अपने वंशजों से क्या चाहते हैं पितर :साथ मे पढ़ें पितृ गीत भावार्थ सहित!!!!!!!!!

अपने वंशजों से क्या चाहते हैं पितर :साथ मे पढ़ें पितृ गीत भावार्थ सहित!!!!!!!!!

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया / सुनील मिश्रा वाराणसी यूपी

विष्णुपुराण में पितरों के द्वारा कहे गये वे श्लोक हैं जो ‘पितृ गीत’ के नाम से जाने जाते हैं । इस गीत से पता लगता है कि पितरगण अपने वंशजों (संतानों) से पिण्ड-जल और नमस्कार आदि पाने के लिए कितने लालायित रहते हैं । पितृ यानी मरे हुए जीव अपने वंशजों द्वारा दिए गए पिण्डदान से ही अपना शरीर बना हुआ अनुभव करते हैं । यह अनुभूति ही पितरों की अपने वंशजों से भावनात्मक लगाव की परिचायक है ।

कूर्मपुराण के अनुसार पितर अपने पूर्व गृह यह जानने के लिए आते हैं कि उनके परिवार के लोग उन्हें विस्मृत तो नहीं कर चुके हैं ।

इस पितृ गीत का सार यह है कि मनुष्य को अपनी शक्ति व सामर्थ्यानुसार पितरों के उद्देश्य से अन्न, फल, जल, फूल आदि कुछ-न-कुछ अवश्य अर्पण करना चाहिए । जिनको भगवान ने सम्पत्ति दी है, उनको तो दिल खोल कर पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध व दान करना चाहिए । जिनकी आय सीमित है उनको भी परलोक में पितरों को सुख पहुंचाने के लिए स्वयं कष्ट सहकर श्राद्ध-तर्पण आदि करना चाहिए ।

जो लोग अपने मृत माता-पिता और प्रियजनों को भूल जाते हैं और श्राद्ध के माध्यम से पितृपक्ष में उन्हें याद नहीं करते हैं, उनके लिए कुछ भी नहीं करते हैं, उनके पितर दु:खी व निराश होकर शाप देकर अपने लोक वापिस लौट जाते हैं फिर इस अभिशप्त परिवार को जीवन भर कष्ट-ही-कष्ट झेलना पड़ता है और मरने के बाद नरक में जाना पड़ता है ।

मार्कण्डेयपुराण में बताया गया है कि जिस कुल में श्राद्ध नहीं होता है, उसमें दीर्घायु, नीरोग व वीर संतान जन्म नहीं लेती है और परिवार में कभी मंगल नहीं होता है ।

यदि परिजन श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करते हैं तो पितर उन्हें आशीर्वाद देकर अपने लोक चले जाते हैं । श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है और वंशवृद्धि के लिए तो पितरों की आराधना ही एकमात्र उपाय है । परिवार में किसी संतान का जन्म होने वाला हो तो पितर अच्छी आत्माओं को संतान रूप में भेजने में सहयोग करते हैं, पितरगण हमारी मदद करते हैं, प्रेरणा देते है, प्रकाश देते हैं, तथा आनन्द और शान्ति देते हैं ।

पितृ गीत (हिन्दी अर्थ सहित)

अपि धन्य: कुले जायादस्माकं मतिमान्नार: ।
अकुर्वन्वित्तशाठ्यं य: पिण्डान्नो निर्वपिष्यति ।।

अर्थात्—पितृगण कहते हैं—हमारे कुल में भी क्या कोई ऐसा बुद्धिमान, धन्य पुरुष पैदा होगा जो धन के लोभ को छोड़कर हमें पिण्डदान करेगा ।

रत्नं वस्त्रं महायानं सर्वभोगादिकं वसु ।
विभवे सति विप्रेभ्यो योऽस्मानुद्दिश्य दास्यति ।।

अर्थात्—जो प्रचुर सम्पत्ति का स्वामी होने पर हमारे लिए ब्राह्मणों को बढ़िया-बढ़िया रत्न, वस्त्र, सवारियां और सब प्रकार की भोग-सामग्री देगा ।

अन्नं न वा यथाशक्त्या कालेऽस्मिन्भक्तिनम्रधो: ।
भोजयिष्यति विप्राग्रयांस्तन्मात्रविभवो नर: ।।

अर्थात्—बड़ी सम्पत्ति न होगी, केवल खाने-पहनने लायक होगी तो जो श्राद्ध के समय भक्ति के साथ विनम्र बुद्धि से श्रेष्ठ ब्राह्मणों को शक्ति भर भोजन ही करा देगा ।

असमर्थोऽन्नदानस्य धान्यमामं स्वशक्तित: ।
प्रदास्यतिद्विजाग्येभ्य: स्वल्पाल्पां वापि दक्षिणाम् ।।

अर्थात्—भोजन कराने में भी असमर्थ होने पर जो श्रेष्ठ ब्राह्मणों को कच्चा धान और थोड़ी सी दक्षिणा ही दे देगा ।

तत्राप्यसामर्थ्ययुत: कराग्राग्रस्थितांस्तिलान् ।
प्रणम्य द्विजमुख्याय कस्मैचिद्भूप दास्यति ।।

अर्थात्—यदि इसमें भी असमर्थ होगा तो किन्हीं श्रेष्ठ ब्राह्मण को एक मुट्ठी तिल ही दे देगा ।

तिलैस्सप्ताष्टभिर्वापि समवेतं जलांजलिम् ।
भक्तिनम्रस्समुद्दिश्य भुव्यस्माकं प्रदास्यति ।।

अर्थात्—अथवा हमारे उद्देश्य से भक्तिपूर्वक विनम्र-चित्त से सात-आठ तिल से युक्त जल की अंजलि ही दे देगा ।

यत: कुतश्चित्सम्प्राप्य गोभ्यो वापि गवाह्निकम् ।
अभावे प्रोणयन्नस्मांछ्रद्धायुक्त: प्रदास्यति ।।

अर्थात्—इसका भी अभाव होगा तो कहीं से एक दिन का चारा ही लाकर प्रेम और श्रद्धापूर्वक हमारे लिए गौ को खिला देगा ।

सर्वाभावे वनं गत्वा कक्षमूलप्रदर्शक: ।
सूर्यादिलोकपालानामिदमुच्चैर्वदिष्यति ।।

अर्थात्—इन सभी वस्तुओं का अभाव होने पर जो वन में जाकर दोनों हाथ ऊंचे उठाकर कांख दिखाता हुआ पुकार कर सूर्य आदि लोकपालों से कहेगा कि—

न मेऽस्ति वित्तं धनं च नान्यंच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृन्नतोऽस्मि ।
तृप्यन्तु भक्त्यापितरो मयैतौ कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य ।।

अर्थात्—मेरे पास श्राद्ध के योग्य न वित्त है, न धन है, न कोई अन्य सामग्री है, अत: मैं अपने पितरों को नमस्कार करता हूँ । वे मेरी भक्ति से ही तृप्त हों । मैंने अपनी दोनों भुजायें दीनता से आकाश में उठा रखी हैं ।

इस प्रकार पितरों के प्रति श्रद्धाभाव ही उन्हें सबसे बड़ी तृप्ति प्रदान करता है ।

Leave a Reply

error: Content is protected !!