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क्या है ममता का अपराजिता बिल ? - श्रीनारद मीडिया

क्या है ममता का अपराजिता बिल ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

देश में कड़े कानून भी हैं। तेजी से मामलों के निस्तारण के लिए फास्ट ट्रैक अदालतें भी हैं। समय के साथ साक्षरता भी बढ़ी है। महिलाएं अपनी सुरक्षा को लेकर सतर्क भी हुई हैं, लेकिन इन सब उपायों से महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध पर अंकुश लगाने में कामयाबी नहीं मिली है। आए दिन महिलाओं के खिलाफ अपराध की खबरें आती रहती हैं। कभी इस राज्य से कभी उस राज्य से।

कोलकाता के आरजी कर अस्पताल में ट्रेनी डॉक्टर का रेप और उसके बाद हत्या का मामला चर्चा में बना हुआ है. मुख्य आरोपी संजय रॉय को गिरफ्तार कर लिया गया है. उसे फांसी देने की मांग हो रही है. इस बीच पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने रेप के मामलों में फांसी की सजा देने के लिए एक नया बिल पास कर दिया है. बिल में रेप के दोषियों को फांसी की सजा देने का प्रावधान है.

रेप के दोषियों को फांसी की सजा का प्रावधान पहले से ही कानून में है. हर साल रेप के कई मामलों में दोषियों को फांसी की सजा सुनाई भी जाती है. लेकिन बीते 20 साल में रेप और मर्डर के मामले में पांच दोषियों को ही फांसी की सजा मिली है.

क्या फांसी की सजा ही विकल्प है?

दोषियों को मौत की सजा देने का विरोध भी होता है. सुप्रीम कोर्ट ने भी कई फैसलों में माना है कि मौत की सजा केवल ‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’ मामलों ही दी जानी चाहिए. 1980 में बचन सिंह बनाम पंजाब सरकार मामले में फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि उम्रकैद नियम है, जबकि सजा-ए-मौत अपवाद है.

1983 में मच्छी सिंह बनाम पंजाब सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पांच ऐसी परिस्थितियां तय की थीं, जिनमें अदालतें दोषी को फांसी की सजा दे सकती थीं. ये परिस्थितियां थीं- हत्या करने का तरीका, हत्या का मकसद, अपराध की असमाजिक या घृणित प्रकृति, अपराध की भयावहता और पीड़ित का व्यक्तित्व. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि अदालतों को अपने फैसले में ये भी साफ करना होगा कि क्यों दोषी को आजीवन कारावास की सजा देना नाकाफी था और मौत की सजा देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था.

मई 2009 में संतोष कुमार सतीशभूषण बरियार बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’ की व्याख्या की थी. तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी भी दोषी को फांसी की सजा तब तक नहीं दी जानी चाहिए, जब तक कि आजीवन कारावास का विकल्प न बचे. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मौत की सजा सुनाते समय अदालतों को दो बातें ध्यान में रखनी चाहिए. पहला कि कोई मामला ‘रेयरेस्ट ऑफ द रेयर’ है या नहीं और दूसरा कि आजीवन कारावास का विकल्प है या नहीं.

इसी तरह अगस्त 2019 में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने 2:1 से दोषी की फांसी की सजा को बरकरार रखा था. हालांकि, जस्टिस संजीव खन्ना ने इससे असहमति जताई थी और कहा था कि पिछले फैसलों में सुप्रीम कोर्ट साफ कर चुका है कि फांसी की सजा तभी होनी चाहिए, जब आजीवन कारावास का विकल्प न बचे. जस्टिस खन्ना ने कहा था कि आरोपी ने बिना किसी दबाव के मजिस्ट्रेट के सामने अपना गुनाह कबूल कर लिया था, इसलिए उसे आजीवन कारावास की सजा देना सही होगी. आरोपी को एक नाबालिग का रेप कर उसकी हत्या करने और उसके नाबालिग भाई की हत्या के मामले में फांसी की सजा सुनाई गई थी.

क्या 10 दिन में फांसी की सजा देना मुमकिन है?

महिलाओं और बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों को रोकने के लिए समय-समय पर कानून बदले गए हैं. 2012 के निर्भया कांड के बाद कानून में अहम बदलाव किया गया था. इसके बाद रेप के मामलों में फांसी की सजा का प्रावधान किया गया था.

अब पश्चिम बंगाल की ममता सरकार के नए बिल में प्रावधान है कि रेप और मर्डर के मामलों की सुनवाई जल्द से जल्द पूरी की जाएगी. कहा जा रहा है कि रेपिस्टों को 10 दिन के भीतर फांसी की सजा सुना दी जाएगी, लेकिन बिल में इसका जिक्र नहीं है. ऐसे मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक अदालतों में होगी.

आंकड़े बताते हैं कि हर साल जिन मामलों में दोषियों को फांसी होती है, उनमें से ज्यादातर रेप और मर्डर के अपराधी होते हैं. दिल्ली की नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी की प्रोजेक्ट 39 की रिपोर्ट बताती है कि 2023 में सेशन कोर्ट ने 120 मामलों में फांसी की सुनाई थी. इनमें से 64 यानी 53% मामले रेप और मर्डर से जुड़े थे.

हालांकि, अगर सेशन कोर्ट से फांसी की सजा मिली है, तो उस पर हाईकोर्ट की मुहर लगनी जरूरी है. भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 22(2) के तहत, सेशन कोर्ट अगर फांसी की सुनाती है, तो हाईकोर्ट में जाना जरूरी है. हाईकोर्ट की मुहर लगने के बाद ही दोषी की फांसी की सजा मुकर्रर होती है.

प्रोजेक्ट 39 की रिपोर्ट के मुताबिक, 2023 में हाईकोर्ट्स के पास फांसी की सजा से जुड़े 80 मामले गए थे. इनमें से सिर्फ एक मामले में ही हाईकोर्ट ने फांसी की सजा को बरकरार रखा था. 36 दोषियों की फांसी की सजा को कम कर दिया था जबकि, 36 दोषियों को बरी कर दिया गया था. कर्नाटक हाईकोर्ट ने हत्या के दोषी बैलूरी थिपैया की फांसी की सजा को ही बरकरार रखा था.

वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा के पाए 11 कैदियों के मामलों पर सुनवाई पूरी की. इसमें से 3 दोषियों की सजा को सुप्रीम कोर्ट ने कम कर दिया. 5 मामलों में 6 दोषियों को बरी कर दिया. जबकि, 2 दोषियों के मामले को सुप्रीम कोर्ट ने फिर से हाईकोर्ट के पास विचार करने के लिए भेज दिया.

प्रोजेक्ट 39 की रिपोर्ट के मुताबिक, दिसंबर 2023 तक देशभर की जेलों में 561 कैदी ऐसे थे, जिन्हें फांसी की सजा मिली थी. ये संख्या 19 साल में सबसे ज्यादा है. इससे पहले 2004 में ऐसे कैदियों की संख्या 563 थी.

पिछले 20 साल के आंकड़े देखें तो रेप और मर्डर के पांच दोषियों को ही फांसी हुई है. 14 अगस्त 2004 को धनंजय चटर्जी को फांसी पर चढ़ाया गया था. उसे 1990 में 14 साल की बच्ची से दुष्कर्म और उसके बाद हत्या के मामले में फांसी की सजा मिली थी.

उसके बाद 20 मार्च 2020 को निर्भया के चार दोषियों को फांसी मिली थी. 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में चलती बस में एक युवती के साथ दुष्कर्म हुआ था. बाद में उसकी मौत हो गई. उसे निर्भया नाम दिया गया. निर्भया कांड के 6 दोषी थे, जिनमें एक नाबालिग था. नाबालिग 3 साल की सजा काटकर छूट गया. एक दोषी ने आत्महत्या कर ली. बाकी 4 दोषी मुकेश सिंह, विनय शर्मा, अक्षय ठाकुर और पवन गुप्ता ने अपनी फांसी रुकवाने के लिए सारी तरकीबें आजमा लीं, लेकिन टाल नहीं सके. मार्च 2020 में चारों को तिहाड़ जेल में फांसी पर लटका दिया.

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