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अपनों पर ही क्यों भारी पड़ रही लालू प्रसाद यादव की राजनीति? - श्रीनारद मीडिया

अपनों पर ही क्यों भारी पड़ रही लालू प्रसाद यादव की राजनीति?

अपनों पर ही क्यों भारी पड़ रही लालू प्रसाद यादव की राजनीति?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

आजकल लालू प्रसाद यादव स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मस्तिष्क के साथ पटना में जमे हैं। लालू अगर पटना में हों तो शांत तो बैठ नहीं सकते। विपक्षी दलों को तो टानिक देते ही हैं और तेजस्वी के लिए दिक्कत खड़ी करने में भी पीछे नहीं रहते। जब-जब लालू पटना आए, राजद को झटका ही लगा। जब तारापुर और कुशेश्वरस्थान विधानसभा के उपचुनाव थे तो लालू के पटना में पैर रखते ही जीतते-जीतते राजद हार गया।

बोचहा उपचुनाव के समय लालू जेल में थे तो राजद जीत गया। इस बार पटना आए तो राजद समाचार पत्रिका के संपादक रहे प्रेम कुमार मणि ने तेजस्वी के नेतृत्व की तारीफ करते हुए दल की दुर्दशा के लिए लालू को जिम्मेदार ठहरा किनारा कर लिया। राज्यसभा और विधान परिषद के लिए बिना सहयोगी दलों की राय के प्रत्याशी तय कर दिए। जबकि बिना उनके सहयोग के जीत संभव नहीं है। अब वामदल भी मुंह फुलाए हैं और कांग्रेस भी।

राज्यसभा चुनाव में तो सहयोगी दलों ने इस आस में कोई विरोध नहीं किया कि विधान परिषद में एक सीट की उम्मीद थी। पिछले अनुभवों को देखते हुए कांग्रेस तो उम्मीद नहीं पाले थी, लेकिन वामदलों को आस जरूर थी। राज्यसभा के लिए लालू ने अपनी बड़ी बेटी मीसा भारती और पूर्व विधायक फैयाज अहमद को प्रत्याशी बना दिया। घर कलह से बचने के लिए मीसा को सदन भेजना जरूरी था। फैयाज का मेडिकल कालेज है।

लोग कहते हैं कि एक पैसे वाले को चुनना लालू के लिए जरूरी था। इस चुनाव में दोनों की जीत के लिए 82 वोटों की जरूरत थी। राजद के पास 76 वोट ही थे। ऐसे में कांग्रेस (19), भाकपा व माकपा के दो-दो व भाकपा माले के 12 वोटों में से छह की उसे जरूरत थी। एआइएमआइएम यानी असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के पास भी पांच वोट हैं। चूंकि इनमें से किसी ने उम्मीदवार नहीं उतारा, सो राजद के दोनों प्रत्याशी निर्विरोध निर्वाचित हो गए।

लेकिन मामला दिलचस्प हो गया है विधान परिषद चुनाव में। इसमें कांग्रेस तो नहीं, लेकिन 16 वोटों वाले वामदल एक सीट की आस लगाए हैं। पर लालू ने किसी भी दल को विश्वास में लिए बिना तीन प्रत्याशी घोषित कर दिए। जिसमें एक बाह्मण अशोक पाण्डेय, एक मुस्लिम कारी सोहैब व एक दलित महिला मुन्नी रजक को प्रत्याशी बनाया। अंदरखाने की खबर यह है कि कारी सोहैब तेजस्वी यादव की पसंद हैं, अशोक पाण्डेय लालू की और मुन्नी रजक तेजप्रताप की। इस चयन से राबड़ी देवी नाराज हैं। वे सुबोध राय को चाहती थीं, लेकिन उनकी नहीं चली।

राबड़ी की यह नाराजगी सदस्यता अभियान को लेकर बुलाई गई विधायक दल की बैठक में सार्वजनिक हो गई। उसमें राबड़ी मंच पर न जाकर नीचे बैठ गईं। तब लालू को मनाना पड़ा। यहां तक तो ठीक, लेकिन मामला अभी भी पेचीदा है। तीनों की जीत के लिए 93 वोट चाहिए। राजद के पास 76 ही हैं। इसलिए शेष 17 वोटों के लिए उसे कांग्रेस और वामदलों की जरूरत है। राजद कह रहा है कि उसने सभी को विश्वास में लेकर प्रत्याशी घोषित किए हैं, परंतु सहयोगी इससे इन्कार कर रहे हैं।

राजद को झटका देने के लिए कांग्रेस ने वामदलों के साथ मिलकर मोर्चा खोलने की घोषणा कर दी है। विधायक दल के नेता अजीत शर्मा ने कह दिया है कि कांग्रेस भाकपा माले के प्रत्याशी को समर्थन दे सकती है। वामदल व कांग्रेस के पास 35 वोट हैं। अगर ऐसा होता है तो लालू के इस खेल से तेजस्वी का एटूजेड का फामरूला बिगड़ेगा, क्योंकि तब उनका एक प्रत्याशी सदन नहीं जा पाएगा। तेजस्वी ब्राह्मण, कोर वोट मुस्लिम व दलित में से किसी को भी नहीं छोड़ सकते। इसके लिए राजद वामपंथी दलों को 2024 में खाली होने वाली 11 सीटों में समायोजित करने की बात कर रहा है। जबकि भाकपा माले कह रहा है कि 2024 में हालात क्या होंगे? नहीं मालूम। पता नहीं गठबंधन रहेगा या नहीं।

अगर राजद गठबंधन को आश्वस्त है तो वही 2024 का उसका कोटा ले ले और उसे इस बार दे दे। हालांकि राजद आश्वस्त है कि कांग्रेस या वामदल उसे समर्थन जरूर देंगे, क्योंकि वे नहीं चाहेंगे कि भाजपा के बीच बंटवारे का कोई संदेश जाए। अभी ये दल राजद के रुख का इंतजार कर रहे हैं। अगर राजद को माले का समर्थन नहीं मिलता है तो उसकी तीसरी सीट फंस सकती है। इन्हीं हालात के बीच राजद के नौ साल पुराने साथी प्रेम कुमार मणि ने लालू पर तमाम आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ दी। उन्होंने उन पर टिकट बेचने और पार्टी को रसातल में पहुंचाने का आरोप लगा दिया। लोग कह रहे हैं कि लालू की चाल लालू ही जानें।

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