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परिवार में समर्पण की पराकाष्ठा का महापर्व है श्री राम नवमी - श्रीनारद मीडिया

परिवार में समर्पण की पराकाष्ठा का महापर्व है श्री राम नवमी

परिवार में समर्पण की पराकाष्ठा का महापर्व है श्री राम नवमी

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श्रीनारद मीडिया, वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक, हरियाणा

समय बड़ा बलवान है ले लो इस से सीख।
रंक बैठाये सिंहासन और राजा से मंगाये भीख।।
श्री राम नवमी महापर्व 6 अप्रैल पर विशेष।

 

समय बड़ा बलवान है जो किसी से कभी भी कुछ भी करवा सकता है, बस विधि ऐसा किसी के साथ न करें, किसी को परीक्षा में न डाले। लेकिन इन कठिन परीक्षाओं में जहां आज का मानव टूट जाता है और धर्म का भी त्याग कर देता हैं वहीं त्रेतायुग और द्वापरयुग के घटनाक्रम से सनातन जगत भली प्रकार से परिचित है जिनमें महापुरुषों ने विषम से विषमतम परिस्थिति में धर्म को नहीं छोड़ा।

जिसमें सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र को सत्यपालन की कठोर परीक्षा से गुजरना पड़ता है और श्मशान में भी उन्हें सत्य की परीक्षा में पराकाष्ठा सिद्ध करनी पड़ती है जब उनका पुत्र रोहिताश्व का शव आता है।द्वापरयुग महाभारत युद्ध में समय ने भीष्म पितामह को शिखण्डी के माध्यम से मरवा दिया और कर्ण को जब उसके रथ का पहिया एक गड्ढे में फंस गया था। इसी महाभारत काल खण्ड में पारिवारिक एकता और समर्पण का एक अनूठा दृष्टांत भी आता है जब अज्ञातवास में पांडव बंधु विराट नरेश के यहां आश्रय प्राप्त करते हैं।

हस्तिनापुर में जुए में सर्वस्व हारने वाले महाराज युधिष्ठिर कंक बन कर विराट नरेश को जुआ खेलना सिखाते है, त्रिभुवनसुन्दरी द्रौपदी एक प्रसाधन सैरन्ध्री बनती है। दस हजार हाथियों के बल रखने वाले भीम एक रसोइया बनते है, श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन एक नपुंसक बनते हैं और अश्विनीकुमार के अवतार नकुल और सहदेव राजा की घुड़साल के नौकर बन कर पशुओं को चारा डालते हैं। लेकिन जीवन के इस विषम समय में पारिवारिक एकता के धर्म को निभाते हैं।

इसी सन्दर्भ में पारिवारिक एकता की पराकाष्ठा के दो दृष्टान्त रामायण काल में घटित होते हैं जब कुंभकर्ण यह जानने के बाद भी कि रावण ने जगदंबिका का अपहरण कर के एक निंदनीय कार्य किया है लेकिन मैं इस कठिन समय में विभीषण नहीं बनूंगा। सबसे महान कृत्य तो महाराज दशरथ की अयोध्या में हुआ जब भगवान श्रीराम ने माता पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए बनवास स्वीकार किया कि भरत राजा बनें वहीं युवराज भरत ने राजा बनने से इन्कार कर दिया और बन से भाई श्रीराम को वापिस लाने के लिए चित्रकूट गए,

लेकिन भगवान श्रीराम तो 14 वर्ष बनवासी होने की प्रतिज्ञा से बंधे थे तो उन्होंने भरत को खड़ाऊं दे कर वापिस अयोध्या जाने का आदेश दिया तो युवराज भरत ने उन चरण पादुकाओं को राजसिंहासन पर आरूढ़ कर दिया और परिवार में समर्पण की पराकाष्ठा का यह परिणाम निकला कि किसी शत्रु ने भी अवध की ओर गलत दृष्टि नहीं रखी।

आज इसी स्तर पारिवारिक एकता की परम आवश्यकता है लेकिन कलियुग के प्रभाव के कारण पूरे विश्व में विघटन अराजकता अर्थिक सामाजिक और आध्यात्मिक असन्तुलन व्याप्त है।

गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज श्री ने श्रीरामचरितमानस के. श्री सुन्दरकाण्ड की 50 वीं चौपाई में पारिवारिक एकता के महत्व पर यह कहा कि..
अस प्रभ छाङि भजही जे आना।

ते नर पसु बिनु पूछ बिषाना।।
अन्त में इस चर्चा का उपसंहार करें कि …
राष्ट्र की आज की इस छद्म व्यवस्था से हम को बाहर निकलना है …
हम तेरे शहर में खुश भी हैं और महफ़ूज़ भी।
यह सच नहीं है पर ऐतबार करना है।।

इन पंक्तियों को हम सब अपने जीवन में उतारें कि गोस्वामीजी के शब्दों का महत्व हमारे जीवन के हर क्षेत्र मे है चाहे वह घर परिवार हो या समाज, नगर हो या राज्य, संस्थाएं हो या राजनीतिक दल सभी अपने अपने दलगत नीतियों पर चलें ताकि राष्ट्र में रामराज्य की स्थापना हो सके।

चैत्र नवरात्र श्री दुर्गाष्टमी और श्री रामनवमी महापर्व पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं मंगलकामनाएं।

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