सरधा के अँजुरी:तैयब हुसैन पीड़ित
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
तैयब हुसैन ‘पीड़ित’ के रचना संसार में जे गहराई बा, ओकरे भीतर एगो धड़कत नाम अउरी बा—भिखारी ठाकुर। ‘पीड़ित’ जी के समझदारी आ समालोचना के दृष्टि से जब हम भिखारी ठाकुर के रचना के देखीलें, त बुझाइला कि ई समीक्षा सिरिफ साहित्यिक गद्य ना, बलुक एगो संवेदनात्मक आत्म-संवाद ह। पीड़ित, भिखारी ठाकुर के ना त बस नाट्यकार मानलें, ना लोकगायक; ऊ उनका के भोजपुरी जनता के आत्मा कहके पुकरलें। उनका समीक्षा में, भिखारी ठाकुर कोई ठेठ देहाती कलाकार ना रह जालें, ऊ बन जालें ओह समय के आदिवाणी—जे उपेक्षित जनता के मुंह से निकलल चुप्प विद्रोह रहे।
भिखारी ठाकुर पर पीड़ित के दृष्टि, लोक के भीतर समाइल राजनीतिकता के उघार करत बा। ऊ देखावत बाड़न कि केहू बाल मजदूरी के, स्त्री उत्पीड़न के या पलायन के कविता में ना, जीवन के अभिनय में उतार देवे—त ऊ भिखारी ठाकुर हउवें। पीड़ित के आलोचना में भिखारी के रचना के माटी-मुहावरा जियतार बा। ऊ उनकर गीत-नाटक के सामाजिक पाठ देत बाड़न बाकिर ओह में नैतिकता के फतवा ना, बल्कि समवेदना के उजास बा।
तैयब हुसैन पीड़ित कहेलन कि भिखारी ठाकुर आपन शब्द में ना, आपन मौन में बोलत रहलें। “बेटी बेचवा” जेह समय में लिखल गइल, ओह समय समाज के मर्यादा ओहि विषय के मंच पर लावे से काँप जाला। लेकिन भिखारी ठाकुर काँपले नइखन, ना पीड़ित काँपलें, जब ऊ कहेलन कि ‘भिखारी ठाकुर भोजपुरिया समाज के आत्म-आलोचक हउवें।’ ई आलोचना ना, ई समर्पण बा—जइसन कोइलवा कंठ से गावत बा, लेकिन आँख में नमी बा।
पीड़ित के लेखन भिखारी ठाकुर के लोक नायकत्व के सीमित ना करेला। ऊ उनकर बिंब, शैली, भाषा, संवाद-शक्ति, आ दर्शक से उनकर संवाद कौशल पर प्रकाश डालत बाड़न। ऊ कहेलन कि भिखारी ठाकुर के नाटक, शास्त्रीय रंगमंच के विरोध में खड़ा लोक नाटक ह लेकिन ओकर भीतर संगीत के शुद्धता, अभिनय के लयबद्धता आ कथ्य के त्रासदी ओतने विराट बा, जतना यूनानी त्रासदियन में मिलेला। ई तुलना साहित्यिक चमत्कार ना ह, पीड़ित के आस्था ह—लोक के कला पर।
उनकर आलोचना में भिखारी ठाकुर के स्त्री दृष्टि पर भी विशेष ध्यान बा। ऊ देखावत बाड़न कि कैसे भिखारी ठाकुर भोजपुरी समाज में नारी के सिर्फ रोए वाली ना, बोए वाली आवाज देत बाड़न। ‘गबर घिचोर’ होखे भा ‘बेटी बेचवा’, उनकर संवाद भोजपुरी स्त्री के अंधकार से उजाले में ले आवे के कोशिश बा। पीड़ित भिखारी ठाकुर के ‘जन-कलाकार’ कह के उनका काव्यत्व को लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्र से जोड़त बाड़न। ऊ बतावत बाड़न कि उनका नाटक में सौंदर्य शब्द के सजावटी पक्ष ना बल्कि आत्मा के व्यथा ह।
तैयब हुसैन पीड़ित के आलोचना में भिखारी ठाकुर के प्रति सम्मान अंधश्रद्धा ना बन पावेला। ऊ तटस्थ आलोचक बनके भिखारी ठाकुर के उस पार भी देखे के साहस करेलें। ऊ देखेलन कि कहीं-कहीं भिखारी ठाकुर के मंचन-शैली में जोकरपन हावी हो जाला, लेकिन ओह पर हँसी नइखे, चिंता बा। आलोचना के ई स्वर संवेदना के उचाई पर बा—जाहां आलोचक, आलोचक ना रह जाला, ओह कलाकार के भीतर पैठ के ऊ खुदे ओकर संग बोलत लागेला।
ई जोड़ल जरूरी बा कि तैयब हुसैन पीड़ित, भिखारी ठाकुर के परंपरा के सिर्फ व्याख्याकार नइखन, बलुक वारिस हउवें। जे भिखारी भोजपुरी के नाटक के धरती दिहलें, पीड़ित ओहमें कविता के बरगद रोपलें। भिखारी ठाकुर के आलोचना के बहाने पीड़ित भोजपुरिया समाज के आत्म-विश्लेषण करत बाड़न, आ भोजपुरी साहित्य के एगो नया सौंदर्यशास्त्र गढ़त बाड़न—जहाँ लोक ना, ‘लोक का लोक’ बोलेला।
एह तरह, तैयब हुसैन पीड़ित के समालोचना ना त पंडिताऊ किसिम के विवेचन ह, ना भाषाशास्त्रीय लटकन। ऊ आलोचना ना, आत्म-विसर्जन ह। ओहमें भाषा के आदर बा, कलाकार के गरिमा बा, आ लोक के गूढ़तम पीड़ा के साक्षात्कार बा। भिखारी ठाकुर पर पीड़ित के लिखल एक-एक शब्द भोजपुरिया जन के माथा पर चढ़ावल ताज जइसन बा—माटी से बनल, लोर से भीजल, आ धूप में तपल। ई आलोचना आजो बतावेला कि भोजपुरी के असली सौंदर्य त ओह लोगन के हाथ में बा, जे पीड़ित भा भिखारी नियन पीड़ा से निकल के कविता बना देला।
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