स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति व सिद्धि उनके भीतर प्रविष्ट करा दी थी.

स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति व सिद्धि उनके भीतर प्रविष्ट करा दी थी.

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

स्वामी विवेकानंद (बचपन का नाम नरेंद्र नाथ दत्त) जब 23 वर्ष के थे, तभी उनके गुरु रामकृष्ण ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति व सिद्धि उनके भीतर प्रविष्ट करा दी और कहा कि मेरे द्वारा संचरित इसी शक्ति द्वारा तुम महान कार्य करोगे. उसके बाद तुम जहां से आये हो, वहां चले जाओगे. इसके बाद नरेंद्र ने रामकृष्ण को साक्षी मान कर संन्यास धारण करने की प्रतिज्ञा की और आश्रम में निवास करने लगे.

संन्यासी बनने के बाद जिज्ञासु बन कर वे भारत भ्रमण पर निकल पड़े. भ्रमण के अंतिम दौर में 24 दिसंबर, 1892 को वे कन्याकुमारी पहुंचे. यहीं उन्होंने भारतीय संस्कृति व धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए पश्चिम के देशों की ओर जाने और सितंबर, 1893 में अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में भाग लेने का निर्णय लिया. ग्यारह सितंबर, 1893 को जब शिकागो के कोलंबस हॉल में धर्म संसद का शुभारंभ हुआ, तब स्वामी जी ने अपना व्याख्यान, ‘अमेरिकी बहनों एवं भाइयों’ से प्रारंभ किया.

उनके इस उद्बोधन ने उस हॉल में उपस्थित लोगों को इतना आह्लादित कर दिया कि वे खड़े होकर तीन मिनट तक तालियां बजाते रहे. उसके बाद स्वामी जी ने हिंदुत्व के विराट स्वरूप पर विस्तृत प्रकाश डाला. धर्म संसद की समाप्ति के बाद अमेरिका भ्रमण करते हुए उन्होंने अपने व्याख्यानों के जरिये शिक्षा, राजयोग, ज्ञानयोग की बातें बतायीं. सनातन धर्म में निहित सर्वव्यापी भाईचारा, अनेकता में एकता और कर्म की शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया.

वर्ष 1897 में स्वामी जी भारत लौट आये और रामकृष्ण मिशन की स्थापना की. इस मिशन का उद्देश्य मानवतावादी तथा आध्यात्मिक है. विवेकानंद ने राष्ट्रप्रेम को राष्ट्र निवासियों के प्रति प्रेम से जोड़कर देखा. उन्होंने बार-बार युवकों से मनुष्य बनने का आह्वान किया. स्वामी जी धर्म को नियमों और मान्यताओं में नहीं बांधते थे. धर्म के मामले में उनका विचार बेहद उदार था.

वे एक ऐसे विश्व धर्म की कल्पना करते थे, जो समुद्र की तरह हो, जिसमें नदियों की तरह तमाम पंथ मिले हों. उनके लिए धर्म ऐंद्रिय भूमि से परे इंद्रियातीत भूमि से जुड़ा था, जो बाहर से न आकर व्यक्ति के भीतर से उत्पन्न होता है. स्वामी जी मानते थे कि जिस प्रकार किसी व्यक्ति का अपना एक विशेष स्वभाव होता है और वही उसके जीवन का केंद्र भी, उसी तरह प्रत्येक राष्ट्र का अपना एक विशेष स्वभाव और केंद्र होता है.

यह स्वभाव उसकी संस्कृति से उत्पन्न होता है. जो एक दिन की नहीं, बल्कि शताब्दियों की उपलब्धि होती है. इसी संस्कृति के चारों ओर उस राष्ट्र का जीवन संचालित होता है. स्वामी जी ने धर्म और संप्रदाय को बार-बार स्पष्ट किया तथा धर्म को तीन स्तरों में बांटा- दर्शन, पुराण और कर्मकांड.

दर्शन से तात्पर्य उन मूल्यों और आदर्शों से है, जो व्यक्ति और समाज के जीवन को दिशा और दृष्टि प्रदान करते हैं. व्यक्ति के आत्मिक विकास और उसके चिंतन के आधार स्तंभ होते हैं. पुराण से अर्थ ऐसे महापुरुषों, अवतारों के जीवनवृत्त से है, जिससे व्यक्ति को प्रेरणा मिलती है. कर्मकांड से तात्पर्य पूजा पद्धतियों से है, जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी आस्था को व्यक्त करता है.

अपने लिए आत्मबल, आत्मशक्ति की चाह करता है. उनका कहना था कि जिसमें इन तीनों की पूर्णता होती है वही सही धर्म है. उनकी मान्यता थी कि संसार के सारे धर्म, दर्शन के स्तर पर एक होते हैं. सभी में आदर्श और मूल्य समान होते हैं. धर्म में अवतारों की परंपरा से ही अलग-अलग संप्रदायों का जन्म होता है. संप्रदाय कर्मकांडों के स्तर पर पहुंच कर और अधिक उपभेदों में बंट जाते हैं. इस प्रकार भेद धर्म के स्तर पर नहीं, बल्कि संप्रदाय के स्तर पर होता है. धर्म जहां एक है, वहीं संप्रदाय अनेक हैं.

उन्हें इस बात का गहरा दुख था कि भारत के नवयुवकों की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा नौकरी पाने की होती है. युवाओं के आगे आज सबसे बड़ा संकट आत्मशक्ति, आत्मबोध का है. आज युवाओं में लक्ष्य के नाम पर भौतिक कामनाएं सर्वोपरि हैं. इसलिए वे जीवन में किसी बड़े ध्येय की तरफ धैर्यपूर्वक बढ़ने का न तो निर्णय ले पाते हैं, न ही साहस दिखा पाते हैं.

फलतः, उनके जीवन और देश के प्रति कर्तव्य के बीच भ्रमपूर्ण स्थिति बनी रहती है. इन स्थितियों से बाहर आने के लिए सबसे आवश्यक है आत्मबोध, जिसके लिए स्वामी जी ने कहा कि स्वयं को समझाएं, दूसरों को समझाएं, सोई हुई आत्मा को आवाज दें और देखें कि वह कैसे जागृत होती है. इसके जागृत हो जाने पर शक्ति, उन्नति, अच्छाई सब कुछ आ जायेगी. स्वामी विवेकानंद ने सफलता के लिए तीन बातें आवश्यक बतायी हैं.

शुद्धता, धैर्य और दृढ़ता. वे कहते हैं कि मेरी सारी शिक्षा वेदों के उन महान सत्यों पर आधारित है, जो हमें समानता और आत्मा की सर्वत्रता का ज्ञान देती है. मनुष्य में अंतर्निहित दिव्यता और उसके विकसित होने की अपार क्षमता के अतिरिक्त अन्य कोई सिद्धांत नहीं है. प्रत्येक को दूसरों की भावना आत्मसात करनी है और अपनी विशिष्टता को अक्षुण्ण रखते हुए अपने-अपने नियमों के अनुसार विकास करना है.

वे भारत को पूर्ण स्वतंत्र देखना चाहते थे, जहां धर्म, चिंतन-मनन, विचारों को व्यक्त करने, खान-पान की, वेशभूषा समेत सभी क्षेत्रों में स्वतंत्रता हो. ऐसी स्वतंत्रता जिसमें दूसरों को कोई हानि न पहुंचे. दिसंबर, 1900 में स्वामी जी बेलूर मठ वापस आ गये. वे बातचीत के दौरान प्रायः कहा करते थे कि मैं चालीस वर्ष तक नहीं पहुंच पाऊंगा. एक दिन उनके साथी संन्यासियों ने उनसे पूछ लिया कि ‘क्या आप अब तक अपने को समझ गये हैं कि आप कौन हैं?’ उनका उत्तर था- ‘हां मैं जान गया हूं.’ इस उत्तर को सुन संन्यासी समझ गये कि अब स्वामी जी समाधि ले लेंगे. चार जुलाई, 1902 को मात्र 39 वर्ष की अवस्था में वे महासमाधि में चले गये.

Leave a Reply

error: Content is protected !!