संत  बिंदु जी महराज ने जवाहर लाल नेहरू के प्रस्‍ताव को दिया ठुकरा, पढ़े पूरा कहानी 

संत  बिंदु जी महराज ने जवाहर लाल नेहरू के प्रस्‍ताव को दिया ठुकरा, पढ़े पूरा कहानी

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

वृंदावन में बिहारी जी ने कहा था ‘क्यों ! आज नाँय सुनाओगे अपनी कविता ?’

श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्‍क:

अयोध्या जैसी पावन नगरी में राधाष्टमी के दिन 1893 में जन्मे  गोस्वामी बिन्दु जी महाराज की शिक्षा, धार्मिक दीक्षा अयोध्या में हुई। रामायण, भागवत, भागवत गीता एवं अन्य शास्त्रों व पुराणों का उन्होंने  सम्यक अध्ययन किया। वे महान वक्ता, प्रवचनकर्ता और संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, ब्रज भाषा, अवधी, भोजपुरी आदि के ज्ञाता थे। बिंदु जी महान कवि, भजन लेखक, संगीतकार थे। श्री रामचरित मानस उन्हें बहुत प्रिय थी और कहते हैं कि जब वे मानस पर आधारित प्रवचन करते तो सब कुछ भूल कर लोग उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे। आध्यात्म रस में वे इस तरह डूबे थे कि उनकी प्रसिद्धि देख कर जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया था लेकिन उन्होंने यह कह कर ठुकरा दिया था कि वे आध्यात्मिक व्यक्ति हैं।

 

वृन्दावन में बिंदु जी ने प्रेम धाम आश्रम की स्थापना कीI उनका मानना था कि श्रद्धा एवं प्रेम सभी धर्मों से महान हैं और प्रेम ही ईश्वर है। उन्होंने “मोहन मोहिनी”, “मानस माधुरी”, “राम राज्य”, “कीर्तन मंजरी”, “पाषाणी अहिल्या”, “मानस का मल्लाह”, “धर्मावतार”, “मुरली मनोहर”, “राम गीता”, “रास पंचाध्यायी”, “सुमन संची”, ” बोध वाणी”, “नवयुग विनोद” आदि ग्रंथों की रचना की।

देश भर में बिंदु जी के असंख्य शिष्य थे जिन्हें उनके प्रवचन बहुत भाते थे। । जब वे वाराणसी  में अपना व्याख्यान देते थे तो लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे। जब वे रामधुन गाते लोग भक्तिभाव में डूब जाते। कहते हैं कि उस वक्त एक बार चित्रकूट में उनका व्य़ाख्यान सुनने के लिए 20 लाख लोगों की भीड़ जुटी थी।

देशभक्तिपूर्ण नाटकों, कविताओं आदि कि रचना कर भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी बिंदु जी ने अपना योगदान दिया।  अपनी पुस्तक में उन्होंने ब्रिटिश सरकार को एक “रावण” की सरकार कहा था। इस पर सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, उन्हें न्यायालय में पेश किया गया उन पर गंभीर आरोप लगाया गया। उन्होंने न्यायालय में कहा ’मैंने वहाँ जो लिखा उसे यदि आप स्वीकार करते हैं कि वास्तव में यह एक रावण के जैसी सरकार है तो मैं कोई भी दण्ड पाने को तैयार हूं” । यह सुन कर उन्हें मुक्त कर दिया गया लेकिन उनकी पुस्तक पर तब भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया।

महात्मा गाँधी भी उन्हें बहुत मानते थे। उन्होंने उन्हें दो बार व्याख्यान देनॆ के लिए भी आमन्त्रित किया ताकि वे स्वयं उनको सुन सकें। गांधी जी ने उन्होंने उन्हें एक पुस्तक लिखने के लिये कहा था उनके कहने पर बिन्दु जी ने ‘राष्ट्रीय रामायण’ एवं ‘राम’ राज्य की रचना की।

राजनीति में बिंदु जी की कोई रूचि नहीं थी। भारत के प्रथम प्रधान्मन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें चुनाव लड़ने के लिये आमन्त्रित किया था क्योंकि उन्हें पता था कि वे बहुत प्रसिद्ध हैं  लोग उन्हें पसन्द करते हैं लेकिन उन्होंने प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया और कहा: ’मैं एक राजनीतिक व्यक्ति नहीं हूँ। मैं आध्यात्मिक हूँ और केवल आध्यात्मिक ही रहना चाहता हूँ’।

आज जो कोई भी रामायण, भागवत एवं गीता पर व्याख्यान देता है या हिन्दी भजन तथा कीर्तन गाता है, वे सभी उनके लिखे गीतों का ही गान करता है। बिन्दु जी महाराज ने सर्वप्रथम एक आधुनिक सैद्धान्तिक उपदेश शैली का प्रयोग किया।उनके द्वारा रचा गया भक्ति साहित्य, गीत, भजन रहती दुनिया तक भक्तजनों द्वारा गाये जाते रहेंगे।

बिंदु जी के पुत्र सन्त गोस्वामी श्री बालक राम शरण जी “बिन्दुपाद” श्री बिन्दु सेवा संस्थान, वृन्दावन के संस्थापक  ने अपने गुरू का सच्चे अर्थ में अनुसरण किया और अपने पूर्वजों द्वारा छोड़े गये अधूरे कार्यों को और आगे बढ़ाया। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन सर्वधार्मिक श्री राम कथा के सम्बन्ध में जनसाधारण की जागरूकता पैदा करने के लिये समर्पित करने का प्रण किया।

आज बालकराम जी आश्रम में रहते है तथा सस्कृत विद्यार्थीयों को संस्कृत विषय का अध्यन कराते हैं व मानव सेवा कार्यों से भी जुड़े हैं।

गोस्वामी बिंदुजी महाराज जी बिहारी जी अर्थात श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे । वे प्रतिदिन एक नयी रचना  श्रीबिहारीजी महाराज को सुनाने के लिए रचते और संध्या समय जब बिहारीजी के दर्शन के लिए जाते तो उन्हें सुनाते थे। उनका मधुर स्वर दर्शनार्थियों को मुग्ध कर देता था।

एक बार बिंदुजी महाराज ज्वर से ग्रस्त हो गए । कई दिनों तक कंपकंपी देकर ज्वर आता रहा । शिष्य सेवा में लगे थे । वैद्य को बुलाया गया जिनकी औषधि से  बिंदुजी का ज्वर तीन-चार दिनों बाद हल्का हो गया।

बिंदुजी के शिष्यों ने श्रीबिहाराजी की श्रृंगार आरती से लौट कर चरणामृत और तुलसी पत्र अपने गुरुदेव बिंदुजीजी को दिया । बिंदुजी ने शिष्य से कहा कि वे आज संध्या को श्रीबिहारी जी के दर्शन की इच्छा है। शिष्य  ने कहा पर महाराज आप बहुत कमजोर हैं कैसे चल पायेंगे। बिंदु जी बोले कुछ नहीं होगा ठाकुर जी को देखे कई दिन हो गये। शिष्य ने भी हामी भर ली और अपने काम में जुट गया।

बिंदु जी अचानक व्यग्र हो उठे । अब तक कभी ऐसा नहीं हुआ, जब बिंदुजी श्रीबिहारीजी के दर्शन को गये हों और उन्हे कोई नयी स्वरचित काव्य रचना न अर्पित की हो । आज उनके पास कोई रचना नही थी । उन्होंने कागज़ कलम लेकर लिखने का प्रयास भी किया । शारीरिक दुर्बलता के कारण वे ऐसा नहीं कर सके।

सूर्यस्त होने को आया। तभी बिंदुजी ने अपने शिष्य को आवाज दी। उसे पुरानी चादर देने को कहा। वह समझ ना सका कि गुरु जी पुरानी चादर क्यों मांग रहे हैं लेकिन उसने निकाल कर दे दी। चादर बहुत पुरानी थी और उसमें कई पैबंद लगे थे। बिंदुजी ने चादर को सहेज कर अपने  रख लिया ।

सूर्यास्त हो जाने पर बिंदुजी श्रीबिहारीजी महाराज के दर्शन करने निकले तो उन्होंने वही चादर ओढ़ ली थी ।   दुकानों पर प्रकाश की जो व्यवस्था उसी से बाजार  प्रकाशित रहते थे । शिष्य भी चुपचाप गुरूजी के पीछे चल दिये ।

श्रीबिहारीजी महाराज के मंदिर में पहुँच कर बिंदुजी  शिष्य का सहारा लेकर सीढ़ियां चढ़ी और श्रीबिहारीजी महाराज के दाहिने ओर वाले चबूतरे के सहारे द्वार से लग कर दर्शन करने लगे ।

जब तक वहाँ खड़े रहे उनकी दोनों आँखों से बिना रुके आंसुओं की धार बहती रही । आज उनके पास कोई रचना तो थी नही जिसे बिहारीजी को सुनाते । वे चुपचाप दर्शन करते रहे । काफी समय बीतने के बाद उन्होंने वहां से चलने की इच्छा से चबूतरे पर सिर टिकाकर दंडवत प्रणाम किया । बिहारी जी को जी भर के देखा और जैसे ही वहां से वे चलने लगे तभी नूपुरों की ध्वनि से उनके पैर रुक गये । उनहोंने जो कुछ देखा वह अद्भुत था ।

मंदिर के अपने सिंघासन से उतर कर बिहारीजी महाराज बिंदु जी के सामने आ खड़े हुए ।

‘क्यों ! आज नाँय सुनाओगे अपनी कविता ?’ अक्षर-अक्षर  खनकती सी मधुर आवाज उन्हें सुनाई दी। उन्होंने देखा-बिहारीजी ने उनकी चादर का छोर अपने हाथ में पकड़ रखा है । ‘सुनाओ न !’ एक बार फिर आग्रह के साथ बिहारीजी ने कहा । यह स्वप्न था या साक्षात इसका निर्णय कौन करता । बिंदुजी तो जैसे आत्म-सुध ही खो बैठे थे । शरीर  की कमजोरी न जाने कहां विलुप्त हो गयी। वे पुनः सहारा लेकर खड़े हो गए । आँखों से आंसुओं की धार, गदगद हृदय , पुलकित देह आंनद विभोर हो गये। सहसा बिंदुजी के मधुर स्वर ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा । लोग कभी उनकी तरफ देखते कभी उनकी चादर की ओर, किन्तु श्रीबिन्दु थे की श्रीबिहारीजी की ओर अपलक देख रहे थे । बिंदुजी देर तक गाते रहे-

बिंदुजी को वृंदावन से अगाध प्रेम था वह वृंदावन में अपना शरीर त्याग करना चाहते थे। जब बिंदु जी बीमार हुए तो उन्हें दिल्ली के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया। जब उनकी स्थिति गंभीर होने लगी तो उन्होंने अपने बेटे बालकराम जी से उन्होंने अपनी इस अंतिम  इच्छा जतायी। उन्होंने कहा कि वे वृंदावन में ही अंतिम सांस लेना चाहते हैं। उनकी अंतिम इच्छा का आदर करते हुए बालकराम उन्हें वृंदावन ले आये। 1 दिसम्बर, 1964 को उन्होंने वृन्दावन के प्रेम आश्रम में अंतिम सांस ली।

साभार – राजेश त्रिपाठी के ब्‍लाग से

 

Leave a Reply

error: Content is protected !!