर सरकार में वरिष्ठ नौकरशाह है।

2017 में स्टिंग आपरेशन में फिर पकड़ा था : बिट्टा कराटे शायद आज भी जेल से बाहर होता अगर 2017 में एक स्टिंग आपरेशन के दौरान वह कश्मीर में टेरर फंडिंग में संलिप्तता को न स्वीकारता। बिट्टा पर दर्ज एक मामले की जांच में शामिल रहे पूर्व पुलिस अधिकारी ने कहा कि उसके खिलाफ कोई गवाही देने नहीं आता था। इसी कारण वह 16 साल बाद जेल से निकलने में कामयाब रहा था। खैर, अब टेरर फंडिंग के मामले में फंसने के बाद उसके बचने की उम्मीद कम है।

कराटे में माहिर होने पर नाम पड़ा : कराटे में ब्लैक बेल्ट होने के कारण उसका नाम बिट्टा कराटे रखा गया। 1988 में जेकेएलएफ के कमांडर अश्फाक अहमद मजीद बिट्टा कराटे को गुलाम कश्मीर ले गया था। यहां बिट्टा को आतंकी प्रशिक्षण दिया गया।

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