कश्मीर फाइल्स ने प्रतिरोध का नया सौंदर्यशास्त्र रच दिया.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

दुनिया के सभी समुदायों ने दु:ख सहे हैं। इसीलिए तो हम मनुष्य एक समान हैं। फिर भी ऐसा लगता है कि कुछ समुदायों के हिस्से में विशेष पीड़ाएं आई हैं। शायद विधि का ही यह विधान रहा होगा। यहूदियों ने मनुष्यता के दर्ज इतिहास में सबसे भयानक नरसंहार को झेला था। दुनिया इसे होलोकॉस्ट के नाम से जानती है। सरस्वती सभ्यता के वंशजों में से एक कश्मीरी पंडितों ने भी ऐसी ही त्रासदी झेली।

उनकी पैतृक भूमि भारतवर्ष में उन्हें सात बार पलायन करना पड़ा। उनके वंशज आज भी सारस्वत ब्राह्मण कहलाते हैं और उत्तर से दक्षिण तक देश के दूरस्थ कोनों में पाए जा सकते हैं। जैसे यहूदियों को लगता था कि वे ईश्वर की विशिष्ट संतानें हैं, उसी तरह हिमालय की घाटियों में रहने वाले कश्मीरी पंडितों को भी यही लगता रहा कि वे शिव के प्रिय हैं।

लेकिन 1990 में कश्मीर से पंडितों का पलायन विस्थापन के एक लम्बे इतिहास का आखिरी नहीं तो सबसे नया अध्याय अवश्य था। उन्होंने जैसे अन्याय, रक्तपात और जनसंहार को सहा, वह स्तब्ध करने वाला है। आखिर वे किसी दूसरे देश से यहां चले आए शरणार्थी नहीं थे, बल्कि अपने ही देश में बेघर हो गए थे। क्या दोष था उनका?

केवल इतना ही कि वे एक ऐसे राज्य में हिंदू थे, जिसे हमारे दुश्मन- जो देश के बाहर जितने हैं देश के भीतर भी उतने ही हैं- भारत से अलग कर एक इस्लामिक रिपब्लिक बना देना चाहते हैं? जब वे आजादी का नारा बुलंद करते हैं तो किसके लिए? किससे आजादी चाहिए? हिंदू बहुसंख्या वाले भारत से। राज्यसत्ता ने कश्मीरी पंडितों के साथ छल किया- फिर चाहे वह केंद्र की हो या राज्य की। कुछ मर्तबा उनके अपने पड़ोसियों ने भी उनसे दगाबाजी की।

वे कश्मीर घाटी में अल्पसंख्यक थे, लेकिन उन पर देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय ने पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादियों के निर्देशों पर हमला बोला, उन्हें मारा गया, अपने घर से खदेड़ दिया गया। विवेक अग्निहोत्री और पल्लवी जोशी ने उन्हीं की कहानी को अपनी फिल्म कश्मीर फाइल्स के माध्यम से सुनाने का साहस किया है। अग्निहोत्री इस फिल्म के लेखक और निर्देशक हैं और वे कहते हैं कि यह तथ्यों और साक्ष्यों के आधार पर बनाई गई है।

उत्तरजीवियों की कहानियों की 5000 घंटे से अधिक लाइव रिकॉर्डिंग्स पर आधारित। फीचर फिल्म होने के बावजूद इसमें वृत्तचित्र का आभास मिलता है। अग्निहोत्री ने किसी प्रोपगेंडा को आगे नहीं ठेला है, बल्कि एक मानवीय कहानी सुनाई है। इसमें वास्तविक लोगों की वास्तविक भावनाएं हैं। यह कहानी सुनाई जाना बेहद जरूरी थी, क्योंकि कश्मीर और भारत के बारे में अधिकृत रूप से जो नैरेटिव बनाया जाता है, यह उसका प्रत्युत्तर देती है।

इस फिल्म की शूटिंग और इसे रिलीज करवाना भी बड़ी चुनौती थी। न केवल अग्निहोत्री को कश्मीर में फिल्मांकन की अनुमति नहीं थी, बल्कि उन्हें विरोध और व्यवधान का सामना भी करना पड़ा। उन्हें फतवे दिए गए, जान से मारने की धमकियां मिलीं। फिल्म को बैन करने की भी कोशिशें की गईं। कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर इसकी रिलीज रुकवाने की अपील की गई। कोई और होता तो इस फिल्म को नहीं बना पाता।

हमारे राजनीतिक वर्ग के लिए इस जैसी बेबाक फिल्म को बर्दाश्त कर पाना कठिन है, फिर चाहे उनमें से कुछ इसे मौन सहमति ही क्यों न देते हों। फिल्म में क्रूर सच्चाइयों पर कोई मुलम्मा नहीं चढ़ाया गया है। किसी के नाम लेने से संकोच नहीं किया गया है। धार्मिक पहचानों और विचारधाराओं के आधार पर किसी को छूट नहीं दी गई है।

फिल्म आपको विचलित करती है। जैसा कि फिल्म का एक पात्र कहता है, हमारे झूठ इतने निंदनीय नहीं हैं, जितने कि वे सच जिन्हें हमने छुपा दिया है। विवेक अग्निहोत्री को सच सुनाना था और उन्होंने सच सुनाने का साहस किया है। अगर हम इसका सामना नहीं कर सकते, तो यह हमारी सामूहिक चेतना की पराजय होगी।

अभी ऐसी अनेक कहानियां सुनाई जाना शेष हैं। इस फिल्म से जैसे पूरी सभ्यता को खोई आवाज मिल गई। नायपॉल ने सहस्रों विप्लवों की बात की थी। ये हिंदू विप्लव हैं, जिन्होंने उनकी त्रासदियां भुला देने वाले इतिहास के विरुद्ध विद्रोह किया है।

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