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दीपावली पर अंधविश्वास की क्यों भेंट चढ़ते उल्लू? - श्रीनारद मीडिया

दीपावली पर अंधविश्वास की क्यों भेंट चढ़ते उल्लू?

दीपावली पर अंधविश्वास की क्यों भेंट चढ़ते उल्लू?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जहां हम सब दिवाली के त्योहार पर हर्षित होते हैं, दिये जलाते हैं और आनंद मनाते हैं, वहीं उल्लू जैसे पक्षी शोक मनाते हैं। दीपावली आते ही प्रकृति के इस खूबसूरत परिंदे पर हमारे समाज में सदियों से फैले अंधविश्वासों का संकट मंडराने लगता है। दरअसल, हमारे समाज में उल्लू के बारे में ये मिथकीय धारणा प्रचलित है कि यदि दीपावली के मौके पर इस पक्षी की बलि दी जाए तो धन-संपदा में वृद्धि होती है। कई लोग इस पावन पर्व पर अपने स्वार्थ के लिए उल्लुओं की बलि देते हैं, जिसके चलते हर साल सैकड़ों उल्लुओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी अंधविश्वास के मकड़जाल में कैद इंसान विवेकहीनता वश इस पक्षी का दुश्मन बन बैठा है।

उल्लू हमारे पारिस्थितिकी-तंत्र का बेहद ही महत्वपूर्ण पक्षी है, जो खाद्य-श्रृंखला प्रणाली के तहत जैवविविधता को संतुलित बनाए रखने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह शिकारी पक्षी कई हानिकारक कीट-पतंगों और कृंतकों का भक्षण कर हमारी फसलों और खाद्यान्नों की सुरक्षा करता है। चूहे, छछूंदर जैसे छोटे स्तनधारी जीव जो कि हमारे अनाज और फसलों के शत्रु हैं, उनका भक्षण कर उल्लू हमारी सहायता करता है। यही कारण है कि इसे किसानों का मित्र भी कहा जाता है। टिड्डी जैसे कीट जो कि हर साल हमारी फसलों को काफी क्षति पहुंचाते हैं, उल्लू उनका कुदरती नियंत्रणकर्ता है।

उल्लू भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के अंतर्गत एक संरक्षित प्राणी के रूप में दर्ज पक्षी है। जैवविविधता के संरक्षण के लिए समर्पित ‘वन्यजीव व्यापार निगरानी नेटवर्क’ संस्था के अनुसार भारत में उल्लुओं की लगभग 35 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें आधी से अधिक प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा है। यही कारण है कि इंटरनेशनल यूनियन फार कंजर्वेशन आफ नेचर जैसी अंतरराष्ट्रीय पर्यावरणीय संस्था ने भी उल्लू को एक संकटग्रस्त प्रजाति घोषित कर रखा है।

आज जरूरी है कि हम पर्यावरण संतुलन के लिए अत्यंत उपयोगी इस पक्षी के प्राकृतिक महत्व के बारे में जन-जागरूकता का प्रसार करें और लोगों को इसका महत्व समझाएं। इस पक्षी के शिकार और तस्करी में लिप्त अपराधियों के लिए कानून में कड़े दंड का प्रविधान होने के बावजूद भी प्रतिवर्ष सैकड़ों की संख्या में उल्लुओं की जान जाती है।

एक तो वैसे ही इन पक्षियों पर लगातार नष्ट हो रहे वनों, झाड़ियों जैसे प्राकृतिक आवासों और अवैध शिकार का खतरा मंडरा रहा है दूसरी तरफ ढेरों अंधविश्वास एवं भ्रांतियां भी इनकी आबादी को घटा रही हैं। अगर अब भी हम उल्लू के पारिस्थितिकी संबंधी महत्व के बारे में सचेत नहीं हुए तो धीरे-धीरे इसका अस्तित्व प्रकृति से समाप्त हो जाएगा और इसके भी जिम्मेदार केवल हम ही होंगे।

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