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जजों की नियुक्ति के तरीकों पर भी बात करना क्यों जरूरी है ? - श्रीनारद मीडिया

जजों की नियुक्ति के तरीकों पर भी बात करना क्यों जरूरी है ?

जजों की नियुक्ति के तरीकों पर भी बात करना क्यों जरूरी है ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

देश के कानून मंत्री के साथ रक्षा मंत्री अगर किसी बात पर चेताएं तो उस पर बहस के साथ कार्रवाई भी होनी चाहिए। किरण रिजिजू ने जजों की नियुक्ति प्रणाली और उसके दुष्प्रभावों के पांच पहलुओं पर बात की है। पहला- कॉलेजियम में शामिल जज लोग अपने परिचित, रिश्तेदारों को जज नियुक्त करते हैं। ऐसा दुनिया में कहीं नहीं होता।

जजों की नियुक्ति में आ रही सिफारिशों के बारे में कानून मंत्री ने सीक्रेट प्रमाण की सनसनीखेज स्वीकारोक्ति की है। दूसरा- जजों का आधा समय नियुक्तियों में बीतने से जनता को समय पर न्याय नहीं मिलता। तीसरा- नियुक्ति प्रणाली के कॉलेजियम सिस्टम को सुधारने के लिए नए तरीके से कानून बनाने की जरूरत है।

चौथा- कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया की तर्ज पर न्यायपालिका के लिए भी निगरानी तंत्र जरूरी है। पांचवां- रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के अनुसार मीडिया, एनजीओ और न्यायपालिका के बेजा इस्तेमाल से विभाजक शक्तियां प्रबल हो रही हैं। छह साल पहले विज्ञान भवन में आयोजित कार्यक्रम में बदहाल न्यायिक व्यवस्था के आगे लाचार दिखते हुए तत्कालीन चीफ जस्टिस ठाकुर भाषण देते हुए रो पड़े थे।

नए चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ के पिता रिकॉर्ड सात साल तक सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे थे। लेकिन वंशवाद का मर्ज तो सात दशक पुराना है। पहले चीफ जस्टिस कानिया और चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्रा दोनों के भतीजे सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बन चुके हैं। कानून मंत्री ने जजों के भाई-भतीजावाद के जिस नेक्सस की ओर इशारा किया है, उसके तीन खतरनाक पहलुओं पर शायद ही कोई विवाद हो।

पहला, वंशवादी, अभिजात्य और सिफारिशी पृष्ठभूमि से आए जजों की जनता से जुड़े जल्द न्याय देने वाले मुद्दों में दिलचस्पी नहीं होती। दूसरा, वकील बच्चों और रिश्तेदारों की वजह से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भ्रष्टाचार बढ़ने के साथ जजों की साख खराब हो रही है। तीसरा, जुगाड़ से आए जज, संविधान और मूल अधिकारों के संरक्षक की भूमिका पूरी करने में विफल हो रहे हैं।

कानून मंत्री के उठाए पांच मुद्दों में हकीकत, सियासत और अफसाना सभी शामिल है, इसलिए उन्हें तथ्यों और तर्कों के आलोक में परखने की जरूरत है। पहला- कानून मंत्री जजों पर गंभीर आरोप लगा रहे हैं। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट के सभी जज और हाईकोर्ट के सभी चीफ जस्टिस की नियुक्तियों को सरकार ने ही मंजूरी दी है। उसके अलावा पिछले 8 सालों में सरकार ने लगभग 600 हाईकोर्ट जजों की भी नियुक्ति की है।

अभी रिटायर हुए चीफ जस्टिस रमना ने सुप्रीम कोर्ट के 11 जज और हाईकोर्ट के 224 जजों की नियुक्ति को मंजूरी दी थी, जिनमे से चार सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बनेंगे। दूसरी ओर सरकारी सियासत और कॉलेजियम के अन्य जज के वीटो की वजह से पुराने चीफ जस्टिस बोबडे के समय नए जज की नियुक्ति नहीं हो पाई थी। दूसरा, कागजी तौर पर जज ही जजों की नियुक्ति करते हैं। लेकिन व्यावहारिक तौर पर इन नियुक्तियों में मंत्री, अफसर, बड़े वकील और जजों के बीच बंदरबाट होती है।

एनजेएसी फैसले में शामिल एक जज ने कॉलेजियम प्रणाली की सड़ांध को खत्म करने के लिए खुलेपन (ग्लास्त्नोव) और आमूलचूल बदलावों (पेरोस्त्रोइका) जैसे ठोस कदम उठाने की मांग की थी। उसके बावजूद सरकार ने पिछले सात सालों में मेमोरेंडम आफ प्रोसिजर में ठोस बदलाव नहीं किए। तीसरा- सरकार सबसे बड़ी मुकदमेबाज है, इसलिए जजों की नियुक्ति-व्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।

इसी कारण से सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 2015 में एनजेएसी कानून को रद्द कर दिया था। लेकिन पिछले सात सालों में सरकार ने उस फैसले के खिलाफ न तो रिव्यू दायर किया और न ही संसद से नया कानून बनाने की पहल की। प्रधानमंत्री ने जल्द न्याय और न्यायिक सुधारों के एजेंडे पर सार्थक बहस शुरू की है।

दूसरी तरफ दो साल से ज्यादा कार्यकाल वाले नए चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ के पास टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से अदालती सिस्टम को ठीक करने की समझ और विजन है। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार जॉइन करने से पहले जज तीन कालम में विस्तृत हलफनामा दें तो सिस्टम में सुधार आ सकता है। निगरानी तंत्र बनाने की बजाय जजों को सियासत और विवादों से दूर रखकर न्यायपालिका के भारतीयकरण और न्यायिक सुधार की भी जरूरत है।

प्रधानमंत्री ने न्यायिक सुधारों के एजेंडे पर सार्थक बहस शुरू की है। निगरानी तंत्र बनाने की बजाय जजों को सियासत और विवादों से दूर रखकर न्यायपालिका के भारतीयकरण की भी जरूरत है।

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