निशाना चूक जाने का अपराध बोध उसे मारे डाल रहा था

निशाना चूक जाने का अपराध बोध उसे मारे डाल रहा था

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

23 दिसम्बर सन 1930, स्थान- लाहौर सेंट्रल जेल।
पन्द्रह दिन से अंग्रेजी पुलिस की कैद में भयानक यातना झेलते उस युवक का चेहरा बदल चुका था। उसे उस भीषण सर्दी में बार बार बर्फ की सिल्लियों पर लिटाया गया था। दिन में कई कई बार उसे लाठी से पीटा जाता था। उसका सर दीवाल से भिड़ा कर फोड़ दिया गया था। वह युवक जैसे मृत्यु के ही द्वार पर खड़ा था।

युवक का अपराध भी कोई छोटा नहीं था। उसने पंजाब विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में आये पंजाब प्रांत के गवर्नर सर जेफ्री डी मोंटमोरेंसी पर तीन गोलियां चलाई थीं। फिर पकड़ने के लिए आगे बढ़े दो पुलिस अफसरों को मारा, कुछ और अंग्रेजों को घायल किया। अंततः पकड़ लिया गया और अब कैद में पड़ा यातना झेल रहा था।
उस पच्चीस साल के युवक को दी जा रही यातना से अधिक इस बात की पीड़ा थी कि वह मोंटमोरेंसी को मार न सका। निशाना चूक जाने का अपराध बोध उसे मारे डाल रहा था। वह कैदखाने की कोठरी के एक कोने में सिमटा रहता।
युवक के पिता को पन्द्रह दिनों बाद बेटे से मिलने की अनुमति मिली थी। पिता कोठरी के सामने पहुँचे। दोनों के बीच लगभग 20 फीट की दूरी थी। पिता की बुजुर्ग आंखे पुत्र के विकृत हो चुके चेहरे को पहचान नहीं पायीं। उन्होंने पहचानने के लिए पश्तो भाषा में कुछ पूछा और उत्तर मिलने के बाद पहचान सके।
होना तो यह चाहिये था कि मृत्यु के द्वार पर खड़े पुत्र को पहचान कर टूट जाता पिता! उसे सांत्वना देता, ढांढस देता, आशीर्वाद देता… पर कड़क स्वर में पूछा उन्होंने- तुम्हारा निशाना कैसे चूक गया हरिकिशन?
पुत्र ने थरथराते स्वर में कहा- मैं कुर्सी पर खड़ा हुआ था पिताजी! कुर्सी के नीचे की जमीन उबड़ खाबड़ थी जिसके कारण कुर्सी हिल गयी और निशाना चूक गया। लेकिन मैंने दो पुलिस अफसर को मौत के घाट उतारा है।
पिता ने सर झुका कर कहा- हरकिशन तलवार! यदि तुम्हारी गोली उस अंग्रेज अफसर की जान ले लेती तो मुझे गर्व होता… इतना कह कर पिता सर झुकाए लौट गया।
9 जून 1931 को हरिकिशन तलवार को रावलपिंडी के मियांवाली जेल में फाँसी दे दी गयी। और पिता? उनके कड़क पिता गुरुदास मल तलवार उसके पच्चीस दिन बाद ही 4 जुलाई को बेटे के पीछे निकल गए।
लगे हाथ बताते चलें- 1947 में हुए बटवारे के समय खैबर पख्तूनख्वा के मूल निवासी उस परिवार को भी पाकिस्तान में जगह नहीं मिली। उन्हें भी भाग कर भारत आना पड़ा। पाकिस्तान एक देश का नहीं, बर्बर मानसिकता का नाम है।

आभार- सर्वेश तिवारी श्रीमुख, गोपालगंज, बिहार

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